प्रिय भाईयों एवं बहनों,
चालीसा-काल समस्त कलीसिया, हरेक समुदाय एवं विश्वासी के नवीनीकरण का काल है। सबसे बढ़कर यह ’’अनुग्रह का काल है’’ (2 कुरि. 6:2) ईश्वर हम से ऐसा कुछ भी नहीं चाहता जो उन्होंनें हमें पहले दिया न हो। ’’हम प्रेम करते हैं क्योंकि उन्होंनें हमें पहले प्रेम किया है’’ (1 योहन 4:19)। वे हमसे दूर नहीं है। उनके हृदय में हम प्रत्येक जन के लिये स्थान है। वे हमें हमारे नामों से जानते है, वे हमारा ख्याल रखते हैं और जब कभी भी हम उनसे विमुख हो जाते हैं तो वे हमें खोजते है। वे हम सब में रूचि रखते हैं; जो कुछ भी हमारे साथ होता है उसके प्रति उनका प्रेम उन्हें असंवेदनशील नहीं रहने देता। साधारणः जब हम स्वस्थ एवं आरामदायक स्थिति में होते हैं तो दूसरों को भूल जाते हैं (ऐसा पिता ईश्वर कभी नहीं करता): हम उनकी समस्याओं, उनकी तकलीफों तथा जो अन्याय वे सहते हैं, के प्रति दिलचस्पी नहीं दिखाते हैं... हमारे हृदय भावशून्य बन जाते हैं। जब मैं स्वस्थ एवं आरामदेह रहता हूँ तब मुझे उनकी याद नहीं आती जो अभाव में जीवन जीते है। आज इस स्वार्थी दृष्टिकोण ने विश्व व्यापी रूप धारण कर लिया है, यह इस हद तक जा पहुँचा कि हम संवेदनहीनता के विश्वव्यापीकरण पर बात कर सकते हैं। यह एक ऐसी समस्या है जिसका हम ख्रीस्तीयों को सामना करना है।
जब ईश्वर की प्रजा उनके प्रेम की ओर परिवर्तित होती है तो वे उन सभी प्रष्नों का उत्तर पाते हैं जो इतिहास हमेशा उठाता रहता है। सबसे महत्वपूर्ण चुनौती जो मैं इस संदेश में उठना चाहूँगा वह है संवेदनहीनता का विश्वव्यापीकरण।
अपने पडोसी तथा ईश्वर के प्रति संवेदनहीनता या उदासीनता हम ख्रीस्तीयों के लिये एक वास्तविक प्रलोभन है। हर वर्ष चालीसे काल के दौरान हमें नबियों की वाणी, जो पुकार कर हमारे अंतरतम को झकझोरती है, को एक बार फिर सुनना चाहिये।
ईश्वर हमारी दुनिया के प्रति उदासीन नहीं है; उन्होंने हमें इतना प्रेम किया कि हमारी मुक्ति के लिये उन्होंने अपने पुत्र को प्रदान किया। ईश-पुत्र के देहधारण, सांसारिक जीवन, मृत्यु तथा पुनरूत्थान में ईश्वर तथा मानव, स्वर्ग और धरती के बीच का द्वार हमेशा के लिये खुल गया है। कलीसिया ईश-वचन की घोषणा, संस्कारों के अनुष्ठान, एवं विश्वास के प्रति अपनी गवाही जो प्रेम के द्वारा अभिव्यक्ति पाती है, के द्वारा इस द्वार को खोले रखती है (देखिये गलातियों 5:6) लेकिन दुनियॉ स्वयं को पीछे की ओर खींच लेती तथा उस द्वार को बंद कर देती है जिसके द्वारा ईश्वर उसके पास आते हैं तथा दुनिया ईश्वर के पास पहुँचती है। अतः हाथ, जो कलीसिया है को कभी भी आश्चर्यचकित नहीं होना चाहिये यदि उसे अस्वीकृत, कुचला तथा जख्मी किया गया हो।
ईश्वर की प्रजा को इस नवीनीकरण की आवष्यकता है; कहीं ऐसा न हो कि हम भी उदासीन तथा स्वयं में अभिमुख हो जायें। इस नवीनीकरण को आगे बढ़ाने हेतु मैं बाइबिल के तीन पाठों को प्रस्तुत करना चाहूँगा।
1. ’’यदि एक अंग को पीड़ा होती है, तो उसके साथ सभी अंगों को पीड़ा होती है’’ (1कुरि.12:26)
ईश्वर का प्रेम स्वयं के प्रति अभिमुख होने की घातक उदासीनता को तोड़ देता है। कलीसिया अपनी शिक्षाओं तथा विशेषकर गवाही के द्वारा हमें इसी ईश्वरीय प्रेम को प्रदान करती है। लेकिन हम उसी बात की ही गवाही दे सकते हैं जिसका हमने स्वयं अनुभव किया है। ख्रीस्तीय वे ही होते हैं जो ईश्वर को उन्हें, ख्रीस्त के साथ, ख्रीस्त के समान ईश्वर तथा अन्यों के सेवक बनने हेतु भलाई तथा दयालुता के वस्त्र पहनाने देते हैं। यह बात स्पष्ट रूप से पवित्र गुरूवार की पूजन-विधि में, पैर धोने की विधि में देखी जा सकती है। पेत्रुस येसु को उनके पैर धोने नहीं देना चाहता, लेकिन वह अहसास करता है कि येसु दूसरों के पैर धोने का केवल उदाहरण मात्र ही नहीं बने रहना चाहते हैं। केवल वे ही दूसरों के पैर धोने की सेवा कर सकता है जिन्होंने पहले येसु को स्वयं के पैर धोने दिये। उनका ही येसु के साथ ’’संबंध’’ होता है (योहन 13:8) और वे ही दूसरों की सेवा कर सकते हैं।
चालीसा-काल येसु को अपनी सेवा करने देने का उपयुक्त समय है ताकि हम भी उनके जैसे बन सकें। यह उस समय होता है जब हम ईश्वर का वचन सुनते हैं तथा संस्कारों को ग्रहण करते हैं, विशेषकर यूखारिस्तीय संस्कार। तब हम वो बन जाते हैं जिसको हमने ग्रहण किया है, अथार्त ईश्वर का शरीर। इस शरीर में उस उदासीनता के लिये कोई जगह नहीं है जिससे अक्सर हमारे हृदय भरे रहते हैं। जो कोई भी येसु का है, एक ही शरीर का है और उसमें एक-दूसरे के लिये कोई उदासीनता हो ही नहीं सकती। ’’यदि एक अंग को पीड़ा होती है, तो उसके साथ सभी अंगों को पीड़ा होती है और यदि एक अंग का सम्मान किया जाता है, तो उसके साथ सभी अंग आनन्द मनाते हैं’’ (1कुरि.12:26)।
कलीसिया संतों की सहभागिता (communio sanctorum) है। यह न केवल उसके संतों के कारण है, बल्कि इस कारण भी कि कलीसिया पवित्र वस्तुओं में सहभागी हैः ईश्वर का प्रेम तथा उनके सभी उपहार हमें येसु में प्रकट होते हैं। इन उपहारों में उन लोगों का प्रतिउत्तर भी है जो स्वयं को येसु के प्रेम का स्पर्श होने देते हैं। संतों की इस सहभागिता, इन पवित्र वस्तुओं की सहभागिता में कोई भी किसी का स्वामी नहीं होता बल्कि दूसरों के साथ सब कुछ बांटता है। चूंकि हम ईश्वर से संयुक्त हैं, हम उनके लिये कुछ कर सकते हैं जो बहुत दूर हैं, जिनके समीप हम खुद कभी नहीं पहुँच सकते, क्योंकि उनके साथ एवं उनके लिये, हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं हम सभी उनकी मुक्ति की योजना के प्रति खुले रहें।
2. ’’तुम्हारा भाई कहाँ है?’’ (उत्पत्ति 4:9) पल्लियाँ एवं समुदाय
जो कुछ भी हम सार्वत्रिक कलीसिया के बारे में कह रहे हैं उसे अब हमारी पल्लियों तथा समुदायों के जीवन पर लागू करना है। क्या यह कलीसियाई ढांचा हमें एक शरीर के होने का अनुभव प्रदान करते हैं? एक ऐसा शरीर जो उसे ग्रहण करता एवं देता है जिसे ईश्वर देना चाहता है? एक ऐसा शरीर जो कमजोरों, गरीबों, तथा कम महत्वपूर्णों सदस्यों को स्वीकारता तथा उनका ख्याल रखता है? या फिर हम सार्वत्रिक प्रेम में शरण लेंगे जो समस्त विश्व का आलिंगन तो करता है किन्तु उस लाजरूस को देखना भूल जाता जो हमारे बंद दरवाजों के बाहर बैठा है (लूकस 19:31)?
ईश्वर जो हमें देना चाहते हैं उसे ग्रहण करने के लिये तथा अनगिनत फल उत्पन्न करने के लिये हमें दृश्य कलीसिया की सीमाओं को पार कर दो तरीकों से प्रयत्न करना होगा।
सर्वप्रथम, स्वर्ग की कलीसिया के साथ प्रार्थना में संयुक्त होना। धरती की कलीसिया की प्रार्थना पारस्परिक सेवा एवं भलाई को स्थापित करती है जो ईश्वर की दृष्टि तक पहुँचती है। सभी संतों के साथ जिन्होंने ईश्वर में अपनी परिपूर्णता पायी, हम उस समुदाय को बनाते हैं जिसमें उदासीनता पर प्रेम के द्वारा विजयी पायी जाती है। स्वर्ग की कलीसिया विजयी इसलिए नहीं है कि उसने दुनिया के तकलीफों के प्रति अपनी पीठ मोड ली है तथा वह अपनी उत्कृष्ट अलगाव में आनन्द मनाती है। बल्कि संत आनन्दपूर्वक इस तथ्य पर पहले ही मनन करते हैं कि येसु की मृत्यु एवं पुनरूत्थान द्वारा उन्होंने हमेशा हमेशा के लिये उदासीनता, हृदय की कठोरता तथा नफरत पर विजय प्राप्त कर ली है। जब तक प्रेम की यह विजय समस्त संसार को भेद नहीं देती, तब तक संतगण हमारे इस तीर्थ मार्ग पर हमारा साथ देते हैं। लिस्यु की संत तेरेसा, कलीसिया की विदवान, ने अपनी दृढ़ धारणा को व्यक्त करते हुए कहा था कि क्रूसित प्रेम की विजय का आनन्द स्वर्ग में तब तक अधूरा रहेगा जब तक इस धरती पर एक भी पुरूष या स्त्री दुख सहती और पीड़ा से कराहती हैः ’’मुझे पूरा विश्वास है कि मैं स्वर्ग में निष्क्रिय नहीं रहूँगी; मेरी इच्छा है कि मैं कलीसिया तथा आत्माओं के कार्य करती रहूँ’’ (पत्र 254, 14 जुलाई 1897)।
हम संतों के गुणों तथा आनन्द के भागी हैं, जिस प्रकार वे हमारे संघर्ष और हमारी शांति तथा मेल-मिलाप की लालसा में भागी है। पुनरूत्थित प्रभु की विजय में उनका आनन्द उदासीनता तथा हृदय की कठोरता पर विजय प्राप्त करने के हमारे संघर्ष में हमें शक्ति प्रदान करता है।
दूसरा, हर ख्रीस्तीय समुदाय अपने समुदाय से बाहर जाकर बृहत समाज के जीवन, जिसका वह एक हिस्सा है, से जुडने के लिये बुलाया गया हैं, विशेषकर उनके जो दरिद्र हैं और जो बहुत दूर हैं। कलीसिया अपने स्वाभाव से ही मिष्नरी है; वह अपने आप में बंद न होकर प्रत्येक राष्ट्र एवं प्रजाति के लिये भेजी गयी है।
कलीसिया का मिशन उसके लिये एक धैर्यपूर्ण गवाही देना है जिसकी इच्छा समस्त सृष्टि तथा प्रत्येक पुरूष तथा स्त्री को पिता की ओर खींचने की है। कलीसिया का मिशन सभी लोगों तक उस प्रेम को पहुँचाना है जो शांत नहीं रह सकता। कलीसिया, संसार के अंतिम छोर तक येसु ख्रीस्त का उस मार्ग पर अनुसरण करती हैं जो हर पुरूष और स्त्री की ओर ले जाता है (प्रेरित चरित 1:8) हमारे हर पडोसी में हमें उस भाई या बहन को देखना है जिसके लिये ख्रीस्त मर गये तथा पुनः जीवित उठे। जिसे हमने स्वयं ग्रहण किया है, उसे हम ने दूसरों के लिये भी ग्रहण किया है। इस तरह, हमारे सभी भाई एवं बहनों के पास जो कुछ है वह सब कलीसिया एवं समस्त मानवजाति के लिये एक उपहार है।
प्रिय भाईयों एंव बहनों, मैं हार्दिक अभिलाषा करता हूँ कि जहाँ कहीं भी कलीसिया उपस्थित है विशेषकर हमारी पल्लियाॅ तथा समुदाय उदासीनता के सागर के बीच दयालुता के द्वीप बन जाये।
3. ’’अपने हृदय दृढ़ बना लो!’’ (याकूब 5:8)
व्यक्तिगत तौर पर भी हम उदासीनता द्वारा प्रलोभित किये जाते हैं। कष्टप्रद मानवीय दुःख-तकलीफों के चित्र तथा खबरों की बाढ़ के बीच अक्सर हम अपने को मदद कर पाने में पूरी तरह असमर्थ पाते हैं। हम इस तरह के दुःख एवं शक्तिहीनता के कुचक्र से बचने के लिये क्या कर सकते हैं?
पहले, हम धरती एवं स्वर्ग की कलीसिया के साथ मिल कर प्रार्थना कर सकते हैं। हमें प्रार्थना में एक इतनी सारी पुकारों को कम करके नहीं आंकना चाहिये। प्रभु के लिये 24 घण्टे की पहल, जैसे की मैं आशा करता हूँ 13-14 मार्च को समस्त कलीसिया तथा धर्मप्रांतीय स्तर पर मनायी जायेगी; यह प्रार्थना की जरूरत का एक चिन्ह होगा।
दूसरा, हम परोपकार के कार्यों द्वारा, कलीसिया के विभिन्न परोपकारी संगठनों द्वारा, दूर तथा समीप के लोगों की मदद कर सकते हैं। चालीसा-काल हमारी दूसरों के प्रति इस चिंता को व्यक्त करने का उपयुक्त समय है जो हमारे एक मानवीय परिवार से जुड़े होने का छोटा लेकिन ठोस चिन्ह है।
तीसरा, दूसरों का दुःख मन-परिवर्तन के लिये निमंत्रण है क्योंकि उनकी ज़रूरतें मुझे मेरे भविष्य की अनिष्चितता तथा ईश्वर तथा मेरे भाई-बहनों पर मेरी निर्भरता की याद दिलाती हैं। यदि हम विनम्र बनकर ईश्वर के अनुग्रह को ढूंढे़ं तथा अपनी सीमितताओं को स्वीकारें तो हम उन सारी असीमित संभावनाओं पर विश्वास करेंगे जो ईश्वर का प्रेम हमारे लिये बनाये रखता है। हम उस शैतानिक प्रलोभन का प्रतिरोध भी कर सकेंगे जो कहता कि हम अपने कार्यों तथा योग्यता के बल पर स्वयं तथा दुनिया को बचा सकते हैं।
हमारी उदासीनता तथा आत्मनिर्भरता की मिथ्या पर विजय पाने के लिये मैं आप सभी को इस चालीसा-काल को उस कार्य को अपनाने का अवसर बनाने के लिए आमंत्रित करता हूँ जिसे पापा बेनेडिक्ट सौलहवें ’’हृदय का निमार्ण’’ कहते हैं। (देखिये देउस कारितास एस्त,31) एक दयालु हृदय होने का तात्पर्य कमजोर हृदय नहीं है। जो कोई भी दयालु बनना चाहता है उसका हृदय ताकतवर तथा अटल होना चाहिये जो प्रलोभक के प्रति बंद परन्तु ईश्वर के लिये खुला रहे। ऐसा हृदय जो आत्मा को उसका भेदन करने दे जिससे हम अपने भाई बहनों तक प्रेम ले जा सकें। और अंत में एक ऐसा निर्धन हृदय जो अपनी निर्धनता को पहचानता है तथा दूसरों के लिये स्वयं को मुफ्त में समर्पित कर देता है।
प्रिय भाईयों एवं बहनों इस चालीसे के दौरान हम सब प्रभु से माँगेः "Fac cor nostrum secundum cor tuum": हमारे हृदयों को भी आपके हृदय के समान बनाईये (येसु के पवित्र हृदय की स्तुति विनती)। इस तरह हम वह हृदय पा सकेंगे जो दृढ़ एवं दयालु, एकाग्र एवं उदार हो तथा जो बंद, उदासीन या फिर उदासीनता के विश्वव्यापीकरण का शिकार नहीं हो।
यह मेरी प्रार्थनामय आशा है कि यह चालीसा प्रत्येक विश्वासी तथा कलीसियाई समुदाय के लिये आध्यात्मिक रूप से फलदायी सिद्ध हो। मैं आप सभी से विनती करता हूँ कि आप मेरे लिये प्रार्थना करें। ईश्वर आपको आशिष प्रदान करें और माता मरियम आपको संभालें।