सामान्य काल का तीसरा सप्ताह, शनिवार - वर्ष 2

पहला पाठ

समूएल का दूसरां ग्रन्थ 12:1-7,10-17

“मैंने प्रभु के विरुद्ध पाप किया।”

प्रभु ने नातान को दाऊद के पास भेजा। नातान ने उसके पास आ कर कहा, “एक नगर में दो व्यक्ति रहते थे, एक धनी था और दूसरा दरिद्र। धनी के पास बहुत-सी भेड़-बकरियाँ और गाय-बैल थे। दरिद्र के पास केवल एक छोटी-सी भेड़ थी, जिसे उसने खरीदा था। वह उसका पालन-पोषण करता था। वह भेड़ उसके यहाँ उसके बच्चों के साथ बड़ी होती जा रही थी। वह उसकी रोटी खाती, उसके प्याले में पीती और उसकी गोद में सोती थी। वह उसके लिए बेटी के समान थी। किसी दिन धनी के यहाँ एक अतिथि पहुँचा। धनी ने अपने यहाँ आये हुए यात्री को खिलाने के लिए अपने पशुओं में से किसी को भी लेना नहीं चाहा, बल्कि उसने दरिद्र की भेड़ छीन ली और उसे पका कर अपने अतिथि के लिए भोजन का प्रबन्ध किया। दाऊद का क्रोध उस मनुष्य पर भड़क उठा और उसने नातान से कहा, “जीवन्त प्रभु को शपथ ! जिस व्यक्ति ने ऐसा किया, वह प्राणदण्ड के योग्य है। वह भेड़ का चौगुना दाम चुका देगा, क्योंकि उसने ऐसा निर्दय काम किया है। इस पर नातान ने दाऊद से कहा, “वह व्यक्ति तुम्हीं हो। इसलिए आज से तलवार तुम्हारे घर से कभी दूर नहीं होगी, क्योंकि तुमने मेरा तिरस्कार किया और ऊरीया की पत्नी को अपनी पत्नी बना लिया। प्रभु यह कहता है, “मैं तुम्हारे अपने घर से तुम्हारे लिए विपत्ति उत्पन्न करूँगा। मैं तुम्हारे देखते-देखते तुम्हारी पत्नियों को ले जा कर तुम्हारे पड़ोसी को दे दूँगा, जो खुले आम उनके साथ रमण करेगा। तुमने गुप्त रूप से यह काम किया, मैं समस्त इस्राएल के सामने प्रकट रूप से यह करूँगा।” दाऊद ने नातान से कहा, “मैंने प्रभु के विरुद्ध पाप किया है।” इस पर नातान ने दाऊद से कहा, “प्रभु ने तुम्हारा यह पाप क्षमा कर दिया है। तुम नहीं मरोगे। किन्तु तुमने इस काम के द्वारा प्रभु का तिरस्कार किया, इसलिए तुम्हें जो पुत्र उत्पन्न होगा, वह अवश्य मर जायेगा।” इसके बाद नातान अपने घर गया। प्रभु ने उस बच्चे को मारा, जिसे ऊरीया की पत्नी ने दाऊद के लिए उत्पन्न किया था, और वह बहुत ही बीमार पड़ा। दाऊद ने बच्चे के लिए ईश्वर से प्रार्थना की। उसने कुछ भी नहीं खाया और वह अपने शयनकक्ष जा कर रात में भी भूमि पर सोता रहा। दरबार के वयोवृद्धों ने उस से अनुरोध किया कि वह भूमि पर सोना छोड़ दे, किन्तु उसने उनकी बात नहीं मानी और उनके साथ भोजन करना अस्वीकार किया।

प्रभु की वाणी।

भजन : स्तोत्र 50:12-17

अनुवाक्य : हे प्रभु ! मेरा हृदय फिर शुद्ध कर।

1. हे ईश्वर ! मेरा हृदय फिर शुद्ध कर और मेरा मन सुदृढ़ बना। अपने सान्निध्य से मुझे दूर न कर और अपने पवित्र आत्मा को मुझ से न हटा।

2. मुक्ति का आनन्द मुझे फिर प्रदान कर औरं उदारता में मेरा मन सुदृढ़ .बना। मैं विधर्मियों को तेरे मार्ग की शिक्षा दूँगा और पापी तेरे पास लौट आयेंगे।

3. हे ईश्वर ! मेरे मुक्तिदाता ! मुझे बचा और मैं तेरी भलाई का बखान करूँगा। हे प्रभु ! तू मेरे होंठ खोल दे और मेरा कण्ठ तेरा गुणगान करेगा।

जयघोष : योहन 3:16

अल्लेलूया ! ईश्वर ने संसार को इतना प्यार किया कि उसने उसके लिए अपने एकलौते पुत्र को अर्पित कर दिया, जिससे जो कोई उस में विश्वास करे, वह अनन्त जीवन प्राप्त करे। अल्लेलूया !

सुसमाचार

मारकुस के अनुसार पवित्र सुसमाचार 4:35-40

“आखिर यह कौन है? वायु और समुद्र भी इनकी आज्ञा मानते हैं।”

उसी दिन, संध्या हो जाने पर, येसु ने अपने शिष्यों से कहा, “हम उस पार चलें।” लोगों को विदा करने के बाद शिष्य येसु को उसी नाव पर ले गये, जिस पर वह बैठे हुए थे। दूसरी नावें भी उनके साथ चलीं। उस समय एकाएक झंझावात उठा। लहरें इतने जोर से नाव से टकराने लगीं कि वह पानी से भरी जा रही थी। येसु दुम्बाल में तकिया लगाये सो रहे थे। शिष्यों ने उन्हें जगा कर कहा, “गुरुवर ! हम डूब रहे हैं! क्या आप को इसकी कोई चिंता नहीं?” वह जग गये और उन्होंने वायु को डाँट और समुद्र से कहा, “शांत हो ! थम जा !” वायु मंद हो गयी और पूर्ण शांति छा गयी। उन्होंने अपने शिष्यों से कहा, “तुम लोग इस प्रकार क्यों डर जाते हो? क्या। तुम्हें अब तक विश्वास नहीं है?” उन पर भय छा गया और वे आपस में यह कहने लगे, “आखिर यह कौन है? वायु और समुद्र भी इनकी आज्ञा मानते हैं।”

प्रभु का सुसमाचार।