पवित्र परिवार का पर्व - वर्ष C

पहला पाठ

समूएल का पहला ग्रन्थ 1:20-22,24-28

समूए्ल के जन्म के लिए अन्ना का धन्यवाद।

अन्ना गर्भवती हो गयी। उसने पुत्र प्रसव किया और यह कहकर उसका नाम समूएल रखा, “क्योंकि मैंने उस को प्रभु से माँगा है।” उसका पति एलकाना अपने सारे परिवार के साथ प्रभु को वार्षिक बलि चढ़ाने और अपनी मन्नत पूर्ण करने के लिए फिर गया। इस बार अन्ना साथ नहीं गयी। उसने अपने पति से कहा, “जैसे ही मैं इस बालक का दूध छुड़ाऊँगी, मैं उसे वहाँ ले जाऊँगी, जिससे वह प्रभु के सामने उपस्थित हो और सदा के लिए वहीं रह जाये। जब अन्ना समूएल का दूध छुड़ा चुकी, तो उसने उसे अपने साथ कर लिया। वह तीन बरस का बछड़ा, एक मन आटा और एक मशक अंगूरी ले गयी और समूएल को शिलो में प्रभु के मंदिर के भीतर लायी। उस समय बालक छोटा था। बछडे, की बलि चढ़ाने के बाद, वे बालक को एली के पास ले गये। अन्ना ने कहा, “महोदय ! क्षमा करें। महोदय ! आपकी शपथ, मैं वही स्त्री हूँ जो यही प्रभु से प्रार्थना करती हुई आपके सामने खड़ी थी। मैंने इस बालक के लिए प्रार्थना की और प्रभु ने मेरी प्रार्थना स्वीकार कर ली। इसलिए मैं इसे प्रभु को अर्पित करती हूँ। यह आजीवन प्रभु को अर्पित है।” और उन्होंने वहाँ प्रभु की आराधना की।

प्रभु की वाणी।

भजन : स्तोत्र 83:2-3,5-6,9-10

अनुवाक्य : धन्य हैं वे, जो प्रभु के मन्दिर में निवास करते हैं।

1. विश्वमण्डल के प्रभु ! कितना रमणीय है तेरा मन्दिर ! प्रभु का प्रांगण देखने के लिए मेरी आत्मा तरसती रहती है। मैं उल्लास के साथ तन-मन से जीवन्त ईश्वर का स्तुतिगान करता हूँ।

2. तेरे मन्दिर में रहने वाले धन्य हैं ! वे निरन्तर तेरा स्तुतिगान करते हैं। धन्य हैं वे, जो तुझ से बल पा कर तेरे पर्वत सियोन की तीर्थयात्रा करते हैं !

3. विश्वमण्डल के प्रभु ! मेरी प्रार्थना सुन। याकूब के ईश्वर ! ध्यान देने की कृपा कर। ईश्वर ! हमारे रक्षक ! हमारी सुधि ले, अपने अभिषिक्त पर दयादृष्टि कर।

दूसरा पाठ

सन्त योहन का पहला पत्र 3:1-2,21-24

हम ईश्वर की सन्तान कहलाते हैं और हम वास्तव में वही हैं।

पिता ने हमें कितना प्यार किया है ! हम ईश्वर की सन्तान कहलाते हैं और हम वास्तव में वही हैं। संसार हमें नहीं पहचानता, क्योंकि उसने ईश्वर को नहीं पहचाना हैं। प्यारे भाइयो ! अब हम ईश्वर की सन्तान हैं, किन्तु यह अभी तक प्रकट नहीं हुआ कि हम क्या बनेंगे। हम इतना ही जानते कि जब ईश्वर का पुत्र प्रकट होगा, तो हम उसके सदृश बन जायेंगे; क्योंकि हम उसे वैसा ही देखेंगे जैसा कि वह वास्तव में है। प्यारे भाइयो ! यदि हमारा अन्तःकरण हम पर दोष नहीं लगाता है, तो हम ईश्वर पर पूरा भरोसा रख सकते हैं। हम उस से जो कुछ माँगेंगे, वह हमें वही प्रदान करेगा; क्योंकि हम उसकी आज्ञाओं का पालन करते हैं और वही करते हैं, जो उसे अच्छा लगता है और उसकी आज्ञा यह है कि हम उसके पुत्र ईसा मसीह के नाम में विश्वास करें और एक दूसरे को प्यार करें, जैसा कि मसीह ने हमें आदेश दिया। जो ईश्वर की आज्ञाओं का पालन करता है, वह ईश्वर में निवास करता है और ईश्वर उस में और हम जानते हैं कि वह हम में निवास करता है, क्योंकि उसने हम को अपना आत्मा प्रदान किया है।

प्रभु की वाणी।

सुसमाचार

येसु अपने माता-पिता के अनजान में मंदिर में रह जाते हैं। मरियम और यूसुफ उनके व्यवहार पर अचंभा तो करते हैं किन्तु उनका विशेष बुलावा समझ कर वे ईश्वर की इच्छा का विरोध नहीं करते।

लूकस के अनुसार पवित्र सुसमाचार 2:41-52

येसु मंदिर में, शास्त्रियों के बीच।

येसु के माता-पिता प्रति वर्ष पास्का पर्व के लिए येरुसालेम जाया करते थे। जब बालक बारह बरस का था, तो वे प्रथा के अनुसार पर्व के लिए येरुसालेम गये। पर्व समाप्त हुआ और वे लौटे; परन्तु बालक येसु अपने माता-पिता के अनजान में येरुसालेम में रह गया। वे यह समझ रहे थे कि वह यात्रीदल के साथ है; इसलिए वे एक दिन की यांत्रा पूरी करने के बाद ही उसे अपने कुटुम्बियों और परिचितों के बीच ढूँढ़ने लगे। उन्होंने उसे नहीं पाया और उसे ढूँढ़ते- ढूँढ़ते वे येरसालेम लौटे। तीन दिनों के बाद उन्होंने येसु को मंदिर में शास्त्रियों के बीच बैठते, उनकी बातें सुनते और उन से प्रश्न करते पाया। सभी सुनने वाले उसकी बुद्धि और उसके उत्तरों पर चकित रह जाते थे। उसके माता-पिता उसे देख कर अचम्भे में पड़ गये और उसकी माता ने उस से कहा, “बेटा ! तुमने हमारे साथ ऐसा क्यों किया? देखो तो, तुम्हारे पिता और मैं दुःखी हो कर तुम को दूँढ़ते रहे।” उसने अपने माता-पिता से कहा,’‘मुझे दूँढने की जरूरत कया थी? क्या आप यह नहीं जानते थे कि मैं निश्चय ही अपने पिता के घर में होऊँगा? '' 54 ख़ीस्त-जयन्ती काल परन्तु येसु का यह कथन उनकी सम में नहीं आया। येसु उनके साथ नाजरेत गये और उनके अधीन रहे। उनकी माता ने इन सब बातों को अपने हृदय में संचित रखा। येसु की बुद्धि और शरीर का विकास होता गया। वह ईश्वर तथा मनुष्यों के अनुग्रह में बढ़ते गये।

प्रभु का सुसमचार।