पुरोहित एज्रा सभा में संहिता का ग्रंथ ले आया। सभा में पुरुष, स्त्रियाँ और समझ सकने वाले बालक उपस्थित थे। यह सातवें मास का पहला दिन था। उसने सबेरे से ले कर दोपहर तक जलद्वार के सामने के चौक में, स्त्री-पुरुषों और समझ सकने वाले बालकों को ग्रंथ पढ़ कर सुनाया। सब लोग संहिता का ग्रंथ ध्यान से सुनते रहे। शास्त्री एज़्रा विशेष रूप से तैयार किये हुए लकड़ी के मंच पर खड़ा था। एज्रा लोगों से ऊँची जगह पर था; उसने सबों के देखने में ग्रंथ खोल दिया। जब ग्रंथ खोला गया, तो सारी जनता उठ खड़ी हो गयी। तब एज़्रा ने प्रभु, महान् ईश्वर का स्तुतिगान किया और सब लोगों ने हाथ उठा कर उत्तर दिया, “आमेन, आमेन !” इसके बाद वे झुक गये और मुँह के बल गिर कर उन्होंने प्रभु को दण्डवत् किया। एज्रा ने ईश्वर की संहिता का ग्रंथ पढ़ कर सुनाया, इसका अनुवाद किया और इसका अर्थ समझाया, जिससे लोग पाठ समझ सकें। इसके बाद एज़्रा ने सारी जनता से कहा, “यह दिन तुम्हारे प्रभु-ईश्वर के लिए पवित्र है। उदास हो कर मत रोओ”। क्योंकि सब लोग संहिता का पाठ सुन कर रोते थे। तब उसने कहा, “जा कर रसदार मांस खाओ, मीठी अंगूरी पी लो और जिसके लिए कुछ नहीं बन सका, उसके पास एक हिस्सा भेज दो; क्योंकि यह दिन हमारे प्रभु के लिए पवित्र है। उदास मत हो प्रभु के आनन्द में तुम्हारा बल है”।
प्रभु की वाणी।
अनुवाक्य : है प्रभु ! तेरी शिक्षा आत्मा और जीवन है। (योहन 6, 63)
1. प्रभु का नियम सर्वोत्तम है; वह आत्मा में नवजीवन का संचार करता है। प्रभु की शिक्षा विश्वसनीय है; वह अज्ञानियों को समझदार बना देती है।
2. प्रभु के उपदेश सीधे-सादे हैं; वे हदय को आनन्दित कर देते हैं। प्रभु की आज्ञाएँ स्पष्ट हैं; वे आँखों को ज्योति प्रदान करती हैं।
3. प्रभु की वाणी परिशुद्ध है; वह अनन्त काल तक बनी रहती है। प्रभु के निर्णय सच्चे हैं; वे सब के सब न्यायसंगत हैं।
4. हे प्रभु ! तू मेरा सहारा और मुक्तिदाता है। मेरे मुख से जो शब्द निकलते हैं और मेरे मन में जो विचार उठते हैं, ये सब के सब तुझे अच्छे लगें।
मनुष्य का शरीर एक है, यद्यपि उसके बहुत-से अंग हैं; और सभी अंग, अनेक होते हुए भी, एक ही शरीर बन जाते हैं। मसीह के विषय में भी यही बात है। हम यहूदी हों अथवा युनानी, दास हों अथवा स्वतन्त्र, हम सब के सब एक ही आत्मा का बपतिस्मा ग्रहण कर एक ही शरीर बन गये हैं। हम सबों को एक ही आत्मा का पान कराया गया है। शरीर में भी तो एक नहीं, बल्कि बहत-से अंग हैं।
[ यदि पैर कहे, “मैं हाथ नहीं हूँ, इसलिए शरीर का नहीं हूँ", तो क्या वह इस कारण शरीर का अंग नहीं? यदि कान कहे, 'मैं आँख नहीं हूँ, इसलिए शरीर का नहीं हूँ”, यदि सारा शरीर आँख ही होता, तो वह कैसे सुन सकता? यदि सारा शरीर कान ही होता, तो वह कैसे सूँघ सकता? वास्तव में ईश्वर ने अपने इच्छानुसार शरीर में हर एक अंग को अपनी-अपनी जगह रख दिया है। यदि सब के सब एक ही अंग होते, तो शरीर कहाँ होता? अब तो बहुत-से अंग होने पर भी एक ही शरीर होता है। आँख हाथ से नहीं कह सकती, “मुझे तुम्हारी जरूरत नहीं', और सिर पैरों से नहीं कह सकता, “मुझे तुम्हारी जरूरत नहीं” , उलटे, शरीर के जो अंग सब से दुर्बल सममे जाते हैं, वे अधिक आवश्यक हैं। शरीर के जिन अंगों को हम कम आदरणीय समझते हैं, उनका अधिक आदर करते हैं और अपने अशोभनीय अंगों की लज्जा का अधिक ध्यान रखते हैं। हमारे शोभनीय अंगों को इसकी जरूरत नहीं होती। ईश्वर ने इस प्रकार शरीर का संगठन किया है कि जो अंग कम आदरणीय हैं, उनका अधिक आदर किया जाये। कहीं ऐसा न हो कि शरीर में फूट उत्पन्न हो जाये, बल्कि उसके सभी अंग एक दूसरे का ध्यान रखें। यदि एक अंग को पीड़ा होती है, तो उसके साथ सभी अंगों को पीड़ा होती है और यदि एक अंग का सम्मान किया जाता है, तो साथ-साथ सभी अंग आनन्द मनाते हैं। ]
इसी तरह आप सब मिल कर मसीह का शरीर हैं। और आप में से प्रत्येक उसका एक अंग हे।
[ईश्वर ने कलीसिया में भिन्न-भिन्न लोगों को नियुक्त किया है - प्रथम प्रेरित, दूसरे भविष्यवक्ता, तीसरे शिक्षक, तब चमत्कार दिखाने वाले। इसके बाद स्वस्थ करने वाले, सहायक, प्रशासक, अनेक भाषाएँ बोलने वाले। क्या सब प्रेरित हैं? सब भविष्यवक्ता हैं? सब शिक्षक हैं? सब चमत्कार दिखाने वाले हैं? सब स्वस्थ करने वाले हैं? सब भाषाएँ बोलने वाले हैं? सब व्याख्या करने वाले हैं? ]
प्रभु की वाणी।
अल्लेलूया, अल्लेलूया ! प्रभु ने मुझे दरिद्रों को सुसमाचार सुनाने और बंदियों को मुक्ति का संदेश देने भेजा है। अल्लेलूया !
जो प्रारम्भ से प्रत्यक्षदर्शी और सुसमाचार के सेवक थे, उन से हमें जो परम्परा मिली है, उसके आधार पर बहुतों ने हमारे बीच बीती घटनाओं का वर्णन करने का प्रयास किया है। मैंने भी प्रारम्भ से सब बातों का सावधानी से अनुसंधान किया है; इसलिए श्रीमान् थेओफिलस, मुझे आपके लिए उनका क्रमबद्ध विवरण लिखना उचित जांन पड़ा, जिससे आप यह जान लें कि जो शिक्षा आप को मिली है, वह सत्य है। आत्मा के सामर्थ्य से सम्पन्न हो कर येसु गलीलिया लौटे और उनकी ख्याति सारे प्रदेश में फैल गयी। वह उनके सभागृहों में शिक्षा दिया करते थे और सब उनकी प्रशंसा करते थे। येसु नाजरेत आये, जहाँ उसका पालन-पोषण हुआ था। विश्राम के दिन वह अपनी आदत के अनुसार सभागृह गये। वह पढ़ने के लिए खड़े हो गये और उन्हें नबी इसायस की पुस्तक दी गयी। पुस्तक खोल कर येसु ने वह स्थान निकाला, जहाँ लिखा है; प्रभु का आत्मा मुझ पर छाया रहता है, क्योंकि उसने मेरा अभिषेक किया है। उसने मुझे भेजा है जिससे मैं दरिद्रों को सुसमाचार सुनाऊँ, बंदियों को मुक्ति का और अंधों को दृष्टिदान का संदेश दूँ, दलितों को स्वतंत्रता प्रदान करूँ और प्रभु के अनुग्रह का वर्ष घोषित करूँ। येसु ने पुस्तक बंद कर दी और उसे सेवक को दे कर वह बैठ गये। सभागृह के सब लोगों की आँखें उन पर लगी हुई थीं। तब वह उन से कहने लगे, “धर्मग्रंथ का यह कथन आज तुम लोगों के सामने पूरा हो गया है”।
प्रभु का सुसमाचार।