चालीसे का पहला इतवार - चक्र A

पहला पाठ

मनुष्य का शरीर इस धरती की मिट्टी का बना है किन्तु उस शरीर में जो आत्मा है, वह ईश्वर की ओर से है। इस तरह मनुष्य पृथ्वी का भी है, और स्वर्ग का भी। प्रारंभ से ही मनुष्य ने ईश्वर के विरुद्ध विद्रोह किया और इस कारण से मनुष्य को बहुत दुःख-तकलीफ उठानी पड़ी।

उत्पत्ति-ग्रंथ 2:7-9; 3:1-7

“प्रथम मनुष्यों की सृष्टि और उनका पाप।”

प्रभु ने धरती की मिट्टी से मनुष्य को गढ़ा और उसके नथनों में प्राणवायु फूँक दी। इस प्रकार मनुष्य एक सजीव सत्त्व बन गया। इंसके बाद ईश्वर नें पूर्व की ओर, अदन में एक वाटिका लंगायी और उस में अपने द्वारा गढ़े इस मनुष्य को रखा। प्रभु-ईश्वर ने धरती से सब प्रकार के वृक्ष उगाये, जो देखने में सुन्दर थे और जिनके फल स्वादिष्ट थे। वाटिका के बीचोबीच जीवन-वृक्ष था और भले-बुरे के ज्ञान का वृक्ष भी। ईश्वर ने जिन जंगली जीव-जन्तुओं को बनाया था, उन में से साँप सब से धूर्त था। उसने स्त्री से कहा, “क्या ईश्वर ने सचमुच तुम को मना किया कि वाटिका के किसी वृक्ष का फल मत खाना?” स्त्री ने साँप को उत्तर दिया, “हम वाटिका के वृक्षों के फल खा सकते हैं। परन्तु वाटिका के बीचोबीच वाले वृक्ष के फलों के विषय में ईश्वर ने यह कहा - तुम उन्हें नहीं खाना। उनका स्पर्श तक नहीं करना, नहीं तो, मर जाओगे”। साँप ने स्त्री से कहा, “नहीं ! तुम नहीं मरोगे ! ईश्वर जानता है कि यदि तुम उस वृक्ष का फल खाओगे, तो तुम्हारी आँखें खुल जायेंगी। तुम्हें भले-बुरे का ज्ञान हो जायेगा और इस प्रकार तुम ईश्वर के सदृश बन जाओगे”। अब स्त्री को लगा कि उस वृक्ष का फल स्वादिष्ट है, वह देखने में सुन्दर है और जब उसके द्वारा ज्ञान प्राप्त होता है, तो वह कितना लुभावना है ! इसलिए उसने फल तोड़ कर खाया। उसने पास खड़े हुए अपने पति को भी उस में से दिया और उसने भी खा लिया। तब दोनों की आँखें खुल गयीं और उन्हें पता चला कि वे नंगे हैं। इसलिए उन्होंने अंजीर के पत्ते जोड़-जोड़ कर अपने लिए लैँगोट बना लिये।

प्रभु की वाणी।

भजन : स्तोत्र 50:3-6,12-14,17

अनुवाक्य : हे प्रभु ! हम पर दया कर, क्योंकि हमने पाप किया है।

1. हे ईश्वर ! तू दयालु है, मुझ पर दया कर। तू दयासागर है, मेरा अपराध क्षमा कर। मेरी दुष्टता पूर्ण रूप से धो डाल, मुझ पापी को शुद्ध कर।

2. मैं अपना अपराध स्वीकार करता हूँ, मेरा पाप निरन्तर मेरे सामने है। मैंने तेरे विरुद्ध पाप किया है, जो काम तेरी दृष्टि में बुरा है, वही मैंने किया है।

3. हे ईश्वर ! मेरा हृदय फिर शुद्ध कर और मेरा मन सुदृढ़ बना। अपने सान्निध्य से मुझे दूर न कर और अपने पवित्र आत्मा को मुझ से न हटा।

4. मुक्ति का आनन्द मुझे फिर प्रदान कर और उदारता में मेरा मन सुदृढ़ बना। हे प्रभु ! तू मेरे होंठ खोल दे और मेरा कंठ तेरा गुणगान करेगा।

दूसरा पाठ

प्रथम मनुष्य आदम के कारण सब मनुष्यों की दुर्गति हो गयी थी। नये आदम मसीह के द्वारा मनुष्यों का उद्धार हुआ। आदम अपने पाप के द्वारा हमारी मृत्यु का कारण बना। मसीह ने अपने प्रायश्चित्त के द्वारा हमें नवजीवन प्रदान किया हैं।

रोमियों के नाम सन्त पौलुस का पत्र 5:12-19

[कोष्ठक में रखा अंश छोड़ दिया जा सकता है]
“पापों की संख्या कितनी ही बड़ी क्यों न हो, प्रभु की कृपा इस से कहीं अधिक बड़ी है।”

एक ही मनुष्य द्वारा संसार में पाप का प्रवेश हुआ और पाप द्वारा मृत्यु का। इस प्रकार मृत्यु सब मनुष्यों में फैल गयी, क्योंकि सब पापी हैं।

[मूसा की संहिता से पहले, संसार में पाप था; किन्तु संहिता के अभाव में पाप का लेखा नहीं रखा जाता है। फिर भी आदम से ले कर मूसा तक मृत्यु उन लोगों पर भी राज्य करती रही, जिन्होंने आदम की तरह किसी आज्ञा के उल्लंघन द्वारा पाप नहीं किया था। आदम आने वाले मुक्तिदाता का प्रतीक था। फिर भी आदम के अपराध तथा ईश्वर के वरदान में कोई तुलना नहीं है। यह सच है कि एक ही मनुष्य के अपराध के कारण बहुत से लोग मर गये, किन्तु इस परिणाम से कहीं अधिक महान्‌ है ईश्वर का अनुग्रह और वह वरदान, जो एक ही मनुष्य येसु मसीह द्वारा सबों को मिला है। एक मनुष्य के अपराध तथा ईश्वर के वरदान में कोई तुलना नहीं है। एक के अपराध के फलस्वरूप दण्डाज्ञा तो दी गयी, किन्तु जो वरदान बहुत-से अपराधों के बाद दिया गया, उसके द्वारा पाप से मुक्ति मिल गयी है। ]

यह सच है कि मृत्यु का राज्य एक मनुष्य के अपराध के फलस्वरूप - एक ही के द्वारा - प्रारंभ हुआ, किन्तु जिन्हें ईश्वर की कृपा तथा पापमुक्ति का वरदान प्रचुर मात्रा में मिलेगा, वे एक ही मनुष्य येसु मसीह के द्वारा जीवन का राज्य प्राप्त करेंगे। इस प्रकार हम देखते हैं कि जिस तरह एक ही मनुष्य के अपराध के फलस्वरूप सबों को दण्डाज्ञा मिली, उसी तरह एक ही मनुष्य के प्रायश्चित के फलस्वरूप सबों को पापमुक्ति और जीवन मिला। जिस तरह एक ही मनुष्य के आज्ञा-भंग के कारण सब पापी ठहराये गये, उसी तरह एक ही मनुष्य के आज्ञापालन के कारण सब पापमुक्त ठहराये जायेंगे।

प्रभु की वाणी।

जयघोष : मत्ती 4:4

मनुष्य रोटी से ही नहीं जीता हैं। वह ईश्वर के मुख से निकलने वाले हर एक शब्द से जीता है। मसीह की परीक्षा का विवरण यह स्पष्ट कर देता है कि उनका कार्य पूर्ण रूप से आध्यात्मिक है। मसीह इस संसार का वैभव ठुकरा देते हैं और इस पर बल देते हैं कि ईश्वर को छोड़ किसी दूसरे की आराधना नहीं करनी चाहिए।

सुसमाचार

मत्ती के अनुसार पवित्र सुसमाचार 4:1-11

“चालीस दिन के उपवास के बाद येसु की परीक्षा।”

आत्मा येसु को निर्जन प्रदेश ले चला, जिससे शैतान उनकी परीक्षा ले ले। येसु चालीस दिन और चालीस रात उपवास करते रहे। इसके बाद उन्हें भूख लगी और परीक्षक ने पास आ कर उन से कहा, “यदि आप ईश्वर के पुत्र हों, तो कह दीजिए कि ये पत्थर रोटियाँ बन जायें”। येसु ने उत्तर दिया “लिखा है - मनुष्य रोटी से ही नहीं जीता है। वह ईश्वर के मुख से निकलने वाले हर एक शब्द से जीता है''। तब शैतान उन्हें पवित्र नगर ले जा कर मंदिर के शिखर पर खड़ा कर दिया और कहा, “यदि आप ईश्वर के पुत्र हों, तो नीचे कूद जाइए, क्योंकि लिखा है - तुम्हारे विषय में वह अपने दूतों को आदेश देगा। वे तुम्हें अपने हाथों पर सँभाल लेंगे कि कहीं तुम्हारे पैरों को पत्थर से चोट न लगे''। येसु ने उस से कहा, “यह भी लिखा है - अपने प्रभु-ईश्वर की परीक्षा मत करो''। फिर शैतान उन्हें एक अत्यन्त ऊँचे पहाड़ पर ले गया और संसार के सभी राज्य और उनका वैभव दिखला कर बोला, “यदि आप दण्डवत्‌ करके मेरी आराधना करें, तो मैं आप को यह सब दे दूँगा"। येसु ने उत्तर दिया, “हट जा, शैतान ! लिखा है - अपने प्रभु-ईश्वर की आराधना करो और केवल उसी की सेवा करो"। इस पर शैतान उन्हें छोड़ कर चला गया, और स्वर्गदूत आ कर उनकी सेवा करने लगे।

प्रभु का सुसमाचार।