आज के सुसमाचार में प्रभु कहते हैं, “जो अपने पिता या अपनी माता को मुझ से अधिक प्यार करता है, वह मेरे योग्य नहीं है। जो अपने पुत्र या अपनी पुत्री को मुझ से अधिक प्यार करता है, वह मेरे योग्य नहीं।” (मत्ती 10:37) दरअसल यह कथन ईश्वर की पहली आज्ञा का ही स्पष्टीकरण है। इसका सन्देश यह है कि हमें ईश्वर को ही पहला स्थान देना चाहिए। हमें ईश्वर को अपने बच्चों, माता-पिता, भाइ-बहनों, मित्रों से ज़्यादा प्यार करना चाहिए, आदर करना चाहिए।
ईश्वर इब्राहीम से उनके एकमात्र पुत्र की होम-बलि माँग कर (देखिए उत्पत्ति 22:1-14) इब्राहीम के वंशजों को यह सिखाना चाहते हैं कि सभी मानवीय पिताओं को अपने बच्चों से ज़्यादा ईश्वर को प्यार करना चाहिए। माता-पिता का आदर करने की आज्ञा देने वाले ईश्वर हमसे यह अपेक्षा रखते हैं कि हम माता-पिता से ज़्यादा ईश्वर को प्यार करें।
उत्पत्ति 3:17 में आदम को दण्ड देते हुए प्रभु ईश्वर ने कहा, “चूँकि तुमने अपनी पत्नी की बात मानी और उस वृक्ष का फल खाया है, जिस को खाने से मैंने तुम को मना किया था, भूमि तुम्हारे कारण शापित होगी।” यह तो स्पष्ट है कि ईश्वर चाहते हैं कि पति अपनी पत्नि की इच्छा से ज़्यादा ईश्वर की इच्छा को ध्यान में रख कर कार्य करें।
1 राजाओं 11:1-8 में सुलेमान का यह पाप हमारे सामने आता है कि उन्होंने ईश्वर से ज़्यादा अपनी पत्नियों को खुश करने की कोशिश की। 1 राजाओं 21:25 में हमें यह दिखायी देता है कि राजा आहब ने किस प्रकार ईश्वर से ज़्यादा अपनी पत्नि की इच्छा पर ध्यान देता था।
पेत्रुस और साथियों ने यहूदी महासभा के सामने यह कह कर कि “मनुष्यों की अपेक्षा ईश्वर की आज्ञा का पालन करना कहीं अधिक उचित है” (प्रेरित-चरित 5:29) ईश्वर की आज्ञा की प्राथमिकता की शिक्षा देते हैं।
कई बार हम दूसरे व्यक्तियों या वस्तुओं को प्रथम स्थान देकर ईश्वर के विरुध्द पाप करते हैं। कलीसिया हमें ईशवचन के माध्यम से याद दिलाती है कि हम ईश्वर को ही प्रथम स्थान दें।