मलआकी 3:19-20अ; 2 थेसलनीकियों 3:7-12; लूकस 21:5-19
प्राकृतिक घटनाएँ, आपदाएँ हमारे मन और हृदय को झकझोर कर रख देती है। भूकंप, बाढ़, अकाल, युद्ध इन सबके बारे में हम सुनते व देखते आ रहे हैं। इन सभी डरावनी घटनाओं में एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठता है, वह है ‘दुनिया के अन्त का’। लेकिन ये सब मनुष्य सदियों से देखते आ रहे हैं। पर शायद अन्त अभी भी बहुत दूर है।
आज के तीनों पाठ एक चेतावनी की ओर इंगित करते हैं, चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयारी एवं तत्परता।
पहला पाठ मलआकी के ग्रंथ से लिया है जो लगभग 450 ईसा पूर्व लिखा गया था। मलआकी नाम का अर्थ है ”मेरा संदेश“। यह ईश्वर के दिन के बारे में बतलाता है, वह दिन जब सभी बुराईयाँ पृथ्वी की सतह से मिटा दी जायेंगी।
आज के सुसमाचार में येसु येरूसालेम के विनाश की भविष्यवाणी करते हैं। ”वे दिन आ रहे हैं, जब जो कुछ तुम देख रहे हो, उसका एक पत्थर भी दूसरे पत्थर पर नहीं रहेगा, सब ढहा दिया जायेगा“ (लूकस 21:6)।
इस घोषणा का उद्देश्य हताश करने के लिए नहीं बल्कि साहस एवं धैर्य रखने के लिए है। बाद में जब वास्तविक रूप से ये सब घटनाएं घटेंगी तो हमें तन के खडे़ रहना है क्योंकि यह हमारी मुक्ति का पूर्वाभास है।
लेकिन सवाल उत्पन्न होता है कि हमने अपने आप को किस हद तक तैयार किया है? दुःख-दर्द, समस्या हर एक जन के हर एक दिन के जीवन का भाग है। लेकिन जो ईश्वर के प्रति विश्वास रखते हैं उन्हें डरना नहीं चाहिए। क्योंकि उनकी सुनना, उनका उनुसरण करना हमारे ईश्वर के साथ रिष्ते को और अधिक घनिष्ट बनाता है, हमें शारीरिक, मानसिक तथा आध्यात्मिक रूप से बढ़ने और विकसित होने में मदद करता है। इसलिए हमें बेचैन होने की ज़रुरत नहीं बल्कि घीरज और प्रेम से प्रभु के आगमन की प्रतीक्षा करना चाहिए।
मोसो बाँस के बारे में एक कहानी बताई जाती है। मोसो बाँस एक पौधा है जो चीन में और दूरवर्ती पूर्वी भागों में उगता है। जब मोसो बाँस को जमीन में रोप दिया जाता है तब रोपने के पश्चात्् अनुकूल दशा होने पर भी पाँच साल तक प्रत्यक्ष रुप से कोई वृद्धि नजर नहीं आती है। लेकिन इसके बाद यह पौधा जादू की भाँति अचानक ढाई फीट की दर से प्रतिदिन बढ़ने लगता है और वह बढ़ते-बढ़ते 6 सप्ताह में करीब 90 फीट बढ़कर अपनी पूरी ऊँचाई तक पहुँच जाता है।
पर ये कोई जादू नहीं है। मोसो बाँस के शीघ्रता से उगने का कारण उन पाँच साल की अवधि में अपनी जड़ों को जमीन के अन्दर मीलों दूर तक गहराना है। अतः वह पाँच सालों तक अन्दर ही अन्दर जमीन से ऊपर आने की तैयारी करता है।
इसी प्रकार हमें यह देखने को मिलता है कि किसी भी कार्य को ठीक ढ़ंग से करने के लिए बड़ी और लम्बी तैयारी की ज़रूरत होती है। परीक्षा, इन्टरव्यू आदि के लिए हम कितनी तैयारियाँ करते हैं। कितना अधिक हमें अन्तिम-निर्णय के लिए अपने आप को तैयार करना पडेगा! हमें यह देखना है कि किस प्रकार की तैयारी करनी चाहिए। संत पौलुस आज के दूसरे पाठ में हमें इस सवाल का जवाब देते हुए कहते हैं कि हमें कठिन परिश्रम करना चाहिए। थेसलनीकिया के समुदाय में कुछ लोग आलस्य का जीवन बिता रहे थे। वे स्वयं काम नही करते थे और दूसरों के काम में बाधा ड़ालते थे। उनको संत पौलुस यह सलाह देते हैं कि वे कठिन परिश्रम करें और अपनी कमाई की रोटी खायें। इन सब बातों में हमें यह निष्चित ही याद रखना चाहिए कि संत पौलुस न केवल दूसरों को सलाह देते हैं बल्कि अपने जीवन में करके भी दिखाते हैं यहाँ तक कि वे हिम्मत के साथ कहते हैं, ’’आप लोगों को मेरा अनुकरण करना चाहिए- आप यह स्वयं जानते हैं। आपके बीच रहते समय हमने किसी के यहाँ मुफ़्त में रोटी नही खायी, बल्कि हम बड़े परिश्रम से दिन-रात काम करते रहे, जिससे आप लोगों में किसी के लिए भी भार न बनें।’’
संत पौलुस का यह तात्पर्य है कि हमें अंतिम-निर्णय की तैयारी में इतना ही करना चाहिए कि अपने कर्त्तव्यों को निष्ठा तथा लगन से निभायें। प्रभु येसु हमें सतर्क करते हैं कि इस दुनिया में हमें सावधान रहना चाहिए क्यांेकि हमें बहकाने वाले तो बहुत मिलेंगे, प्राकृतिक आपदाएं हमारे विश्वास को हिलाने की कोशिश करेंगी। परन्तु हमें घबराने की कोई ज़रूरत नहीं क्योंकि इन कठिन परिस्थितियों में प्रभु खुद हमारे साथ रहेंगे। ’’मैं तुम्हें ऐसी वाणी और बुद्धि प्रदान करूँगा, जिसका सामना अथवा खण्डन तुम्हारा कोई विरोधी नहीं कर सकेगा’’ (लूकस 21:15)। हमें अत्याचार व तिरस्कार का भी सामना करना पडे़गा, परन्तु प्रभु हमें आशा दिलाते हैं, ’’फिर भी तुम्हारे सिर का एक बाल भी बाँका नही होगा। अपने धैर्य से तुम अपनी आत्माओं को बचा लोगे’’ (लूकस 21:19)। आइए हम प्रभु पर भरोसा रखते हुए कर्त्तव्य-निष्ठा से आगे बढ़ने की कृपा माँगे।