प्रवक्ता ग्रंथ 35:12-14, 16-18; 2 तिमथी 4:6-8, 16-18; लूकस 18:9-14
प्रार्थना मनुष्य को ईश्वर से जोडती है। प्रार्थना के माध्यम से हम ईश्वर से वह सबकुछ प्राप्त कर सकते हैं जो हम ईश्वर से प्रार्थना में मांगते हैं। प्रार्थना को अत्यंत शुद्ध तथा स्वच्छ मन से करना चाहिये। दिखावटीपन, आडंबर, अहं, डींग आदि बातें प्रार्थना के लिये दीमक की तरह होती है। यह हमारी प्रार्थनाओं को सार्वजनिक प्रदर्शन में बदल देता है। इस प्रकार से की गयी प्रार्थनाओं से कोई लाभ नहीं होता है। ऐसी गलत प्रवृत्तियों के प्रति आगाह करते हुये येसु कहते हैं, ’’ढोंगियों की तरह प्रार्थना नहीं करो। वे सभागृहों में और चौकों पर खड़ा होकर प्रार्थना करना पसंद करते हैं, जिससे लोग उन्हें देखें।’’ (मत्ती 6:5) सुसमाचार में प्रभु दो व्यक्तियों को प्रार्थना करते प्रस्तुत करते हैं। दोनों की प्रार्थना में जमीन-आसमान का फर्क है। एक अपनी स्वघोषित धार्मिकता के दंभ में चूर है। उसे ईश्वर की क्षमा या कृपा की आवश्यकता नहीं। वह यह भी मानता है कि वह दूसरों के समान पापी नहीं हैं।
दूसरी ओर नाकेदार अपने पाप और पश्चाताप के बोध के कारण ईश्वर की ओर ऑखें भी नहीं उठा पा रहा था। ईश्वर उसके पश्चातापी एवं विनम्रता के भाव को स्वीकार करते हैं। धर्मग्रंथ हमें सिखाता तथा आशवासन देता है कि जब भी हम विनम्रता एवं पश्चाताप के सच्चे भाव के साथ प्रार्थना करते हैं तो ईश्वर हमारी सुनता है। ’’यदि मेरी अपनी प्रजा विनयपूर्वक प्रार्थना करेगी, मेरे दर्शन चाहेगी और अपना कुमार्ग छोड़ देगी, तो मैं स्वर्ग से उसकी सुनूँगा, उसके पाप क्षमा करूँगा और उसके देश का कल्याण करूँगा। इस स्थान पर जो प्रार्थना की जाये, उसे मेरी आँखें, देखती रहेंगी और मेरे कान सुनते रहेंगे।’’ (2 इतिहास 7:14-15)
जब राजा दाऊद ने व्यभिचार और हत्या जैसा अपराधों को स्वीकारा, ’’मैंने प्रभु के विरूद्ध पाप किया है’’ तो प्रभु ने उनकी प्रार्थनाओं पर ध्यान दिया तथा उसका पश्चाताप स्वीकारा, ’’प्रभु ने आपका यह पाप क्षमा कर दिया है। आप नहीं मरेंगे। (2समूएल 12:13) जब अहाब ने अपनी पत्नी के साथ मिलकर नाबोत को मरवा कर उसकी दाखबारी हथिया ली तो ईश्वर ने उनके लिये घोर सजा निर्धारित की। ’’अहाब ने ये शब्द सुन कर अपने वस्त्र फाड़ डाले और अपने शरीर पर टाट ओढ़ कर उपवास किया। वह टाट के कपड़े में सोता था और उदास हो कर इधर-उधर टहलता था।’’ जब अहाब ने प्रभु का भय खाकर, विनम्र तथा पश्चातापी हृदय से ईश्वर से इस प्रकार प्रार्थना की तो ईश्वर ने उनके घोर अपराधों को भी क्षमा करते हुये कहा, ’’क्या तुमने देखा है कि अहाब ने किस तरह अपने को मेरे सामने दीन बना लिया है? चूँकि उसने अपने को मेरे सामने दीन बना लिया, इसलिए मैं उसके जीवनकाल में उसके घराने पर विपत्ति नहीं ढाऊँगा।’’ (1 राजाओं 21:27,29) इसी प्रकार प्रभु के क्रूस-मरण के दौरान जब उनकी बगल में लटका डाकू उनसे कहता है, ’’ईसा, जब आप अपने राज्य में आयेंगे, तो मुझे याद कीजिएगा’’ तो ईसा उसे तुरंत पुरस्कृत करते हुये कहते हैं, ’’मैं तुम से यह कहता हूँ, तुम आज ही परलोक में मेरे साथ होगे।’’ (लूकस 23:42-43)
खोये हुये लडके के दृष्टांत के माध्यम से प्रभु इसी बात को रेखांकित करते है कि यदि पापी अपना भटका मार्ग छोड पश्चातापी हृदय से ईश्वर के पास लौटेगा तो ईश्वर उसे बेझिझक अपना लेंगे। (देखिये लूकस 15:11-32) जब जकेयुस प्रभु से कहता है, ’’प्रभु! देखिए, मैं अपनी आधी सम्पत्ति गरीबों को दूँगा और मैंने जिन लोगों के साथ किसी बात में बेईमानी की है, उन्हें उसका चौगुना लौटा दूँगा’ तब ईसा उसे तथा उसके परिवार को मुक्ति प्रदान करते हुये कहते हैं, ’’आज इस घर में मुक्ति का आगमन हुआ है, क्योंकि यह भी इब्राहीम का बेटा है। जो खो गया था, मानव पुत्र उसी को खोजने और बचाने आया है।’’ (लूकस 19:8-10)
इस प्रकार की विनम्रता एवं पश्चाताप के साथ की गयी प्रार्थनायें ईश्वर कभी नहीं ठुकराते हैं। हमें ईश्वर के सामने अपनी अयोग्यता को कभी नहीं भूलना चाहिये। हम अपनी योग्यता के बल पर नहीं बल्कि ईश्वर की दया से मुक्ति पाते हैं। येसु स्वयं ऐसे लोगों को बुलाने एवं बचाने आये थे जो स्वयं के पापों को जानते, स्वयं को अयोग्य समझते तथा पापमय जीवन से छुटकारा पाना चाहते थे। ’’निरोगियों को नहीं, रोगियों को वैद्य की जरूरत होती है। मैं धर्मियों को नहीं, पापियों को पश्चाताप के लिए बुलाने आया हूँ।’’ (लूकस 5:31-32) हमें भी इन्हीं मनोभावों को अपना कर ईश्वर से पूरे विश्वास के साथ प्रार्थना करना चाहिये।