उपदेशक 1:2, 2:21-23; कलोसियों 3:1-5, 9-11; लूकस 12:13-21
आज के पाठों पर अगर हम गहराई से मनन-चिंतन करें तो ये बहुतों के ह्रदय में खटकने वाले पाठ हैं। विशेष रूप। से आज के पहले पाठ और सुसमाचार का सन्देश हमें हिलाकर रख देता है। मनुष्य अपने आप को पूर्ण बनाने के लिये शुरू से ही बहुत मेहनत करता है। जब बच्चे का जन्म होता है तो उसके माता-पिता चाहते हैं कि उसकी परवरिश सर्वश्रेष्ठ तरीके से हो। अच्छे से अच्छे और महँगे से महँगे स्कूल में उसका दाखिला करायेंगे। उसके लिए बचपन में ही यह फ़ैसला हो जाता है कि बड़ा होकर उनका बेटा या उनकी बेटी क्या बनेगी। स्कूल के कार्य-कलाप के अलावा और भी तरह-तरह के क्लासें जैसे डांस, कराटे, संगीत, कला इत्यादि का भी कोर्स करवाते हैं। इतना ही नहीं रेगुलर कोचिंग भी भेजते हैं। और आजकल कोचिंग वाले इतवार के दिन भी क्लास लगाते हैं, और उतना ही नहीं इतवार के दिन ही विशेष टेस्ट होता है। माता-पिता भी चाहते हैं कि उनका बच्चा जितना हो सके आगे बढ़े, जितना हो सके उतना ज्ञान ग्रहण करे, इसके चाहे उन्हें कितना भी कष्ट उठाना पड़े और कितने भी त्याग करने पड़ें। आखिर ज़माना ही कम्पटीशन का है। और इसलिए वे अक्सर भूल जाते हैं कि इतवार का दिन प्रभु का दिन है, प्रभु के लिए है।
आगे चलकर वही बच्चा अपने माता-पिता को हर चीज में पीछे छोड़ देता है, ज्ञान में, आत्मविश्वास में, सम्मान में, आर्थिक दशा में। और माता-पिता को अपने बच्चों से ‘पिछड़ने’ पर गर्व होता है। उनको लगता है कि अगर उनके बच्चे ने कुछ हासिल कर लिया तो उनकी साधना सफल हुई। लेकिन ऐसे में कोई “उपेदशक ग्रन्थ” के शब्दों में उनसे कहे ““व्यर्थ ही व्यर्थ; व्यर्थ ही व्यर्थ; सब कुछ व्यर्थ है”।” (उपदेशक 1:2) या फिर सुसमाचार के शब्दों में उनसे कहे “”मूर्ख! इसी रात तेरे प्राण तुझसे ले लिये जायेंगे, और तूने जो इकठ्ठा किया है, वह अब किसका होगा?”” (लूकस 12:20)। उन जैसे माता-पिता के लिए प्रभु के ये वचन ज़रूर खटकेंगे, ह्रदय में ज़रूर चुभेंगे। आखिर कौन अपने जीवनभर की तपस्या और त्याग को व्यर्थ जाने देगा?
मनुष्य का स्वभाव यही है कि वह इस जीवन को जितना हो सके महान बनाना चाहता है। अधिक से अधिक सुविधाएँ जुटाना चाहता है, और मनुष्य के इस स्वभाव को समझने के लिए बहुत से विचारकों ने अपने विचार रखे और अध्ययन किया है और इसे समझाने की कोशिश की है, लेकिन कोई भी, मनुष्य के इस स्वभाव को यथोचित रूप से नहीं समझा पाया है। पवित्र बाइबिल हमें समझाती है कि ईश्वर ने हमें अपने प्रतिरूप में बनाया है, (उत्पत्ति 1:27), और पाप के कारण हमने ईश्वर की उस छवि को धूमिल कर लिया है। तो हमारे जीवन का जो मुख्य उद्देश्य होना चाहिए वो यह कि हम उन्हें ईश्वर के प्रतिरूप में बनायें। वास्तव में हमारे हर प्रयास, हर साधना, हर तपस्या का उद्देश्य यही होना चाहिए। लेकिन जब हमारा उद्देश्य इसे छोड़कर संसारिकता में आगे बढ़ना हो जाता है, तो हम भटक जाते हैं, और ऐसी स्तिथि में अगर यह कहा जाये कि हम जो भी कर रहे हैं, वह व्यर्थ है, तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। क्योंकि हमारा वास्तविक जीवन सांसारिक जीवन नहीं बल्कि स्वर्गीय जीवन है। सांसारिक जीवन अस्थाई है। (देखें मत्ती 6:19)।
बप्तिस्मा के द्वारा हमारा नया जन्म हुआ है और इसलिए हम संसार से अलग हैं (देखें योहन 15:19)। प्रभु येसु ने हमें संसार में से चुन लिया है। और अगर हमें अपने जीवन को सार्थक बनाना है तो स्वर्गीय चीजों की खोज में लगे रहना है, पृथ्वी पर की नहीं। (कलोसियों 3:2)। कोई भी व्यक्ति अगर अपना जीवन ईश्वर के लिए, दूसरों की सेवा के लिए जीता है उसका जीवन कभी व्यर्थ नहीं जाता, अनेकों संतों का जीवन इस बात का जीता-जागता उदाहरण है। हम ईश्वर से प्रार्थना करें कि ईश्वर हमें सार्थक जीवन जीने में मदद करे और आशीष प्रदान करे। आमेन.