उत्पत्ति 11:1-9 या निर्गमन 19:3-8अ, 16-20ब या ऐजेक़िएल 37:1-14 या योएल 3:1-5; रोमियों 8:22-27; योहन 7:37-39
पिता परमेश्वर हम मानवों को आशीर्वाद देते रहते हैं। अपनी आशिष बरसाने के लिये ईश्वर मानवों को चुनते हैं। कई बार हम ईश्वर की आशिष दूसरों के द्वारा प्राप्त करते हैं। इस्राएलियों ने नेताओं, राजाओं, नबियों तथा पुरोहितों के द्वारा ईश्वर के कई वरदान प्राप्त किये। हम अपने जीवन में भी यही देखते हैं कि हम माता कलीसिया माता-पिताओं, भाई-बहनों, गुरुजनों, पड़ोसियों तथा दुश्मनों के द्वारा कई आशिष प्राप्त करते हैं। आज कलीसिया पेन्तेकोस्त का त्योहार मनाती है। ईश्वर प्रेरितों पर पवित्र आत्मा भेजकर उनके द्वारा एक नयी सृष्टि की स्थापना करना चाहते हैं, एक नयी प्रजा बनाना चाहते हैं। ईश्वर की प्रज्ञा के अनुसार कलीसिया के लिये कई वरदानों की ज़रूरत थी। ईश्वर की योजना में मानव जाति का एक लक्ष्य है। उस लक्ष्य तक पहुँचाने के लिये ईश्वर कुछ साधनों तथा माध्यमों का भी प्रबंध करते हैं। प्रभु येसु ने सभी आज्ञाओं का समावेश एक नयी आज्ञा के रूप में प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा, ‘‘जिस प्रकार पिता ने मुझको प्यार किया है, उसी प्रकार मैंने भी तुम लोगों को प्यार किया है। मेरी आज्ञा यह है- जिस प्रकार मैंने तुम लोगों को प्यार किया है तुम भी एक दूसरे का प्यार करो‘‘ (योहन 15:9,12)। हम देखते हैं कि प्रभु येसु न केवल प्यार की आज्ञा देते हैं बल्कि प्यार करने का तरीका भी प्रस्तुत करते हैं। उनका यह कहना है कि उन्होंने अपने पिता से ही प्यार करने का पाठ सीखा और उसी पाठ को प्रभु येसु ने अपने शिष्यों के जीवन में प्रस्तुत किया। इसलिये वे आसानी से कह सकते हैं जैसे मैने प्यार किया है वैसे ही तुम भी एक-दूसरे को प्यार किया करो। अब प्रश्न यह है कि किस प्रकार पिता ने पुत्र को प्यार किया और किस प्रकार प्रभु येसु ने शिष्यों को प्यार किया? ईशशास्त्र के विद्वान हमें समझाते हैं कि पिता परमेश्वर अपने पुत्र को पवित्र आत्मा की शक्ति से प्यार करते हैं। हम यह भी कह सकते हैं कि आत्मा पिता और पुत्र के बीच के प्रेम का प्रवाह है और इसी आत्मा से प्रेरित होकर पुत्र, प्रभु येसु खीस्त, अपने शिष्यों को, हम में से हर एक व्यक्ति को प्यार करते हैं। अगर हमें प्रभु येसु खीस्त प्यार की आज्ञा देते हैं तो उसी के साथ-साथ पवित्र आत्मा को प्यार के साधन के रूप में हमें प्रदान करते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि प्रभु चाहते हैं कि हम पवित्र आत्मा की शक्ति तथा प्रेरणा से दूसरों को प्यार करें। ईश्वर जो समय-समय पर वर्षा प्रदान कर पृथ्वी की हरियाली को संभालते हैं, आकाश में उड़ने वाले पक्षियों को खाने की चीजें प्रदान करते हैं, उससे भी ज्यादा इस बात पर ध्यान देते हैं कि अपने प्रतिरूप एवं सदृश्य्य में, सृष्टि के मुकुट के रूप में बनाये गये मनुष्य में ईश्वरता में आगे बढ़ने के लिये पवित्र आत्मा से बड़ा या महान कौन-सा उपहार दे सकते हैं!
आज मेरी और आपकी यह चुनौती है कि हम अपने भाई-बहनों को पवित्र आत्मा के प्रेरणा तथा शक्ति से प्यार करें। हमें बार-बार पवित्र आत्मा की आवाज़ सुनने का कष्ट उठाना चाहिये। ईश्वर अपने भक्त जनों को प्रचुर मात्रा में पवित्र आत्मा प्रदान करते हैं। जो विश्वासी आत्मा से संचालित है उसकी कुछ पहचान होती है। वे शरीर की वासनाओं को तृप्त नहीं करते है। वे स्वार्थ भावना से संचालित न होकर आत्मा के फल उत्पन्न करते हैं। ये फल हैं- प्रेम, आनन्द, शांति, सहनशीलता, मिलनसारिता, दयालुता ईमानदारी, सौम्यता और संयम (गलातियों 5:22)। हम खीस्तीय विश्वासी संस्कारों में पवित्र आत्मा को ग्रहण करते हैं। यह पवित्र आत्मा ईश्वर का एक महान वरदान है जो हमें एक विशेष मतलब से दिया गया है। मान लीजिए माता-पिता अपने बेटे को एक अच्छा उपहार प्रदान करते हैं। लेकिन अगर बेटा उसे को खोलकर भी देखने का कष्ट नहीं करे तो माता-पिता की क्या प्रतिक्रिया होगी? इसी प्रकार आत्मा का उपहार हमें प्राप्त तो हुआ है लेकिन शायद ही हम उसका अनुभव करने की कोशिष करते हैं। शायद हम भी बाबुल के लोगों की तरह इस उपहार को नज़रअंदाज़ करके या इसकी अवज्ञा करके अपनी-अपनी पंसद की मीनार खड़ी करना चाहते हैं। अगर यह सच है, तो शायद वह दिन दूर नहीं है जब बाबुल के लोगों की तरह हम भी बिखेरे जायेंगे। हमारी ज़रूरतों को हम से भी ज्यादा जानने और समझने वाले प्रभु ईश्वर हमें निमंत्रण देते हैं कि हम में से जो प्यासे हैं उनके पास जाये तथा मुक्ति के स्त्रोत से पवित्र आत्मा रूपी जीवन जल को ग्रहण करें। बाइबिल में हम देखते हैं कि ईश्वर ने जिस किसी को भी कुछ महत्वपूर्ण काम सौंपा उसको पवित्र आत्मा का वरदान भी दिया था। ओतनीएल (न्यायकर्त्ता 3:10), गिदओन (न्यायकर्त्ता 6:34), यिफ़्तर (न्यायकर्त्ता 9:24), समसोन (न्यायकर्त्ता 13:25, 15:14), दाऊद (1 समूएल 16:13) आदि इसके कुछ उदाहरण हैं। बाइबिल में यह बात स्पष्ट है कि प्रभु का आत्मा हमेशा प्रभु येसु पर छाया रहता था और उसी की प्रेरणा से वे सुसमाचार फैलाते, रोगियों को चंगा करते, दुखियों को दिलासा देते, पापियों को स्वीकारते, मुर्दों को जिलाते हैं। इस प्रकार वे पवित्र आत्मा के सामर्थ्य से अपने परम पावन पिता की इच्छा के अनुसार मुक्ति-विधान को पूरा करते हैं।
पवित्र आत्मा को ग्रहण करने के बाद प्रेरितों का जीवन पूरी तरह बदल जाता है। वे निडर होकर प्रभु का सुसमाचार समय-असमय सुनाते हैं और प्रभु के खातिर अपने जीवन की कुर्बानी देते हैं। कलीसिया में पवित्र आत्मा वास्तविक रूप से उपस्थित हैं। इसलिये संत पौलुस विश्वासियों को इस सत्य की याद दिलाते हुए कहते हैं, ‘‘क्या आप लोग यह नहीं जानते कि आपका शरीर पवित्र आत्मा का मंदिर है’’ (1 कुरिन्थियों 6:19)। संत पौलुस उनसे यह भी आग्रह करते हैं कि वे ‘‘आत्मा की प्रेरणा का दमन नहीं करें’’ (1 थेसलनीकियों 5:19)। संत का यह भी कहना है कि हमारे जीवन में, हमारी कमज़ोरियों को समझकर आत्मा ‘‘हमारी दुर्बलता में हमारी सहायता करता है। हम यह नहीं जानते कि कैसे प्रार्थना करनी चाहिये, किन्तु हमारी अस्पष्ट आहों द्वारा आत्मा स्वयं हमारे लिये विनती करता है’’ (रोमियों 8:26)। तो आइये हम इस बलि वेदी के सामने आत्मा के दानों और फलों के लिये पिता ईश्वर को धन्यवाद दे और प्रार्थना करें कि आत्मा के ज़रिये जो सत्कार्य उन्होंने हममें प्रारम्भ किया है, उसे अपनी योजना के अनुसार वांच्छित समाप्ति तक पहुँचा दे।