प्रेरित चरित 14:21.27; प्रकाशना 21:1-5अ; योहन 13:31-33अ,34-35
पास्का काल के कुछ दिन बीत चुके हैं। लेकिन पास्का रहस्य हमेशा खीस्तीय जीवन का केन्द्र बिन्दु है। हर मिस्सा बलिदान में हम इस रहस्य की विभिन्न पहलुओं पर मनन चिन्तन करने के लिए बुलाये जाते हैं।
प्रभु को पकड़वाने के लिए यूदस निकलता है, तो प्रभु उस घड़ी को अपने पिता को महिमान्वित करने की घड़ी मानते हैं। क्रूस अब एकदम निकट है। प्रभु उसे महिमा का साधन मानते हैं। उसी क्रूस के बलिदान से महिमा उभरती है। प्रभु येसु ने अपने जीवन में अपने पिता को महिमान्वित किया। यह उन्होंने आज्ञाकारी बनकर किया। जो अपने नेता को प्यार करता है, उस पर भरोसा रखता है और उस पर गर्व करता है, वह अपने नेता की आज्ञाओं का पालन भी करता है। प्रभु येसु अपने पिता की आज्ञाओं का पालन करते हैं। इस के लिए उन्हें अपने को दीन-हीन बनाना पड़ता है। पिता इस से प्रसन्न होकर अपने पुत्र को महिमान्वित करते हैं। इसी कारण फिलिप्पियों को लिखते हुए सन्त पौलुस कहते हैं, ”वह वास्तव में ईश्वर थे और उन को पूरा अधिकार था कि वह ईश्वर की बराबरी करें, फिर भी उन्होंने मनुष्य का रूप धारण करने के बाद मरण तक, हाँ क्रूस पर मरण तक, आज्ञाकारी बन कर अपने को और भी दीन बना लिया। इसलिए ईश्वर ने उन्हें महान बनाया और उन को वह नाम प्रदान किया, जो सब नामों में श्रेष्ठ है, जिससे ईसा का नाम सुन कर आकाश, पृथ्वी तथा अधोलोक के सब निवासी घुटने टेकें और पिता की महिमा के लिए सब लोग यह स्वीकार करें कि ईसा मसीह प्रभु हैं“ (फ़िलिप्पियों 2:6-11)।
यह एक साथ खीस्तीय जीवन का विरोधाभास और सच्चाई है कि हम दीन-हीन बनकर महिमान्वित किये जाते हैं, हम खोकर पाते हैं, मरकर जीते हैं! क्रूस मरण से पुत्र अपने पिता को महिमान्वित करते हैं, तो पुनरुत्थान के द्वारा पिता अपने पुत्र को महिमान्वित करते हैं। इस प्रकार पिता और पुत्र एक दूसरे को महिमान्वित करते हैं।
सर्वोच्च ईश्वर का हमारे लिए यह एक महान उदाहरण है। जो एक दूसरे को प्यार करते हैं वे एक दूसरे की भलाई चाहते हैं, एक दूसरे का आदर करते हैं, एक दूसरे के अच्छे कार्यों की सराहना करते हैं। जहाँ सच्चा प्यार नहीं है, वहाँ जलन, ईर्ष्या तथा शत्रुता जन्म लेते हैं। उन बुराइयों के कारण दुनिया में दुःख संकट बढ़ता है। जहाँ प्यार नहीं है, वहाँ ईश्वर को अस्वीकार किया जाता है। इसलिए प्रभु येसु दुनिया में अपने कार्य को पूरा करके अपने परम पिता के पास लौटने के पहले अपने शिष्यों को पारस्परिक प्रेम की आज्ञा देते हैं। इस के लिए वह अपने ही प्रेम का नमूना देते हैं। जिस निस्वार्थ भावना तथा लगन से उन्होंने अपने शिष्यों को प्यार किया था, उसी भावना और लगन से शिष्यों को भी एक दूसरे को प्यार करना चाहिए। इतना ही नहीं, उन्होंने पारस्परिक प्रेम को खीस्तीय विश्वासियों की पहचान ठहराया है। ”यदि तुम एक दूसरे को प्यार करोगे, तो उसी से सब लोग जान जायेंगे कि तुम मेरे शिष्य हो“ (योहन 13:35)।
सच्चा प्यार बलिदान के बिना असंभव है। इसलिए आज के पहले पाठ में सन्त पौलुस विश्वासियों को ढ़ाढ़स बँधाते और यह कहते हुए विश्वास में दृढ़ रहने के लिए अनुरोध करते हैं कि उन्हें बहुत से कष्ट सहकर ईश्वर के राज्य में प्रवेश करना है। विश्वासियों को विभिन्न कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है। प्रकाशना ग्रन्थ विश्वासियों को बड़ी आशा दिलाता है, ‘‘यह आकाश और पृथ्वी, दोनों लुप्त हो जायेंगे और समुद्र भी नहीं रहेगा’’। बाइबिल में समुद्र परेशानी और बेचैनी के प्रतीक के रुप में दर्शाया गया है। यह परेशानी और बेचैनी हट जायेंगी और एक नया आकाश और नई पृथ्वी दिखाई देगी। उस जमाने की ये विशेषताएं रहेंगी कि उस समय न मृत्यु रहेगी, न शोक, न विलाप, और न दुख। ये सब बीती हुई बातें रहेंगी। इस आनन्दमय युग में प्रवेश करने के लिए एक ही रास्ता है- प्रेम का रास्ता। ईश्वर प्रेम हैं। प्रेम के द्वारा ही हम ईश्वर के करीब आ सकते हैं। जो प्यार करता है, वह ईश्वर के करीब है। खीस्तीय वही है जो ईश्वरीय प्रेम में जीता है। जब हम इस प्रकार की आशा रखते हैं, तो हम मृत्यु से भी नहीं डरेंगे क्योंकि मृत्यु अनन्त जीवन की शुरुआत है। पूजन-विधि में, मृत विश्वासियों की अवतरिणिका में पुरोहित कहते हैं, ”हे प्रभु, तेरे विश्वासियों के लिए मृत्यु जीवन का विनाश नहीं है, बल्कि विकास है“ वास्तव में मृत्यु के समय हम ईश्वर को अपने जीवन का पूरा नियंत्रण सैंप देते हैं। प्रभु येसु निडर होकर येरुसालम की ओर यात्रा करते हैं और वहाँ क्रूस ग्रहण करते हैं। वह अपने शिष्यों को भी चुनौती देते हैं कि वे भी अपने-अपने क्रूस उठाकर उनके पीछे चले जायें। पुनरुत्थान की ओर यह एकमात्र रास्ता है। क्रूस ही ईश्वर को महिमान्वित करने का साधन है। उसी में हमारी मुक्ति है क्योंकि क्रूस में प्यार सर्वोच्च ऊँचाई तक पहुँचता है। आइए हम अपने जीवन में प्यार को प्राथमिकता देने तथा ईश्वर को अपने मन-वचन-कर्म से महिमान्वित करने का अपना दृढ़संकल्प प्रभु के समक्ष रखें।