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चक्र स - 31. पास्का का तीसरा इतवार

प्रेरित चरित 5:27-32,40ब-41; प्रकाशना 5:11-14; योहन 21:1-19 या 21:1-14

(फादर जॉंनी पुल्लोप्पिल्लिल)


हम पास्का काल में हैं। प्रभु येसु ने मृतकों में से जी उठने के पश्चात् सर्वप्रथम मरियम मगदलेना, तत्पश्चात् तीन बार अपने शिष्यों को दर्शन दिए। इनमें से तीसरी बार प्रभु येसु ने तिबेरियस के समुद्र के पास अपने शिष्यों को दर्शन दिए। इसका वर्णन आज के सुसमाचार में सन्त योहन के द्वारा किया गया है।

कहा जाता है कि ईश्वरीय साक्षात्कार या ईश्वरीय दर्शन, रोगियों, दुःखियों, पीड़ितों, शोकाकुल, आतुर हृदयी व्यक्तियों को सर्वाधिक होता है। क्योंकि उन्हें इसे अनुभव करने की सबसे ज्यादा आवश्यकता रहती है। एक रोगी व्यक्ति ही रोग मुक्त होने पर शांति, संतुष्टि और स्वास्थ्य लाभ का अनुभव कर सकता है, क्योंकि उसने रोग के त्राण और असहनीयता को भोगा है, वैसे ही जब हम निराश हो, असहाय महसूस करें, हताश हों, हमारे हृदय में नीरवता समा गई हो, चारों ओर शून्य और ख़ालीपन हो, जीवन का खोखलापन महसूस हो जिसके कारण हमारी इन्द्रियाँ संज्ञाशून्य हो जाये, हमारे मस्तिष्क पर विराम लग जाये - ऐसे कठिन और दुःखद समय में ईश्वर का विषेष अनुभव हम कर सकते हैं।

हम जिस मार्ग को पूर्ण संतुष्टि प्रदायक तथा सफ़लता से परिपूर्ण और सुरक्षित मानकर चुनते हैं ऐसे मार्ग में विघ्न या रुकावट आने पर हमें इस प्रकार का अनुभव होता है। ऐसी स्थिति में हम प्रभु की ओर देखें, उन्हें पहचानें व महसूस करें, तो बाधाएं स्वतः ही समाप्त हो जायेंगी और सुरक्षित तथा संरक्षित मार्ग ईश्वर द्वारा हमारे सामने प्रकट होगा। अतः ऐसे कठिन क्षणों में हमें अपने आराध्य, पूज्य और हितैषी परम स्नेही ईश्वर पर शंका और अविश्वास नहीं करना चाहिए। वरन् उस विघ्न के माध्यम से प्रभु की कार्य-योजना और स्नेह को समझना चाहिए। उसे क्रूर की संज्ञा से विभूषित करने के स्थान पर ईश्वर द्वारा निष्चित उचित समय आने की प्रतीक्षा करनी चाहिए। क्योंकि प्रभु के द्वारा हमारी परीक्षा लेने का यह अर्थ कदापि नहीं है कि वे हमें परेशान करना चाहते हैं, अपितु इन परीक्षाओं के माध्यम से वे हमारे विश्वास को दृढ़ करके हमें अपनी ओर आकृष्ट करना चाहते हैं। जिनकी परीक्षा वे लेते हैं या जिनके मार्ग में विघ्न आता है, वे सदैव उनका हाथ पकड़कर मार्ग दिखाने के लिए भी तत्पर रहते हैं। परीक्षा के द्वारा वे अपने अनुयायियों की सहनशक्ति और संघर्ष क्षमता को पहचानने का प्रयास करते हैं।

सीमोन पेत्रुस, नथानायल, ज़बेदी के पुत्र और येसु के अन्य दो शिष्य सभी एक साथ थे। वे सभी मछली पकड़ने एक साथ चल दिए। वे नाव पर सवार होकर गए परन्तु उस रात उनके हाथ एक भी मछली नहीं लगी। ऐसी स्थिति में निराश होना स्वाभाविक ही है। वे अपनी इस असहाय एवं दयनीय स्थिति से त्रस्त होकर स्वयं पर ही फट पड़ते हैं और स्वयं को बेकार समझने लगते हैं। उनके दुःखी अर्न्तमन में सहसा यह विचार कौंधता है कि काश! ऐसी विपरीत परिस्थिति में कोई हमारी मदद कर दे। ऐसे बोझिल हृदयी, शोकाकुल एवं निराश शिष्यों के समक्ष साहसी प्रभु येसु प्रकट होते हैं तथा सदैव के समान स्वयं ही अपने शिष्यों से प्रश्न करते हैं। ‘खाने के लिए कुछ मिला’, सांत्वना के शब्द, प्रेमपूर्ण वाणी, व्यवहार स्नेहिल भ्रातृ-प्रेम और साथ ही प्रभु का सही मार्गदर्शन भी मिला। उन्होंने कहा, ‘‘नाव की दाहिनी ओर जाल डाल दो और तुम्हें मिलेगा’’। उन्होंने प्रभु के द्वारा बताई दिशा में जाल डाला और इतनी मछलियाँ फंस गई कि वे जाल नहीं निकाल सके (योहन 21:6)।

इसका अर्थ यह है कि अंततः प्रभु-मार्ग पर चलने वालों को तथा उनकी वाणी को अपनाने वालों को जालभर, जेबें भर, दिल भर ईश्वरीय अनुकम्पा मिलती है, भरपूर आशिष मिलती है, ठीक वैसे ही जैसे, प्रभु के कहने मात्र से शिष्यों को मछलियाँ मिलीं। इस घटना के बारे में हम यह कह सकते हैं कि जीवन में बाधाओं एवं रुकावटों के पश्चात् मनचाहा अपार उपहार पाना और जीवन का निर्बाधरूप से चलना ही प्रभु की कृपा और दया है।

आज की इस घटना में हम एक और बात देखते हैं कि इसके पश्चात् ही पेत्रुस ने प्रभु को पहचाना। योहन के यह कहने पर कि ‘‘यह तो प्रभु ही है’’, प्रभु को न पहचान पाने की आत्मग्लानि के कारण उन्हें स्वयं के नंगेपन का एहसास हुआ। बाइबिल में यह लिखा गया है कि ‘‘जब पेत्रुस ने यह सुना कि यह प्रभु है, तो वह अपने कपड़े पहन कर, क्योंकि वह नंगा था, समुद्र में कूद पड़ा’’(योहन 21:7)। ऐसी ही एक घटना हम उत्पत्ति ग्रन्थ में भी पढ़ते हैं।

जब ईश्वर ने उपवन में आदि मनुष्य आदम को पुकारा, तो उसे अपनी गलती का एहसास होने पर प्रभु को उत्तर दिया, ‘‘मैं बगीचे में तेरी आवाज सुनकर डर गया, क्योंकि मैं नंगा हूँ और मैं छुप गया’’ और प्रभु ने कहा, ’’किसने तुम्हें बताया कि तुम नंगे हो ? क्या तुमने उस वृक्ष का फल खाया जिस को खाने से मैंने तुम्हें मना किया था ?’’(उत्पत्ति 3:9-11)

यानी ईश्वरीय आज्ञा की पहचान न करने से मनुष्य को आत्मग्लानि और आंतरिक नंगेंपन का एहसास होता है और ऐसी ही विकट परिस्थिति में पेत्रुस ने स्वयं को पाया। इसलिए उसे नग्नता और पश्चाताप् का एहसास हुआ। ऐसी ही आत्मग्लानि से परिपूर्ण आंतरिक नग्नता की स्थिति में प्रभु हमारा हाथ पकड़ते हैं। इस घटना में हमने देखा कि प्रभु ने प्रतिकात्मक रूप में रोटी तोड़कर अपने शिष्यों को देते हुए अपनी पहचान प्रस्तुत की।

इसी संदर्भ में पेत्रुस आज के पाठ में कहते हैं, ‘‘मनुष्यों की अपेक्षा ईश्वर की आज्ञा का पालन करना कहीं अधिक उचित है’’ (प्रेरित-चरित 5:29)। पेत्रुस यह भी साफ करते हैं कि ईष्वर उन लोगों को पवित्र आत्मा प्रदान करते हैं जो उनकी आज्ञाओं का पालन करते हैं’’ (प्रेरित चरित 5:32)।

कभी-कभी ईश्वर हमारे अत्यंत निकट होते हुए भी हम उसे पहचान नहीं पाते हैं। ऐसे समय में हम अपने जीवन के खोखलेपन को, निस्सहायता को महसूस करते हैं। जब हम पर बहुत सी पीड़ाएं, कष्ट और मुश्किलें आती हैं तो ऐसा लगता है कि हमारी सहायता के लिए कोई नहीं है और उसी क्षण यदि हम प्रभु की ओर मुड़कर देखें, उसे पहचानें, महसूस करें और स्त्रोतकार के साथ हम भी यही बोले कि ‘‘मनुष्यों पर भरोसा रखने की अपेक्षा प्रभु की शरण जाना अच्छा है’’ ( स्त्रोत 118:8), तो अवश्य ही अपनी मुश्किलों, कठिनाईयों आदि का निराकरण होगा और हमें सफलता मिलेगी।


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