निर्गमन 12:1-8,11-14; 1 कुरिन्थियों 11:23-26; योहन 13:1-15
इस्राएलियों ने अपने इतिहास में हमेशा ईश्वर का हस्तक्षेप महसूस किया। ईश्वर आरंभ से उन पर अपनी आशिष बरसाते रहे। मिस्र देश की गुलामी से स्वतंत्रता दिलाने के लिए ईश्वर ने एक ऐसा चमत्कार किया जिसे उन्होंने हमेशा याद रखा। इस्राएलियों के लिए पास्का त्योहार केवल एक पुरानी घटना की यादगारी मात्र नहीं है, बल्कि यह उनके जीवन के हर पल उपस्थित रहने वाले ईश्वर का अनुभव है।
प्रभु येसु के समय पास्का त्योहार के दो भाग थे। निसान महीने की 14 तारीख, दोपहर येरुसालेम मंदिर में एक मेमने को मार कर, उसकी बलि चढ़ाना त्योहार का पहला चरण था। उसी दिन शाम को हर परिवार में मेमने का वध किया जाता था। ऐसी ही एक शाम को प्रभु येसु अपने शिष्यों के साथ पास्का भोजन करने बैठे। यहूदी परम्परा के अनुसार खाने से पहले एक दास या दल का सबसे छोटा व्यक्ति सबके पैर धोया करता था। अंतिम भोज के समय शिष्यों में से कोई नहीं परन्तु येसु स्वयं भोजन पर से उठकर, कमर में अँगोछा बांधकर, परात में पानी भरकर अपने शिष्यों के पैर धोने और कमर में बंधे अँगोछे से उन्हें पोछने लगते है। तत्पश्चात् उन्होंने कहा, ‘‘मैंने तुम्हें उदाहरण दिया है, जिससे जैसा मैं ने तुम्हारे साथ किया है, वैसा ही तुम भी किया करो’’ (योहन 13:15)। इसका मतलब यह नही समझना चाहिए कि प्रभु यह चाहते हैं कि खाने से पहले हमें सबके पैर धोना चाहिए। इसका अर्थ है कि हमें प्रभु येसु का अनुगमन करना है, अर्थात प्रभु येसु का मनोभाव अपनाना है (फिलिप्पियों 2:5)। शिष्यों के पैर धोकर येसु ने अपने जीवन का अर्थ समझाने की कोशिश की। येसु का जीवन हमेशा दूसरों के लिए, दूसरों की सेवा के लिए रहा। संत पौलुस धर्माध्यक्ष तिमथी को संतो के पैर धोने, दीन-दुखियों की सहायता करने और हर प्रकार के परोपकार में लगे रहने को कहते हैं (1 तिमथी 5:10)। येसु का सेवा-मनोभाव हमेशा के लिए हमें याद रखना है।
सेवा एक प्रकार की जीवन षैली है। हम सब सेवा करने वाले हैं और सेवा करते आये हैं। उदाहरण के लिए डॉक्टर अपने मरीज की सेवा करता है, दुकानदार अपने ग्राहक की सेवा करता है, अध्यापक अपने विद्यार्थियों की सेवा करता है। ये सब सेवा कार्य ही है लेकिन इन सेवा कार्यों के आंतरिक मनोभाव मे फ़रक़ है।
सेवा कार्य से ज्यादा सेवा मनोवृत्ति पर हमें ध्यान देना चाहिये। इसके के लिए सबसे पहले हमें विनम्रता या शालीनता के गुण की ज़रूरत है। येसु ने कहा, ’’मैं स्वभाव से नम्र और विनीत हूँ’’ (मत्ती 11:29)। इसी विनम्रता को हम उनके जीवन में देखते हैं। ईश्वर होते हुए भी वे इस धरती पर आये और हमारे बीच में रहे। उन्होंने अपने आपको इतना विनम्र बनाया कि अपने शिष्यों के पैर धोये। सृष्टिकर्ता ने अपनी सृष्टि के सामने घुटने टेके। हमारे जीवन के सभी कार्यक्षेत्रों में, सेवा क्षेत्र में, हमें इसी विनम्रता को अपनाना है।
सेवा कार्य खीस्तीय अधिकार का चिन्ह है। बड़े-बड़े स्थानों पर बैठे कुछ लोग कभी-कभी अपनी योजनाएँ तथा विचार मनवाने के लिए, स्वीकार करवाने के लिए दूसरों पर दबाव डालते हैं। यह भी एक तरह से सेवा कार्य के विरुद्ध है। प्रभु येसु ने कहा, ‘मैं तुम्हें भेडियों के बीच भेडों की तरह भेजता हूँ (मत्ती 10:16)। कुछ लोग चाहते हैं कि अपनी पल्ली में सब कार्य जिस रीति रिवाज़ के अनुसार होते हैं, वह केरल, तमिलनाडु के रीति रिवाज़ों के अनुसार हो या फिर रायगढ़ की परंपरा के अनुसार होनी चाहिए। ऐसी मानसिकता वाले लोग दूसरे लोगों को अपनी परंपरा मनवाने के लिए उन पर दबाब डालते हैं। यहाँ पर वे भेड़ों के बीच भेड़ियाँ बन जाते हैं।
लालच की तरफ हमारा झुकाव भी सेवा कार्य के लिए बाधा उत्पन्न कर सकता है। जो अपना मन धन-संपत्ति में लगाये रखते हैं, जो लालच करते हैं, ऐसे व्यक्ति हमेशा अपने आपको ही खुश रखने के लिए ही सोचते हैं। उनका ध्यान हमेशा अपनी खुषी, अपना आराम और अपने समय पर रहेगा। दूसरों की सेवा करने के लिए उन्हें समय निकालना कठिन लगेगा। इसमें मसीह ही हमारा आदर्श एवं उदाहरण होना चाहिए। क्योंकि ‘‘मसीह ने अपने सुख का ध्यान नहीं रखा’’ (रोमियों 15:3)।
दूसरों से सेवा पाना भी सेवा कार्य हो सकता है। प्रभु येसु ने न केवल दूसरों के पैर धोये, बल्कि उन्होंने अपने पैर धोने के लिए दूसरो को भी अनुमति दी। विभिन्न लोगों द्वारा किये गये सेवाकार्य तथा उनके द्वारा दिया खाना-पीना भी मसीह ने स्वीकार किया। ये भी एक प्रकार की सेवा है। विनम्रतापूर्वक दूसरों की सेवा अपनाना एक तरह से सेवा कार्य के लिए दूसरों को प्रोत्साहन देता है। फिर भी प्रभु साफ शब्दों में कहते हैं, ‘‘मानव पुत्र सेवा कराने नहीं बल्कि सेवा करने आया है’’। खीस्तीय विष्वासी को सेवा मनोवृत्ति से प्रेरित होकर जीवन बिताना चाहिये।
आज हम अपने सेवा कार्यों की जाँच करें। क्या हम दूसरों की प्रषंसा पाने के लिए सेवा करते हैं? प्रभु ने कहा, ’’जब तुम दान देते हो तो तुम्हारा बायाँ हाथ यह न जानने पाये कि तुम्हारा दायाँ हाथ क्या कर रहा है’’ (मत्ती 6:3)। क्या हम सचमुच अपने भाई बहनों की सेवा कर रहे हैं? या वे हमारी सेवा कर रहे हैं? क्या हमने अपने सेवा कार्य में दूसरे लोगों का फायदा उठाया? आईए हम सब प्रभु येसु का मनोभाव अपनाने की कोशिश करें और निस्वार्थ भाव से एक दूसरे की सेवा करने की प्रतिज्ञा भी करें।
आज हम यूखारिस्तीय संस्कार की स्थापना की याद करते हैं। प्रभु इस संस्कार के द्वारा हमें अपना ही शरीर और रक्त प्रदान करते हैं। यह दूसरों के प्रति अपनी सेवा-तत्परता का प्रतीक है। हम जो यूखारिस्तीय संस्कार को ग्रहण करते हैं, हमेशा दूसरों की सेवा करते हुए इस संसार की वेदी पर अपने स्वयं का बलिदान लगातार चढ़ाते रहें।