इसायाह 43:16-21; फिलिप्पियों 3:8-14; योहन 8:1-11
चालीसा काल में कलीसिया हमें लगातार पाप के कारण हमारी दयनीय दशा एवं ईश्वर की असीम क्षमा की याद दिलाती है। साथ ही वह पश्चात्ताप के द्वारा ईश्वर के पास पुनः लौट आने का आह्वान करती है। यह समय हमें इसलिये दिया जाता है कि हम अपने पुराने पापमय मार्गों को छोड़कर ईश्वर के मार्ग को अपना सकें। हम एक नया व्यक्तित्व ग्रहण कर सकें। आज के सभी पाठ इसी तथ्य से हमारा सामना कराते हैं।
मनुष्य कमजोर है और अपने दुर्बल मानव स्वभाव के कारण पाप में गिरना उसकी नियती है। इस स्थिति से वह स्वयं नहीं उभर सकता है। ईश्ववर की कृपा के बिना, उनके हस्तक्षेप के बिना मानव इस पाप के दल-दल से नहीं निकल सकता। ईश्वर ने मनुष्य को इच्छा-शक्ति दी है और उसके प्रयोग की पूरी स्वतंत्रता भी। यह मानव पर निर्भर करता है कि वह ईश्वर के मार्ग को अपनाये या सांसारिकता में लिप्त रहे। ईश्वर पाप से घृणा करते हैं पर पापी से नहीं। पापी के लिये उनके हृदय में दया एवं अनुकंपा है। वे पापी के नाश की कामना नहीं करते पर उसके उद्धार के लिये कार्यरत रहते हैं। वे उसके बुरे मार्ग को छोड़ने पर खुशी मनाते हैं। वे पश्चात्तापी पापी को नवजीवन प्रदान करते हैं।
ईश्वर पापी को उसके पाप के कारण दण्डित अवश्य करते हैं पर वे उसके साथ नम्रता से भी पेश आते हैं ताकि वह अपनी गलती का एहसास करे और फिर उस तरफ रुख न करे। धर्मग्रंथ में हम इसके कई उदाहरण पाते हैं। उत्पत्ति ग्रंथ हमें बताता है कि किस प्रकार ईश्वर ने मानव की सृष्टि की। उन्होंने मानव को अपने प्रतिरूप बनाया जिससे वह उन्हें प्रेम कर सके, उनकी आराधना कर सके और उनके सृजन कार्य में हाथ बंटा सके। मानव को ईश्वर के सान्निध्य में रहने का सौभाग्य प्राप्त था। वह ईश्वर की कृपा से परिपूर्ण था। पर ईश्वर की अवज्ञा कर वह अपनी मूल प्रकृति खो बैठा। उसके इस कृत्य पर ईश्वर ने उसे दण्डित किया। उसे ईश्वरीय सान्निध्य एवं कृपा से वंचित होना पड़ा। पर ईश्वर ने उसे हमेशा के लिये नहीं त्यागा। उससे मुक्तिदाता की प्रतिज्ञा कर उसमें आशा जगायें रखते हैं कि वे उसके उद्धार के इच्छुक हैं और उसकी वापसी की बाट जोहते हैं।
इस्राएली जनता ईश्वर की चुनी हुई प्रजा थी। उन्होंने अपने बाहुबल से उन्हें मिस्र की गुलामी से मुक्त किया था और प्रतिज्ञात देश में स्थापित करने तक उनकी हर तरह से देख-रेख की। विधान के द्वारा उन्होंने उनके साथ विशेष सम्बंध स्थापित किया था, जो उन्हें ’’ईश्वर की प्रजा’’ का दर्जा दिलाती थी। पर इस्राएली ईश्वर के अनगिनत उपकारों को भूलकर उनके विरुद्ध पाप करते रहे और उनके मार्ग से भटकते रहे। इसके फलस्वरूप ईश्वर उनके साथ सख्ती से पेश आये, उन्हें निर्वासित किया और इस प्रकार दण्डित किया। पर उन्होंने उनका सर्वनाश नहीं किया जिससे वे अपनी गलती का एहसास करते हुये ईश्वर के पास पुनः लौट आये।
आज का पहला पाठ ईश्वर की इसी दयालुता को दर्शाता है। 586 ई. पू. इस्राएली बाबुल में निर्वासित किये गये थे। उनके बढ़ते पापमय सांसारिक जीवन के कारण ईश्वर ने उन्हें त्याग दिया था। पर वे अपनी चुनी हुई प्रजा के विश्वासघात के बावजूद उसे भूला नहीं पाये। वे अपनी प्रजा की दयनीय दशा पर तरस खाते हैं और उन्हें ढ़ाढ़स बंधाते हैं कि उनके लिये कुछ नया करेंगे। वे उन्हें इस दासता से मुक्त करेंगे और यह नया निर्गमन होगा जो ईश्वर की महिमा की माँग करेगा।
नबी योना का ग्रंथ हमें ईश्वर की सहिष्णुता का आभास कराता है। निनीवे में अधर्म बढ़ चुका था और निनीवेवासी ईश्वर से भटक गये थे। नबी योना के माध्यम से ईश्वर उन्हें अपने कुमार्ग को छोड़ने की चेतावनी देते हैं। योना के आह्वान पर निनीवेवासी उपवास, त्याग आदि से ईश्वर की दुहाई देते हैं और वे उनपर जो विपत्ति लाने वाले थे उसे भूल जाते हैं और उन्हें क्षमा करते हैं। योना ईश्वर की इस दयालुता पर अप्रसन्न होते हैं और ईश्वर से शिकायत करते हैं। ईश्वर मनुष्य की बहुमूल्यता के बारे में समझाकर योना को शांत करते हैं।
प्रभु येसु प्रतिज्ञात मुक्तिदाता थे। उनका इस धरा पर आने का मकसद ही मानवजाति को उनके पापों से मुक्ति दिलाना था। वे अपने सार्वजनिक जीवन की शुरूआत पश्चात्ताप के आह्वान से करते हैं ’’समय पूरा हो चुका है। ईश्वर का राज्य निकट आ गया है। पश्चात्ताप करो और सुसमाचार में विश्वास करो।‘‘ प्रभु येसु ने अपने जीवन से बताया कि पापियों के लिये उनके हृदय में स्थान है। पापी भी ईश्वर की सृष्टि है। वे ईश्वर के प्रतिरूप है। फ़रक़ सिर्फ इतना है कि वे पाप के कारण ईश्वर के मार्ग से भटक गये हैं। इसलिये यह जतन किया जाना ज़रूरी है कि वे अपने पापों का एहसास करें, उस पर पछतायें एवं पापमय मार्ग को छोड़कर ईश्वर की ओर रुख करें। वे कहते हैं ’’नीरोगों को नहीं रोगियों को वैद्य की ज़रूरत होती है। मैं धर्मियों को नहीं पापियों को बुलाने आया हूँ।’’ प्रभु उड़ाऊ पुत्र, ज़केयुस, समारी स्त्री, भटकी हुई भेड़ आदि के दृष्टान्तों के माध्यम से इस तथ्य को हमारे सामने रखते हैं।
आज का सुसमाचार पापियों के प्रति उनके मनोभाव को बहुत ही सुन्दर रूप से हमारे सामने प्रस्तुत करता है। शास्त्री एवं फ़रीसी व्यभिचार में पकड़ी गई एक स्त्री को येसु के पास लेकर आते हैं और भीड़ के बीच खड़ा कर येसु को फँसाने के उद्देश्य से प्रश्न करते हंी कि इस स्त्री के बारे में उनकी क्या राय है, क्योंकि संहिता ऐसी स्त्रियों को पत्थर से मार डालने का आदेश देती है। वे जानते हैं कि येसु पापियों के प्रति सहानुभूति रखते हैं और उन्हें मात देने का यह सुन्दर अवसर गंवाना नहीं चाहते हैं। पर येसु बिना कुछ कहे झुककर भूमि पर कुछ लिखते हैं। भीड़ उस स्त्री को दण्डित करने के लिये उतारू थी। उनके दिल में उसके लिये दया, सहानुभूति रत्ती भर भी नहीं थी। इसके विपरीत येसु इन सब में रुचि लेते दिखाई नहीं देते हैं। वे उनकी अनदेखी करते हुए से लगते हैं। जब वे लगातार उनसे उत्तर का आग्रह करने लगे तब उन्होंने सिर उठाकर उनसे कहा ’’तुम में जो निष्पाप है वह इसे सबसे पहले पत्थर मारे’’ और वे फिर झुककर भूमि पर लिखने लगे। सुसमाचार हमें बताता है कि ’’यह सुनकर बड़ों से लेकर छोटों तक, सब के सब एक-एक कर खिसक गये’’। यह रहस्य है कि येसु ने भूमि पर क्यों लिखा और क्या लिखा। पर एक बात स्पष्ट है कि अपनी पोल खुलने के डर से वे सब वहाँ से चलते बने। अंत में येसु ही रह जाते हैं और वह स्त्री सामने खड़ी रहती है। क्षमा एवं पाप आमने सामने रह जाते हैं। येसु सिर उठाकर उस स्त्री से पूछते हैं ‘‘नारी! वे लोग कहाँ हैं? क्या एक ने भी तुम्हें दण्ड नहीं दिया? उसके यह कहने पर कि ’’महोदय! एक ने भी नहीं। येसु उसे उसके अपराधों से मुक्त करते हैं और कहते हैं ’’मैं भी तुम्हें दण्ड नहीं दूँगा’’। वे उसे विदा करते हुये फिर से पाप न करने की हिदायत देते हैं- ’’जाओ अब से फिर पाप न करना’’।
व्यभिचार में पकड़ी गई स्त्री ने अपने अपराध को स्वीकारा और वह प्रभु के सामने खड़ी रही और प्रभु से क्षमा प्राप्त कर अपने अपराधों से मुक्त होकर वापस गई। इसके विपरीत तथाकथित धर्मियों की भीड़ जो इस स्त्री की सफाई सुने बिना उसे दण्डित करने के लिये उतारू थी, जब उन्हें उनका भेद खुलने का एहसास हुआ तो वे वहाँ से एक-एक कर गायब हो गये। उनमें अपना अपराध स्वीकारने की हिम्मत नहीं थी। इसलिये वे येसु के सामने खड़े नहीं रह पाये और प्रभु की क्षमा से वंचित रह गये। उन्हें प्रभु के प्रेम, दया, उदारता एवं क्षमा पर विश्वास नहीं था। अतः वे पापमय जीवन में बने रहने के लिये गुम हो गये।
यूदस एवं पेत्रुस येसु के शिष्यों में से थे। दोनों ने येसु के विरुद्ध अपराध किया था। दोनों ने अपने गुरू एवं प्रभु के साथ विश्वासघात किया था। यूदस ने उन्हें चांदी के 30 सिक्कों में बेच दिया था तो पेत्रुस ने तीन बार येसु को अस्वीकार किया था। दोनों को अपनी-अपनी गलती का एहसास हुआ- यूदस को, जब येसु को प्राणदण्ड की आज्ञा दी गई और पेत्रुस को जब मुर्गे के बांग देने पर येसु ने उसकी ओर देखा। अपने किये पर दोनों को पश्चात्ताप भी हुआ पर यूदस येसु की उदारता एवं क्षमा पर विश्वास नहीं कर सका और वह अपने पाप में मर गया। उसने फाँसी लगा ली। इसके विपरीत पेत्रुस को प्रभु की दया एवं क्षमा पर विश्वास था इसलिये वह फूट-फूट कर रोने लगा और अपने अपराधों से मुक्त होकर गया।
आज प्र्रभु उनके असीम दया एवं क्षमा पर विश्वास करने के लिये हमारा आह्वान करते हैं। वे चाहते हैं कि हम भी अपने अपराधों को स्वीकारें और उनपर पछताते हुये उनके पास जायें और अपने अपराधों से छुटकारा प्राप्त कर उनसे संयुक्त हो जायें ।
संत पौलुस दमिश्क अनुभव के बाद एक नये व्यक्ति बन गये थे। उन्होंने प्रभु की असीम दया, प्रेम एवं क्षमा को नज़दीकी से अनुभव किया। इसलिये वे आज के दूसरे पाठ में कहते हैं ‘‘......मैं प्रभु ईसा मसीह को जानना सर्वश्रेष्ठ लाभ मानता हूँ और उस ज्ञान की तुलना में हर वस्तु को हानि ही मानता हूँ। उन्हीं के लिये मैंने सब कुछ छोड़ दिया है और उसे कूड़ा समझता हूँ, जिससे मैं मसीह को प्राप्त करूँ और उनके साथ पूर्णरूप से एक हो जाऊँ।’’ तो आइये चालीसा काल के मनोभाव को अपनाते हुये हम संत पौलुस के साथ संयुक्त होकर उन सभी चीज़ों का त्याग करें जो प्रभु के मार्ग में अड़चन पैदा करती हैं और प्रभु के असीम दया, प्रेम एवं क्षमा पर विश्वास करते हुये पूर्ण रूप से प्रभु में एक हो जायें और इस प्रकार इस चालीसा काल को अपने लिये सार्थक बना लें।