उत्पत्ति 15:5-12, 17-18; फिलिप्पियों 3:17-4:1 या 3:20-4:1; लूकस 9:28ब-36
आज चालीसा काल का दूसरा रविवार है। जैसे कि हम जानते हैं चालीसा कलीसिया द्वारा दिया गया एक विशेष अवसर है, विशेष समय है, जिसमें हम ईश्वर की असीम कृपा और उसके कार्यों का हमारे जीवन में स्मरण कर सकेंं और उस पर निष्कपट रूप से, सच्चे हृदय से जाँच कर सकें। यह अपने आप से पूछने का वक्त है कि कैसे हमने ईश्वर के उपहारों के प्रति और किस प्रकार की प्रतिक्रिया प्रकट की है? हमारा क्या जवाब है? जो वरदान हम पर बिना किसी उम्मीद या आशा के दयालुतापूर्वक बरसाया गया है उसके ज़रिए हमारे जीवन को संचालित करने का यह एक विशेष अवसर है। आज के पाठ, हमें ईश्वरीय अनुग्रह, हमारी प्रतिक्रिया और उस उपहार, जो महिमा में हमारा इंतजार कर रहा है, के बारे में सोचने विचारने में हमारी मदद करते हैं।
आज का पहला पाठ, हमारे सामने ईश्वर और इब्राहिम के बीच बने विधान को रखता है। ईश्वर ने इब्राहिम को वंशज और एक देश देने की प्रतिज्ञा की थी। ईश्वर ने इस संसार की रचना की, मनुष्यों पर अपनी अभिकल्पनाओं और योजनाओं को नहीं थोपा, परन्तु अपनी योजना मनुष्य के सामने रखी और उनको इसे स्वीकारने या नकारने का चुनाव स्वयं करने दिया। बाइबिल हमें इस्राएलियों द्वारा ईश्वर और उनकी योजनाओं की स्वीकृति और अस्वीकृति की कहानियाँ निरंतर बताती हैं। आज का पहला पाठ हमें हमारे जीवन में ईश्वर की उपस्थिति को याद करने के लिये तब आमंत्रित करता है, जब हमें यह पता चलता है, कि ईश्वर की प्रतिज्ञा हमारे जीवन में पूर्ण हुई हैं ताकि हम हमेशा उसके आभारी रहें।
दूसरे पाठ में हम संत पौलुस द्वारा फिलिप्पी में रहने वाले ख्रीस्तीयों को दिये गये उपदेश के बारे में सुनते हैं। संत पौलुस लोगों को ख्रीस्त के अनुयायी बनने के लिए, उनका अनुसरण करने के लिए कहते है तथा अपने आप को उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत करते हैं। वह प्रभु येसु ख्रीस्त के क्रूस के शत्रुओं के बारे में भी बताते हैं। प्रभु येसु ख्रीस्त के क्रूस के शत्रु कौन है? यह हम स्त्रोत 24 की मदद से जान सकते हैं।
‘‘प्रभु के पर्वत पर कौन चढे़गा? ‘‘उसके मंदिर में कौन रहेगा? ‘‘वही, जिसके हाथ निर्दोष और हृदय निर्मल हैं, जिसका मन इस संसार में नही रमता जो शपथ खाकर धोखा नही देता’’।
चालीसा एक अन्र्तदर्शन का समय है। हमें मनन् करना चाहिये कि क्या मैं ईश्वर का अनुसरण करने में सफल हूँ या मैं उसके क्रूस का शत्रु हूँ?
प्रभु येसु ने अपने शिष्यों को ईश्वर की महिमा का पूर्व अनुभव प्रदान किया। पेत्रुस ने येसु से कहा, ‘‘प्रभु यहाँ होना हमारे लिये कितना अच्छा है’’। वह उस अनोखे एवं अद्भुत अनुभव से बाहर नहीं आना चाहता था। वह बहुत ही अच्छे मिज़ाज में था और उस आनंदमय पल का उसने भरपूर आनंद लिया। जब हम भी ख्रीस्त का अनुसरण करेंगे तो हमें भी यही अनुभव होगा। हम भी हमारी खुषीयों के पर्वत पर पूरा जीवन बिताना चाहेंगे। लेकिन प्रभु हमें नीचे, लोगों के बीच जाने की चुनौती देते हैं। ख्रीस्तीय धर्म समाज को छोड़कर, ज़रूरतमदों को छोड़कर अकेले में किसी पर्वत पर ईश्वर के विशेष दर्षन करके बिताने का धर्म नहीं है। वह लाचार और बेसहारे लोगों की कराहना सुनकर उनके बोझ को हल्का करने तथा उनके चेहरे पर मुस्कुराहट आने की हर कोशिश को महानता प्रदान करता है।
ख्रीस्तीय धर्म क्रूस पर केंद्रित है और इसलिये ख्रीस्त का अनुकरण कोई फूलों की शैय्या नहीं है, वस्तुतः यह क्रूस का रास्ता है। यहाँ तक कि धर्म पुस्तकों के लेखक भी यही कहते हैं कि मूसा और एलियस बादल में दिखाई दिये और येसु उनसे उस कष्ट के बारे में बातचीत कर रहे थे जिससेे उन्हें महिमान्वित होने से पहले गुजरना होगा। यह रास्ता उतना आसान नहीं है परन्तु जब हम हमारे जीवन में ईश्वर की उपस्थिति को समझने लगेंगे, जब हम अपने जीवन का अंतिम लक्ष्य ईश्वर की उपस्थिति में रखेंगे, उसको जैसा वह है वैसे ही आमने-सामने देखने की इच्छा रखेंगे, तो ख्रीस्त का अुनसरण हमारे लिये सरल हो जायेगा। सरल हो जाने का अर्थ यह नहीं है कि हमारे जीवन से क्रूस लुप्त हो जायेगा परन्तु उसे सहर्ष झेलने की शक्ति ईश्वर हमें प्रदान करेंगे।
अतः चालीसा के इस दूसरे रविवार में हम अपने अंदर झांके और देखें कि क्या हम ख्रीस्त के सच्चे अनुयायी हैं या नहीं? हमारे जीवन का क्या लक्ष्य है? क्या मुझमें बदलाव की ज़रूरत है? अगर हाँ, तो किस प्रकार के और कहाँ तक और किस क्षेत्र में बदलाव की ज़रूरत है? हम प्रार्थना करें कि ईश्वर हमें यह जानने में मदद करें कि हम कहाँ पर हैं और हमें उनका सच्चा अनुयायी बनने में मार्गदर्शन करें।