1 समूएल 1:20-22,24-28; 1 योहन 3:1.2,21-24; लूकस 2:41-52
कुछ ही दिन पहले हमने ख्रीस्त जयन्ती का त्योहार मनाया था। उस समय हमारी श्रद्धा-भक्ति एक बालक पर केन्द्रित थी। आज हमारा ध्यान उस बालक के पूरे परिवार की ओर जाता है।
वह शुरु से ही समस्याओं से घिरा हुआ एक परिवार था। पति और पत्नी के एक साथ रहने के पहले ही पत्नी गर्भवती हो जाती है। समाज में इसके प्रति जो प्रतिक्रिया हो सकती है उसका हम अन्दाज़ा लगा सकते हैं। इसके अतिरिक्त राजाज्ञा के कारण यूसु़फ़ को अपनी गर्भवती पत्नी को लेकर बेथलेहेम जाना पड़ता है।
प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच मरियम अपने पुत्र को जन्म देती है। राजा हेरोद बालक येसु को जान से मार डालने की कोशिश करता है और परेशानियों से बचने के लिए यूसुफ़ को मरियम और येसु को लेकर मिस्र भागना पड़ता है। चार-पाँच साल वहाँ गुजारने के बाद वे वापस आकर नाज़रेथ में रहने लगते हैं।
इस घटनाक्रम को विश्वासी लोग दूसरे दृष्टिकोण से देखते हैं। ईश्वर ने एक निर्धन मनुष्य के रूप में अपने आप को प्रकट करना चाहा। प्रभु येसु का सन्देश भी विशेषकर गरीबों के लिए था। प्रभु धन-दौलत, पद और नाम को नहीं बल्कि इन्सानियत को महत्व देते हैं। हम पवित्र परिवार में यही देखते हैं। वे व्यक्ति और इन्सानियत को प्राथमिकता देते हैं। इसको ध्यान में रखते हुए पवित्र परिवार की कुछ विशेषताओं पर ध्यान देना उचित होगा।
पवित्र परिवार में यूसुफ़, मरियम और येसु तीनों का एक ही लक्ष्य था। वह था पिता परमेश्वर की इच्छा पूरी करना। यूसुफ़ पिता परमेश्वर की इच्छा पूरी करने के लिए साहसी और सहनशील बनते हैं। वह मरियम का परित्याग करके अपने कन्धों से एक बड़ा बोेझ आसानी से हटा सकते थे। परन्तु ईश्वर की इच्छा इसके विपरीत थी। इसलिए वह गर्भवती मरियम को सहर्ष स्वीकार करते हैं। वह इसकी परवाह नही करते हैं कि लोग क्या बोलेंगे या सोचेंगे। उसकी श्रद्धाभक्ति ईश्वर पर केन्द्रित थी। वह हर पल बड़ी लगन से ईश्वर की इच्छा खोजते हैं और तन-मन-धन से अपने परिवार की देख-रेख करते हैं।
इसी प्रकार मरियम ईश्वर की इच्छा को विनम्रता तथा बड़े विश्वास के साथ स्वीकार करती हैं, इसका साक्ष्य पवित्र वचन स्वयं देता है। स्वर्गदूत गब्रिएल द्वारा ईश्वर की इच्छा प्रकट होने पर वे कहती हैं, ‘‘देखिए, मैं प्रभु की दासी हूँ, तेरा कथन मुझमें पूरा हो जावें’’। उस समय से लेकर पवित्र आत्मा के आगमन तक हर पल उन्होंने अपना जीवन ईश्वर की एक ईमानदार और विनम्र दासी के समान, ईश्वर की इच्छा के सामने आज्ञाकारी बनकर बिताया।
मंदिर में पाये जाने पर येसु ने अपने माता-पिता से कहा, ‘‘मुझे ढूँढने की ज़रूरत क्या थी? क्या आप यह नही जानते थे कि मैं निश्चय ही अपने पिता के घर होऊँगा?’’ इस कथन से प्रभु ने यह स्पष्ट किया कि वे अपने परम पिता के ही कार्यों में व्यस्त हैं और उन्होंने अपने पिता की इच्छा पूरी करना ही अपने जीवन का एकमात्र लक्ष्य माना। अगर प्रथम मानव आदम ने ईश्वर की इच्छा को ठुकरा दिया तो नये मनुष्य प्रभु येसु ईश्वर की इच्छा पूरी करने के मकसद से ही इस दुनिया में आते हैं। इसी कारण इब्रानियों के नाम पत्र में कहा गया है, ‘‘मसीह ने संसार में आकर यह कहाः तूने न तो यज्ञ चाहा और न चढ़ावा, बल्कि तूने मेरे लिए एक शरीर तैयार किया है। तू न तो होम से प्रसन्न हुआ और न प्रायश्चित के बलिदान से; इसलिए मैंने कहा - ईश्वर! मैं तेरी इच्छा पूरी करने आया हूँ’’ (इब्रानियों 10:5-7)।
अपने पिता की इच्छा पूरी करने में प्रभु येसु को एक प्रकार के मानसिक संघर्ष का सामना करना पड़ा। इस संघर्ष को वे अपनी प्रार्थना में व्यक्त करते हैं, ‘‘अब्बा! पिता! तेरे लिए सब कुछ संभव है। यह प्याला मुझसे हटा लें। फिर भी मेरी नही बल्कि तेरी इच्छा पूरी हो’’ (लूकस 14:36)।
ईश्वरीय इच्छा ही पवित्र परिवार में एकता का स्त्रोत था। पूरे पवित्र परिवार का लक्ष्य भी वही था। आज की परिस्थिति में ईश्वर की इच्छा पूरी करना और भी संघर्षपूर्ण बात है। लेकिन वास्तविकता यह है कि अगर परिवार के सभी सदस्य मिलकर ईश्वर की इच्छा खोजेंगे और उसे अमल में लायेंगे तो वह परिवार ख्रीस्तीय एकता का अनुभव करेगा। यह कहा जा सकता है कि ख्रीस्तीय एकता की नींव ईश्वरीय इच्छा पर डाली जानी चाहिए। प्रार्थना ईश्वरीय इच्छा को परखने का अवसर है। इसलिए यह भी कहा जाता है कि जो परिवार एक साथ प्रार्थना करता है, वह एक एकजुट होकर जीवन बिताता है।
पवित्र परिवार का दूसरा गुण पारस्परिक प्रेम था। येसु, मरियम और यूसुफ़ एक-दूसरे को प्यार करते थे। हालाँकि पवित्र परिवार की आंतरिक गतिविधियों का सुसमाचार मंे बहुत ही कम उल्लेख है फिर भी यह ज़रूर प्रकट होता है कि इस परिवार के सदस्यों के बीच एक ऐसा रिश्ता कायम था जो आज की दुनिया में बहुत ही कम देखने को मिलता है। संकट की स्थिति में यूसुफ़ मरियम को अकेला नहीं छोड़ते हैं बल्कि उसका साथ देते हैं। उनके दुख-तकलीफ़ों में शामिल होते हैं। येसु का प्यार अपने माता-पिता के प्रति आज्ञाकारिता में प्रकट होता है। संत लूकस कहते है ‘‘ईसा उनके साथ नाज़रेत गये और उनके अधीन रहे’’ (लूकस 2:51)। बेथलेहेम की चरनी से लेकर पेंतेकोस्त के अवसर तक माता मरियम की येसु के साथ उपस्थिति इस बात का प्रमाण देती है कि माता मरियम प्रभु येसु को कितना प्यार करती थी।
पवित्र परिवार का तीसरा गुण एक-दूसरे के प्रति आदर था। मरियम के प्रति अपने आदर के कारण ही उसकी गर्भवती होने की अवस्था में भी उसे अपमानित न करने के उद्देश्य से यूसुफ़ उसका चुपके से परित्याग करना चाहते थे। अपनी माँ के प्रति आदर के कारण ही प्रभु येसु क़ाना के विवाह भोज में अपना पहला चमत्कार दिखाते हैं। दूसरों के प्रति आदर विनम्रता से उत्पन्न होता है। सच्ची विनम्रता का नमूना हम पवित्र परिवार में ही पाते हैं। इसलिए प्रभु खुद कहते हैं, ‘‘... मुझसे सीखो। मैं स्वभाव से नम्र और विनीत हूँ’’ (मत्ती 11:29)। कहा जाता है कि विनम्रता एक अजीब-सी चीज है; जो उसे अपने पास होने का दावा करते हैं, उनके पास वह होती नहीं और जिसके पास वह होती है उसे उसका पता नहीं।
पवित्र परिवार हरेक ख्रीस्तीय परिवार के लिए एक नमूना है। जो व्यक्ति इन्सानियत को प्राथमिकता देते हैं, उनके परिवारों में शांति और खुशी छाई रहती है। जहाँ सच्चा प्यार है, वहाँ शर्तों के लिए जगह नहीं है। वहाँ क्षमा याचना की ज़रूरत नही पड़ती है बल्कि एक-दूसरे को क्षमा किया जाता है। परस्पर आदर का भाव बना रहता है। सभी लोग एक दूसरे की सेवा में लगे रहते हैं।
ख्रीस्तीय होने के नाते हम ईश्वर के परिवार के सदस्य हैं। ईश्वर को हम ‘पिता’ कहकर पुकारते हैं। सारी मानवजाति हमारे परिवार के सदस्य हैं। हरेक ख्रीस्तीय परिवार पावन त्रित्व को इस दुनिया के सामने प्रकट करता है। पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा की एकता और प्यार हमारा मार्गदर्शन करें।