इसायाह 9:1-6; तीतुस 2:11-14; लूकस 2:1-14
ख्रीस्त जयन्ती या क्रिसमस ईश्वर के मानव बनने की याद में मनाया जाता है। जिस ईश्वर को हमारे पूर्वजों ने अग्नि के रूप में, धुएं के रूप में या बादलों में देखा था, उसी ईश्वर ने आज चरणी में यूसुफ़ और मरियम से जन्म लिया। सन्त योहन के अनुसार आदि में शब्द था, वह ईश्वर के साथ था, उसी ईश्वरीय शब्द ने आज देह धारण किया (योहन 1:3)। उसी अदृश्य ईश्वरीय शब्द ने प्रभु येसु के रूप में दृश्य रूप धारण किया।
ईश्वर का इन्सान बनना या ईश्वर जैसी महान शक्ति को मनुष्य गर्भ में देह धारण करना मानव मस्तिष्क की सोच-विचार से परे हैं। हम उसे कितना ही समझने की कोशिश करें, फिर भी वह एक रहस्य ही रह जायेगा। इसलिए इस तथ्य को पूर्णरूप से समझना या समझाना हमेषा मानवीय चेष्टा से परे ही रहेगा। क्योंकि ईश्वर जैसी अनश्वर, अनादि, अनंत, असीम शक्ति को मनुष्य जैसी सीमित, संकीर्ण और नश्वर बुद्धि द्वारा समझना असंभव है। इसलिए ईश शास्त्रियों के द्वारा यह तथ्य मनुष्य को एक अनूठे रहस्य के रूप में बताया गया है, जो केवल ईश्वर के लिए ही संभव है।
इसे इस प्रकार भी व्यक्त किया जा सकता है, कि रहस्य को समझना या वर्णित करना असंभव है। केवल उसे अनुभव किया जा सकता है।
इस तथ्य को हम सुसमाचारों में भी देखते हैं। सन्त मत्ती और लूकस प्रभु येसु के जन्म एवं बाल्यावस्था के बारे में वर्णन करते हैं जबकि सन्त मारकुस का सुसमाचार योहन बपतिस्ता के उपदेश से प्रारंभ होकर प्रभु के सार्वजनिक जीवन पर प्रकाश डालते हुए यह प्रमाणित करता है कि प्रभु ने मनुष्यों के बीच जन्म लिया।
स्पर्श अनुभव का एक महत्वपूर्ण तरीका है। प्रभु के स्पर्श मात्र से एक कोढ़ी व्यक्ति को स्वास्थ्य लाभ मिलता है (मारकुस 1:40-45)। कोढ़ी जिसे समाज अछूता मानता है, उसकी ओर प्रभु ने अपना हाथ बढ़ाकर यह कहते हुए उसे स्पर्श किया कि ‘शुद्ध हो जाओ’। अन्य सुसमाचार ऐसी घटना को प्रभु के शब्द मात्र से रोग मुक्त (चंगा) होना बताते है। सवाल यह है कि सन्त मारकुस ने स्पर्श को इतना महत्वपूर्ण क्यों समझा? क्योंकि सन्त मारकुस को यह मालुम था कि प्रभु येसु के जन्म के रहस्य को कितना ही वर्णित किया जाये, यह रहस्य ही रह जायेगा।
इसलिए उन्होंने प्रभु के मानव बनने के रहस्य को जन्म तथा बाल्यावस्था के वर्णन के द्वारा नहीं, बल्कि प्रभु के स्पर्श द्वारा लोगों के सामने प्रस्तुत किया। इसी कारण सन्त मारकुस का सुमाचार ‘द गॉस्पल ऑॅफ टच‘ अर्थात ‘स्पर्श का शुभ-सदेंश’ के नाम से भी जाना जाता है।
स्पर्श अनुभव का द्वितीय उदाहरण रक्त स्राव से पीड़ित एक महिला का है जिसने प्रभु येसु के वस्त्र के पल्ले का स्पर्श किया और ऐसा करते ही उनका रक्त स्राव रुक गया, वह पूर्णतः रोग मुक्त हो गई।
जैरूस ने अपनी बेटी को रोगमुक्त करने के लिये प्रभु येसु से करबद्ध होकर अनुनय-विनय की ‘‘हे प्रभु मेरी बेटी मरने पर है, आईए और उस पर अपना हाथ रखिए (उसे स्पर्श कीजिए) जिससे वह अच्छी हो जाये और जीवित रह सकें’’(मारकुस 5:23)। प्रभु द्वारा स्पर्श करते ही उसे स्वास्थ्य लाभ मिल गया।
रोटियों के चमत्कार में भी प्रभु ने रोटी हाथ में ली अर्थात् स्पर्श किया, धन्यवाद की प्रार्थना पढ़ी और अपने शिष्यों के हाथ में रोटी दे दी। शिष्यों ने पांच हज़ार से अधिक लोगों को खिलाया (मारकूस 6:30-44)। रोटी खाते वक्त लोगों को आंतरिक स्पर्श मिला।
सन्त थॉमस को अन्य शिष्यों के द्वारा पुनरूत्थित प्रभु येसु के दर्शन के विषय में बताए जाने पर वे इस तथ्य को मानने के लिए तैयार नहीं हुए। उन्होंने कहा, ‘‘जब तक मैं स्वयं अपनी उँगली क्रूसित प्रभु के बगल में न डाल दूँ, तब तक मेरे लिए यह तथ्य अविश्वसनीय है’’। तब प्रभु ने उन्हें दर्शन देकर कहा ‘‘अपनी उँगली यहाँ रखो। देखो-यह मेरे हाथ हैं, अपना हाथ बढ़ाकर मेरी बगल में डालो और अविश्वासी नहीं बल्कि विश्वासी बनो’’ (योहन 20:27)। इस तथ्य को दूसरे शब्दों में हम इस प्रकार भी समझ और समझा सकते हैं कि वास्तव में सन्त थॉमस ने अपने शिष्यों या मित्रों पर शंका या अविश्वास नहीं किया होगा अपितु अपने विश्वास को दृढ़ और मज़बूत करने के लिए प्रभु येसु के स्पर्श की आवश्यकता महसूस की होगी। स्पर्श के नवीन तथ्य के अनुभव ने सन्त थॉमस के जीवन को एक नया मोड़ दिया।
हमारे जीवन में प्रभु येसु के स्पर्श या अनुभव के बिना ख्रीस्त जंयती का रहस्य अर्थहीन रह जायेगा। हमें न सिर्फ प्रभु के स्पर्श का अनुभव करना है, बल्कि उस अनुभव को अपने कार्यों एवं वचनों द्वारा दूसरों को भी देना है, क्योंकि स्पर्श ही वास्तविकता है। लोग एक धार्मिक व्यक्ति के रूप में कभी-कभी हमारे अस्तित्व पर शंका करते हैं क्योंकि हम जिस व्यक्ति को अनुभव कर चुके हैं उन्हें दूसरों को अनुभव कराने में असमर्थ रहते हैं। कहा जाता है कि हज़ारों शब्दों से जिसे समझा नहीं जा सकता उसे एक स्पर्श से समझना या अभिव्यक्त करना अत्यंत सहज और सरल है।
ईश्वर ने मनुष्य को अपना अनुभव कराने के लिये यही तरीका चुना हैं। इसलिये संत योहन अपने पहले पत्र में स्पष्ट रूप से कहते हैं, ‘‘हमारा विषय वह शब्द है जो आदि से विद्यमान था। हमने उसे सुना हैं। हमने उसे अपनी आँखों से देखा हैं। हमने उसका अवलोकन किया और अपने हाथों से उसका स्पर्श किया हैं’’ (1 योहन 1:1)। आईये हम बेथलेहेम के गौशाले में जन्मे प्रभु येसु का अनुभव अपने दैनिक जीवन में दूसरों को दिलाने का दृढ़ संकल्प करें।