सफ़न्याह 3:14-18अ; फिलिप्पियों 4:4-7; लूकस 3:10-18
बाइबिल में हम प्रतीक्षा और उसकी पूर्ति तथा प्रतिज्ञा और उसका पालन पाते है। इस्राएली जनता की प्रतीक्षा का विवरण हमें पुराने व्यवस्थान में देखने को मिलता है तो उसकी पूर्ति का विवरण नये व्यवस्थान में। ईश्वर की प्रतिज्ञा का विवरण हम पुराने व्यवस्थान में पाते है तो उसके पालन का विवरण नये व्यवस्थान में। मुक्ति का इतिहास प्रतिज्ञा और पालन या प्रतीक्षा और पूर्ति का इतिहास है।
इस्राएली जनता जब मुक्तिदाता की प्रतीक्षा करती है तो वे जिज्ञासा के साथ उनके आगमन की बाट जोहते है। ईश्वर की प्रतिज्ञा के अनुसार जब मुक्तिदाता का आगमन होगा तब शांति और खुशी छायी रहेंगी। इसी का उल्लेख आज के पहले पाठ में हमें देखने को मिलता है। लेखक इस्राएल से अपने प्रभु और इस्राएल के राजा को उनके बीच में पाने पर खुशी मनाने को कहते हैं। जो खुशी ईश्वर दे सकते है वह कोई मनुष्य नहीं दे सकता। आनन्द और शांति ईश्वर की उपस्थिति के चिंह है। इसी कारण संत पौलुस फिलिप्पियों को लिखते हुये कहते है, ‘‘आप लोग प्रभु में हर समय प्रसन्न रहें। मैं फिर कहता हूँ प्रसन्न रहें।’’
मुक्तिदाता के आगमन से ईश्वर मानवजाति को आनन्द और शांति के वरदान देते हैं। बालक येसु के जन्म पर इसी सच्चाई को प्रकट करते हुये स्वर्गदूत कहते हैं, ‘‘सर्वोच्च स्वर्ग में ईश्वर की महिमा प्रकट हो और पृथ्वी पर उसके कृपापात्रों को शांति मिले!’’ (लूकस 2:14)।
मुक्ति निरंतर बहने वाली एक नदी की तरह है। अपनी प्यास बुझाने के लिये लोगों को नदी की ओर जाना, नदी से पानी निकालना तथा स्वयं पानी पीना पड़ता है। आपको यह कहावत भी याद होगी,‘‘कुआँ प्यासे के पास नहीं आता, बल्कि प्यासा कुएं के पास आता है।’’ ठीक इसी प्रकार ईश्वर अपनी कृपा बरसाते रहते है। परन्तु उसे ग्रहण करने के लिये मनुष्य की चेष्ठा की ज़रूरत है। उसे प्राप्त करने के लिये मनुष्य को प्रयत्न करना पड़ेगा। अपने जीवन में बदलाव लाना इस प्रयत्न का अभिन्न अंग है।
संत योहन बपतिस्ता मुक्तिदाता प्रभु येसु के आगमन की तैयारी कर रहें थे। उन्हें यह मालूम था कि मुक्तिदाता तथा मुक्ति को ग्रहण करने के लिये लोगों को अपने जीवन में परिवर्तन लाना चाहिये। यह परिवर्तन अलग-अलग लोगों से अलग-अलग अपेक्षाएं रखता हैं। इसलिये हर एक को पूछना पड़ता है, ‘‘तो हमें क्या करना चाहिये?’’
इस सवाल का जवाब ढुंढ़ने में संत योहन बपतिस्ता लोगों की मदद करते है जिसके पास दो कुरते हों उसे योहन एक कुरता उसे देने को कहते है जिसके पास नहीं है; इसी प्रकार भोजन भी। नाकेदारों को वे उनके लिये जो नियत है, उससे अधिक न लेने की तथा सैनिकों को अत्याचार न करने की सलाह देते हैं। संत योहन बपतिस्ता उन्हें समझाते हैं कि मुक्ति का अनुभव करने के लिये उन्हें मन-परिवर्तन की ज़रूरत है। पापों से छुटकारा ही मुक्ति का उदय है। जो ईश्वर के करीब आते है, उसे प्रभु पाप-मुक्त कर देते है। इसलिये स्तोत्रकार कहता है, ‘‘वह न तो हमारे पापों के अनुसार हमारे साथ व्यवहार करता और न हमारे अपराधों के अनुसार हमें दण्ड देता है। आकाष पृथ्वी के ऊपर जितना ऊँचा है, उतना महान् है अपने भक्तों के प्रति प्रभु का प्रेम। पूर्व पष्चिम से जितना दूर है, प्रभु हमारे पापों को हमसे उतना ही दूर कर देता है’’ (स्तोत्र 103:10-12)। आध्यात्मिक जीवन में अग्रसर होने के लिये हमें सबसे पहले अपने पापों को स्वीकार करना पड़ेगा। सूक्ति-ग्रंथ में लिखा है, ‘‘जो अपने पाप छिपाता, वह उन्नति नहीं करेगा; जो उन्हें प्रकट कर छोड़ देता, उस पर दया की जायेगी’’ (सूक्ति-ग्रंथ 28:13)। संत योहन अपने पहले पत्र में कहते है, ‘‘यदि हम अपने पाप स्वीकार करते हैं, तो वह हमारे पाप क्षमा करेगा और हमें हर अधर्म से शुद्ध करेगा; क्योंकि वह विश्वसनीय तथा सत्यप्रतिज्ञ है’’।
आगमनकाल में कलीसिया हमें प्रभु की निकटता का एहसास कराती है। प्रभु की निकटता के अनुभव के साथ-साथ हमें अपने पापों का एहसास भी होता है। प्रभु के आगमन का लक्ष्य ही हमें अपने पापों से छुटकारा दिलाना है। हमें भी संत योहन बपतिस्ता के श्रोताओं के समान अपने आप से पूछना चाहिये, ‘‘मुझे क्या करना चाहिये।’’ पुरोहितों, धर्मबहनों, माता-पिताओं, युवक-युवतियों, बालक-बालिकाओं, शिक्षकों, अफसरों, दुकानदारों, चालकों- सब को अपने आप के लिये इस सवाल का जवाब ढुंढ़ना चाहिये। हम में से हर एक व्यक्ति के लिये आज संत योहन बपतिस्ता के पास कोई न कोई सलाह ज़रूर है। बस हमें मन लगाकर उनकी सलाह पर ध्यान देना है।
हम मुक्ति के रहस्यों को मनाने के लिये यहाँ पर एकत्रित हुए है। हमें मुक्ति का एहसास तभी होगा जब हम अपने पापों को स्वीकारें और उन्हें छोड़कर ईश्वर का रास्ता अपनायें। तभी हम ईश्वर द्वारा प्रतिज्ञात आनन्द और शांति का अनुभव कर पायेंगे।