प्रज्ञा 2:12, 17-20; याकूब 3:16-4:3; मारकुस 9:30-37
प्रतियोगिता की इस दुनिया में, मनुष्य बड़े-बडे़ सपने सजाता, महान बनना चाहता, तथा कामयाबी हासिल करना चाहता है। वह अन्य लोगों से अधिक श्रेष्ठ जीवन यापन एवं आदर्श जीवन जीना चाहता है। ऐसा कौन सा व्यक्ति होगा, जो महान बनना नहीं चाहता, अपना नाम ऊँचा करना नहीं चाहता, अपनी ख्याति नहीं चाहता। प्रत्येक व्यक्ति यही चाहता है कि वह अपने कार्य क्षेत्र में चाही हुई ऊँचाई प्राप्त करे। सच तो यह है कि मानव स्वभाव व्यक्ति को सदैव उस ओर ले जाता है, जहाँ वह दूसरे लोगों से अलग दिख सके और महान लोगों की श्रेणी में खड़ा हो सके। इन्सान का जीवन प्रसन्नता से परिपूर्ण हो जाता है जब वह मन चाही मंजिल हासिल कर लेता है। मंजिल पाना इतना आसान नहीं होता, वरना धरती पर सारे लोग महानता की मंजिल को प्राप्त कर लेते। लोग महानता को प्राप्त करने के लिए बड़ी-बड़ी योजनाएं बना लेते है, लेकिन उनको कार्यान्वित करने के लिए, जिस परिश्रम की आवश्यकता होती है वह करने का साहस नहीं कर पाते। कई लोगों को अपनी योजनाएं आधी-अधूरी छोड़ना पड़ता है। एवरेस्ट की चोटी पर पहुँचने का लक्ष्य लेकर कितने लोग अपने घर से निकलते हैं! परन्तु बहुत ही कम लोग उस ऊँचाई तक पहुँच पाते हैं।
मनुष्य अपनी इच्छा की तीव्रता के अनुसार अपने लक्ष्य तक पहुँचने के रास्ते पर आगे बढ़ते हैं। अगर उसकी इच्छा-शक्ति कमज़ोर है तो वह बीच में छोड़ देता है। परन्तु जब उसकी इच्छा पक्की होती है चाहे कुछ भी हो जाये वह अपने लक्ष्य प्राप्ति का रास्ता नहीं छोड़ता। एवरेस्ट की चोटी की ओर अपने रास्ते में कई लोगों के जख्मी होने तथा मर जाने की खबर हम सुनते हैं। वे भी महान है क्योंकि मरने तक वे अपनी मंजिल की ओर यात्रा जारी रखते हैं। कई साल पहले अमेरिका के कनिकटिकट राज्य में सूर्य ग्रहण का अनुभव हुआ। अचानक सब जगह अंधेरा छा गया। चिडि़या अपने घोसलों में चली गयी। कई लोग अचानक यह सोचने लगे की न्याय का दिन आ गया है। उस समय हार्डफोर्ड में विधानसभा की बैठक हो रही थी। विधानसभा के कई सदस्य यह सोचने लगे कि न्याय का दिन आ गया है। उन्होंने कहा कि हम हमारी विचार-विमर्श तथा चर्चा बंद करके प्रार्थना में लगे रहे ताकि प्रभु से पापों की क्षमा माँग सके। परन्तु कर्नल डावनपोर्ट ने इस पर एतराज जताते हुए कहा, ’’हो सकता है कि न्याय का दिन आ गया है परन्तु इसके कारण हम अपने काम बंद नहीं करेंगे क्योंकि मैं चाहूँगा कि जब प्रभु आते हैं तो वे मुझे अपना कर्तव्य निभाते हुए पाये।’’
प्रभु येसु का लक्ष्य क्रूस पर अपने प्राण की आहुति देकर अपने पिता की इच्छा को पूरा करना था। वे हमेशा इसी में लगे हुए थे। जो भी बाधाएं उस रास्ते पर आयी उन्होंने उन सब बाधाओं का धैर्य के साथ सामना किया और वे क्रूस की ओर अपने रास्ते से कभी विचलित नहीं हुए। उन्होंने आने वाली प्राण पीड़ा तथा मृत्यु के बारे में अपने शिष्यों को बार-बार अवगत कराया। आज के सुसमाचार में हम देखते हैं कि प्रभु येसु शिष्यों के सामने अपने क्रूस मरण की भविष्यवाणी करते हैं लेकिन शिष्य यह बात समझ नहीं पाते हैं। उनकी चिंता बड़े बनने के बारे में है। वास्वत में वे पूरे रास्ते इसी विषय पर वाद-विवाद कर रहें थे। प्रभु उन्हें पास बुलाकर उन्हें समझाते हुए कहते हैं, ’’यदि कोई पहला होना चाहे तो वह सबसे पिछला और सबका सेवक बने’’। एक बालक को शिष्यों के बीच खड़ा करके और उसे गले लगाकर आगे कहते हैं जो मेरे नाम पर इन बालकों में से किसी एक का, वह मेरा स्वागत करता है और जो मेरा स्वागत करता है, वह मेरा नहीं बल्कि उसका स्वागत करता है, जिसने मुझे भेजा है’’। शिष्यों में से हरेक का बड़े बनने का सपना था। प्रभु उन्हें बड़े बनने का रास्ता बताते हैं। स्वर्गराज्य का यह विरोधाभास है कि सेवक मालिक बनता है। हम खोने से पाते हैं तथा मरने से जीते हैं। पाने की इच्छा से हम खोते हैं। हीरा पाने की इच्छा से मनुष्य अपनी सारी सम्पत्तिा बेच देता है। जितनी इच्छा-शक्ति है उतना ज्यादा वह प्रयत्न करता है। जिस चीज़ को वह पाना चाहता है अगर वह उसे मूल्यवान मानता है तब वह उसके लिये अपना सब कुछ दांव पर लगा देता है।
यह एक सोचनीए बात है कि हमारे समुदाय में कई लोग लक्ष्यहीन है। वे न तो किसी लक्ष्य की ओर यात्रा करते हैं और न ही यह चाहते हैं कि दूसरे लोग अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते रहे। वे बुरी आलोचना तथा षडयंत्र द्वारा लक्ष्य की ओर बढ़ने वाले अन्य लोगों को हतोसाहित करते हैं। इसी कारण लक्ष्य की ओर बढ़ने वालों की समस्याएं बढ़ जाती है। आज के पहले पाठ में हम सुनते हैं कि विधर्मीं मिलकर धर्मात्मा के लिए फंदा लगाने की योजना बनाते हैं। कई बार इस प्रकार की कठिनाई के सामने लक्ष्य की ओर बढ़ने वाले अपने लक्ष्य को छोड़कर विधर्मियों का मुकाबला करने में अपनी समय तथा ताकत गँवाते हैं फलस्वरूप विधर्मीं की योजना पूरी होती है और धर्मीं अपने लक्ष्य से चूक जाता है। प्रभु चाहते है कि जिस प्रकार वे स्वयं क्रूस की ओर अपनी यात्रा में हर प्रकार की बाधा को पार कर, सभी आलोचकों की अनदेखी कर, पूरी इच्छा-शक्ति तथा लगन के साथ आगे बढ़ते हैं, उसी प्रकार शिष्य भी स्वर्गराज्य में अपनी जगह सुरक्षित करने के लक्ष्य की ओर बढ़ते रहें। स्वर्गराज्य शिष्यों के बीच में ही है। स्वर्गराज्य येसु में निहित है। जो येसु का शिष्य बनता है वह स्वर्गराज्य का हकदार है। स्वर्गराज्य का स्वागत करने के लिए हमें बच्चों जैसा बनना है। बच्चों में कोई पूर्वाग्रह एवं दुराग्रह नहीं होता। बच्चे मासूम एवं निष्कलंक होते हैं। जब हम बच्चों का स्वागत करते हैं तो हम अपने उस मनोभाव को दर्शाते हैं जो निष्कलंकता से भरा है। जैसे संत याकूब आज के दूसरे पाठ में याद दिलाते हैं, ’’धार्मिकता शांति के क्षेत्र में बोयी जाती है और शांति स्थापित करने वाले उसका फल प्राप्त करते हैं’’। आइए हम निष्कलंकता के साथ स्वर्गराज्य में, न कि इस राज्य में अपना स्थान सुरक्षित करने का प्रयत्न करे।