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36.पास्का का सातवाँ इतवार

प्रेरित चरित 1:15-17,20अ,20स-26; 1 योहन 4:11-16; योहन 17:11ब-19

(फादर हैरीसन मार्कोस)


यह हमारा साधारण अनुभव है कि जब माता-पिता बुढ़ापे की ओर बढ़ते हैं तो वे अपने बच्चों के बारे में चिंतित रहते हैं। वे सोचने लगते हैं कि उनके चल बसने के बाद परिवार की क्या हालत होगी, बच्चे किस प्रकार परेशानियों तथा समस्याओं का सामना करेंगे? बच्चों के ऊपर क्या बीतेगी? इसी कारण वे अपने ही जीवनकाल में बच्चों के उज्जवल भविष्य के लिए धन इकट्ठा करते, रोजगार के अवसर ढूंढ़ते तथा बैंक के खातों में उनके नाम से पैसा जमा करते हैं। वे अपने बच्चों के लिए परमपिता ईश्वर से दुआ करना नहीं भूलते।

आज के सुसमाचार में हम देखते हैं कि प्रभु अपने शिष्यों के लिए प्राण पीड़ा तथा क्रूस मरण के पहले विशेष प्रार्थना करते हैं। सुसमाचार में प्रभु की कई प्रार्थनाओं का उल्लेख पाया जाता है। कई बार प्रभु निर्जन स्थान पर या पहाड़ी पर प्रार्थना करने जाते हैं। शायद प्रार्थना के समय जिन शब्दों का प्रभु ने उपयोग किया उन शब्दों को शिष्य भी सुन नहीं पाये थे। लेकिन प्रभु की कुछ प्रार्थनायें ऐसी है जो शिष्यों एवं अन्यों के द्वारा स्पष्ट रूप से सुनी गयी थी। लाज़रूस की कब्र के सामने जो प्रार्थना कही गयी थी उसे वहाँ एकत्रित लोगों ने सुनी। सुसमाचार में उल्लेखित प्रभु की प्रार्थनाओं में योहन 17 में दी गयी प्रार्थना सबसे लम्बी है। इसे महापुरोहित मसीह की प्रार्थना कहते हैं।

प्रभु का सुसमाचारिय कार्य उसकी समाप्ति तक पहुँच रहा था। उनके इस संसार से विदा लेने का समय निकट आ चुका था। जो कार्य उन्होंने शुरू किया था उसे पिता की इच्छा के अनुसार पृथ्वी के कोने-कोने तक तथा संसार के अंत तक जारी रखना था। उन्होंने यह जिम्मेदारी विशेष रीति से बारह प्रेरितों को सौंप दी थी। उनका कार्य आसान नहीं था। उन्हें सांसारिक शक्तियों से लड़ना पड़ेगा, दुनियावी विचारधाराओं का खण्डन करना पडे़गा, संसार के अधिपतियों के सामने भी निडर होकर सुसमाचार सुनाना पड़ेगा, अपने वचन तथा कर्म से सुसमाचार की प्रामाणिता को व्यक्त करना पडे़गा। येसु ने इस प्रकार की बड़ी जिम्मेदारी शिष्यों के कंधों पर रख दी थी। इसी संदर्भ में हमें आज के सुसमाचार को देखना चाहिए। प्रभु न केवल बारह प्रेरितों के लिए बल्कि भविष्य के सभी विश्वासियों के लिए प्रार्थना करते हैं। प्रभु का लक्ष्य अपने प्रेमी पिता को महिमांवित करना था। इसलिए वे पिता के कार्य को इस दुनिया में जारी रखने के लिए सभी विश्वासियों तथा सुसमाचार के सेवकों के लिए प्रार्थना करते हैं।

इस प्रार्थना में विश्वासियों की एकता को प्रभु बहुत महत्व देते हैं। वे कहते हैं, ’’उन्हें अपने नाम के सामर्थ्य से सुरक्षित रख जिससे वे हमारी ही तरह एक बने रहें’’। जब प्रभु शिष्यों के साथ रहते थे तब भी शिष्यों के बीच वाद-विवाद होता था, मतभेद सामने आते थे। उन अवसरों पर प्रभु ने उन्हें स्वर्गराज्य के मूल्यों के आधार पर समझाया और उन मतभेदों से ऊपर उठने में सहायता प्रदान की। प्रभु के चले जाने के बाद उन्हें एकता के लिए पवित्र आत्मा की बड़ी ज़रूरत होगी।

इस प्रार्थना में प्रभु प्रेरितों की आनन्द-प्राप्ति के लिए भी प्रार्थना करते हैं। स्वर्गराज्य का संदेश आनन्द का संदेश है। वे दुखियों को दिलासा, पीडि़तों को राहत तथा बंदियों को रिहाई की खबर सुनाते हैं। सुसमाचार को जो ग्रहण करते हैं वे हृदय में अनंत आनन्द का अनुभव करते हैं। सुसमाचार वाहक दुःखी नहीं हो सकता। दुःखी सुसमाचारवाहक एक विरोधाभास है। एक टीचर, वेल्डर या डॉक्टर दुःखी होने पर भी अपना काम कर सकता है। परन्तु प्रभु के सुसमाचार वाहक दुःखी होकर अपना कर्त्तव्य नहीं निभा सकते क्योंकि सुसमाचार आनन्द का समाचार है। इसी कारण प्रभु अपने शिष्यों के लिए परमपिता से आनन्द की कृपा माँगते हैं।

प्रभु के स्वर्ग चले जाने के बाद शिष्य अपने दायित्व को बड़ी जिम्मेदारी के साथ निभाते हैं। ईश्वरीय योजना के अनुसार बारह प्रेरित इस्राएल के बारह पूर्वजों का स्थान लेते हैं। इसी कारण प्रेरितों की संख्या यूदस के मृत्यु के कारण घट जाने पर उनकी जगह पर वे एक नये शिष्य के चुनाव करने का निर्णय लेते हैं। इसके लिए वे एक ऐसे व्यक्ति को ढूंढ़ते हैं जो योहन के बपतिस्मा से लेकर प्रभु के स्वर्गारोहण तक शिष्यों के साथ था। जब उनके सामने दो ऐसे व्यक्ति प्रस्तुत किये जाते हैं तो ईश्वर की इच्छा जानने के लिए प्रेरित चिट्ठी डालते हैं। इस प्रकार प्रेरित प्रारंभिक कलीसिया की गतिविधियों में ईश्वर की इच्छा को महत्व देते हैं। आज हमारी यह चुनौती है कि हम कलीसिया की सभी गतिविधियों में ईश्वर की इच्छा को सर्वोच्च स्थान देते हुए अपने सुसमाचार फैलाने के कार्य को जारी रखे।


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