प्रेरित-चरित 9:26-31; 1 योहन 3:18-24; योहन 15:1-8
येसु ने सुसमाचार के द्वारा इस बात पर जोर डाला कि विश्वासगण विश्वास के फल उत्पन्न करे। जो विश्वास के फल उत्पन्न करता है वह पिता को प्रिय होता है तथा ऐसे विश्वासियों को पिता और अधिक कृपा प्रदान करता है। ’’वह उस डाली को जो फलती है, छाँटता है। जिससे वह और भी अधिक फल उत्पन्न करें।’’(योहन 15:02) इस प्रकार पिता उन डालियों या लोगों को विभिन्न घटनाओं और परिस्थितियों के द्वारा और अधिक सक्षम एवं योग्य बनाता है। सेवक और आर्शिफियों के दृष्टांत (देखिए मत्ती 25:14-30) द्वारा येसु इस बात को पुनः दर्शाते है कि फल उत्पन्न करना विश्वासी का मूलभूत कर्तव्य है तथा ऐसे फलदायी विश्वासियों को और अधिक दिया जाता है। ’’क्योंकि जिसके पास कुछ है, उसी को और दिया जायेगा और उसके पास बहुत हो जायेगा, लेकिन जिसके पास कुछ नहीं है, उस से वह भी ले लिया जायेगा, जो उसके पास है।’’(मत्ती 25:29) इसी परिपेक्ष्य में ईसा फलहीन अंजीर के पेड़ को सूखा देते हैं क्योंकि उसमें पत्तियॉ तो थी लेकिन फल नहीं थे। (देखिए मारकुस 11:12-14) ईसा की ये बात यही दर्शाती है कि ईश्वर हम से सदैव फल की आशा करते हैं। इसके विपरीत यदि हम किसी भी कारणवश फल पैदा नहीं करते हैं तो यह बात ईश्वर को अप्रसन्न करती है तथा हमारे विनाश का कारण बनती है। तुम अधिक फल उत्पन्न करो और तुम्हारा फल बना रहे।
हमारे फलदायी होने का रहस्य इस बात में छिपा है कि हम पिता से संयुक्त रहे। पिता से संुयक्त रहकर ही हम जीवन में विश्वास के फल उत्पन्न कर सकते हैं। जब एक छः साल के बच्चे ने पहली बार समुद्र की लहरों को देखा तो वह बहुत रोमांचित हो गया। वह उन लहरों के साथ हमेशा के लिए रहना चाहता था किन्तु यह उसके लिए संभव नहीं था। इसलिए वह उन लहरों को एक बाल्टी में भर कर अपने साथ घर पर ले आया। किन्तु बाल्टी में लहरे नहीं थी। जिस प्रकार समुद्र का पानी समुद्र से अलग होकर लहरें पैदा नहीं कर सकता उसी प्रकार हरेक विश्वासी पिता परमेश्वर से दूर रहकर कुछ भी नहीं कर सकता है। ईश्वर की आशिष ही हमारे जीवन एवं कार्यों को सफलता प्रदान करती है। इसी सच्चाई को इंगित करते हुए स्तोत्रकार कहता है, ’’यदि प्रभु ही घर नहीं बनाये, तो राजमन्त्रियों का श्रम व्यर्थ है। यदि प्रभु ही नगर की रक्षा नहीं करे, तो पहरेदार व्यर्थ जागते हैं। 2) कठोर परिश्रम की रोटी खानेवालो! तुम व्यर्थ ही सबेरे जागते और देर से सोने जाते हो....’’ (स्तोत्र 127:1-2) प्रभु भी कहते हैं, ’’....जो मुझ में रहता है और मैं जिसमें रहता हूँ वही फलता है क्योंकि मुझ से अलग रहकर तुम कुछ भी नहीं कर सकते।’’ (योहन 15:5)
हम प्रभु के साथ किस प्रकार जुडे रहना चाहिए जिससे हम भी फलदायी बने तथा और अधिक फल पैदा करे। प्रभु से संयुक्त रहने के लिए हमें उनकी शिक्षाओं को आत्मसात कर उसके अनुसार अपने जीवन को ढालना चाहिए। बीज के दृष्टांत के द्वारा येसु इसी सच्चाई को प्रतिपादित करते हुए बताते हैं कि वही बीज फल उत्पन्न करता है जो अच्छी भूमि में गिरा हो। इसका तात्पर्य है कि बीज को फलदायी बनने के लिए उसका अच्छी भूमि में अकुरित होकर बढना अत्यंत आवश्यक है। ’’जो अच्छी भूमि में बोये गये हैं, ये वे लोग हैं, जो वचन सुनते हैं- उसे ग्रहण करते हैं और फल लाते हैं -कोई तीस गुना, कोई साठ गुना, कोई सौ गुना।’’(मारकुस 4:20)
जब हम अपनी इच्छाओं एवं सांसारिक बातों को केन्द्र में रखकर नहीं बल्कि ईश्वर की शिक्षा के अनुसार अपने जीवन का कार्यान्वन करते हैं तथा वचन से मार्गदर्शन पाकर जीवन के छोटे-बडे निर्णय लेते हैं। तब हमारे जीवन में अनेक बदलाव आते हैं। हमारा जीवन अधिक प्रज्ञावान तथा सच्चा बन जाता है। जिस जीवन का चित्रण स्तोत्रकार करते हैं वह हमारे जीवन की सच्चाई बन जाता है, ’’मैं तेरी शिक्षा का मनन किया करता हूँ, इसलिए मैं अपने शिक्षकों से अधिक बुद्धिमान् हूँ। मैंने तेरी आज्ञाओं का पालन किया है, इसलिए मैं वयोवृद्धों से अधिक विवेकशील हूँ। तेरे नियमों का पालन करने के लिए मैं कुमार्ग से दूर रहा हूँ। मैं तेरी आज्ञाओं के मार्ग से नहीं भटका हूँ, क्योंकि तूने स्वयं मुझे शिक्षा दी है। मुँह में टपकने वाले मधु की अपेक्षा तेरी शिक्षा मेरे लिए अधिक मधुर है। तेरी आज्ञाओं से मुझे विवेक मिला, इसलिए मैं असत्य के मार्ग से घृणा करता हूँ। तेरी शिक्षा मुझे ज्योति प्रदान करती और मेरा पथ आलोकित करती है।’’ (स्तोत्र 119:99-105)
हमें भी अपने जीवन में ख्रीस्तीय विश्वास एवं सुसमाचारिय शिक्षा को जीना चाहिए जिससे हमारे स्वर्गिक पिता को माहिमा प्राप्त हो।