प्रेरित-चरित 9:26-31; 1 योहन 3:18-24; योहन 15:1-8
“जो मुझ में रहता है और मैं जिस में रहता हूँ वही बहुत फलता है; क्योंकि मुझ से अलग रह कर तुम कुछ भी नहीं कर सकते ”(योहन 15:5)।
प्रतिदिन प्रातःकाल, नींद से जागकर घर से बाहर निकलते ही हमें अनेक सृष्ट वस्तुयें एवं जीव-जन्तु देखने को मिलते हैं, जैसे आकाश, सूरज, पेड़, पैाधे, फल, फूल, गाय, बैल, बकरा इत्यादि। इन अद्भुत सृष्ट वस्तुओं एवं जीव-जन्तुओं को देखकर हमारे मन में ज़रूर एक सवाल उठता होगा कि इनकी सृष्टि किसने की है? इस सवाल का जवाब हर ईसाई जानता है कि ईश्वर ने प्रारम्भ में एक शब्द मात्र द्वारा इन सब की सृष्टि की है। ईश्वर सब कुछ अस्तित्व में लाये और स्वयं उन्हें सम्भालते हैं। उदाहरण के लिये चिडि़यों को लीजिए। चिडि़या अपना घोंसला कितनी अक्ल से बनाती है। उसको अक्ल कौन देता है? ईश्वर। संत मत्ती के अनुसार पवित्र सुसमाचार 6:26, में वचन कहता है ”आकाश के पक्षी न तो बोते हैं न लुनते हैं और न बखार में जमा करते हैं, तो भी तुम्हारा स्वर्गिक पिता उन्हें खिलाता है। क्या तुम उनसे बड़कर नही हो?“
हमारे खाने के लिए धान कौन देता है? ईश्वर देते हैं। इसी तरह कपड़ा बनाने के लिये कपास, मलने के लिये तेल, साँस लेने के लिये वायु, प्यास बुझाने के लिये पानी, ये सब चीजें ईश्वर का दान है। वे ही हमें पानी और नमक, धान और दाल देते हैं।
कहने का तात्पर्य यह है कि, परमेश्वर ने हम सबों को अपने प्रतिरूप बनाया है और वे हमारी रक्षा भी करते हैं। उन्होंने हमारे जीवन को सजाया है। हमारे साथ हर पल रहने के लिये अपने ही एकलौते पुत्र प्रभु येसु ख्रीस्त को इस धरती पर भेजा है जिससे हम मानव येसु के साथ रहकर अपने जीवन में ईश्वर के प्रेम को अनुभव कर सकें। वे अच्छा जीवन व्यतीत करने के लिये हमें पवित्र वचनों के द्वारा समझाते हैं। वे हमारे साथ हर पल रहकर हमारे पापों को क्षमा करते हुए पवित्र मार्ग अपनाने के लिये हमारी अगुवाई करते हैं। लेकिन सवाल है कि क्या हम ईश्वर को हमारे जीवन में पहचानते हैं? हम जो हैं और हमारा जो कुछ भी हैं वे सब ईश्वर का दान है। क्या हम थोड़ी देर के लिये भी अपनी प्राणवायु अथवा साँस बन्द कर जी सकते हैं? मनुष्य की उत्पत्ति के समय, प्रभु ने धरती की मिट्टी से मनुष्य को गढ़ा और उसके नथनों में प्राणवायु फ़ूँक दी (उत्पत्ति ग्रन्थ 2:7)। इस प्रकार प्राणवायु हमारे अस्तित्व के लिये ईश्वर से प्राप्त एक अनमोल वरदान है। परन्तु क्या हम ईश्वर में लीन होकर उनको अपने जीवन में स्थान देते हैं?
एक महिला बहुत गरीब थी। उसके पति ने भी उसे छोड़ दिया था। आजीविका का कोई सहारा उसके पास नहीं दिखता था। जब उसका मुकदमा अदालत में चल रहा था तो जज ने पूछा, ’’श्रीमती जी, क्या आपके पास गुज़ारे का कोई साधन है’’? उस महिला ने कहा, ’’श्रीमानजी, सच पूछिये तो मेरे पास तीन साधन हैं’’। ’’तीन?’’ जज साहब ने पूछा। तब महिला बोली, ’’जी हाँ, एक नहीं तीन। मेरे हाथ, मेरी अच्छी सेहत और मेरा ईश्वर।
इस महिला की आत्म-निर्भरता, उसका स्वावलंबन और ईश्वर पर उसका विश्वास हमारे लिये मिसाल बन सकते हैं। उस महिला को ईश्वर का अनुभव प्राप्त हुआ था। इसलिए वह विश्वास के साथ बड़ी खुशी से कह सकती थी कि ईश्वर उसके साथ हैं। कहा जाता है कि सचमुच ईश्वर उनकी मदद करते हैं जो ईश्वर की राहों पर चलकर उनके साथ जुडे़ रहते हैं जैसे दाखलता का तना और उसकी डालियाँ। स्तोत्र ग्रन्थ 53:3 कहता है, ”ईश्वर यह जानने के लिये स्वर्ग से मनुष्यों पर दृष्टि दौड़ाता है कि उन में कोई बुद्धिमान हो जो ईश्वर की खोज में लगा रहता हो“।
प्रभु येसु भी पापी मनुष्यों की खोज में इस धरती पर मानव रूप लेकर आए जिससे वे हमारे साथ एक संग रहकर हमें मुक्ति दिला सकें। परन्तु मनुष्य उनसे दूर भागने लगे एवं उनके विरुद्ध काम भी करने लगे जैसे कि संत पौलुस। हम सब जानते हैं की संत पौलुस का पुराना नाम साऊल था और वह किस प्रकार का जीवन बिताता था। पुनर्जीवित प्रभु येसु ने उससे पूछा, “साऊल! साऊल! तुम मुझ पर क्यों अत्याचार करते हो” (प्रेरित चरित 9:4)। यह प्रभावशाली वाणी और आगे की घटना, साऊल को पौलुस में बदल कर प्रभु येसु का अनुयायी बना देती है।
आज के पहले पाठ में हमने सुना की साऊल येरुसालेम पहुँचकर शिष्यों के समुदाय में सम्मिलित हो जाने की कोशिश करते हैं। क्योंकि वे सचमुच प्रभु येसु के शिष्य बनकर रहना चाहते थे और येसु के साथ रहने के लिये उन्होंने न केवल अपने नाम में बल्कि अपने पूरे जीवन में परिवर्तन लाया। इस बात का साक्षी है पवित्र ग्रन्थ। येसु के साथ रहना कितना अच्छा है! और उसे हमारे जीवन में संत पौलुस के समान पहचानना कितनी अद्भुत बात है। किसी ने ठीक ही कहा है कि, जिस व्यक्ति ने ख्रीस्त में, ख्रीस्त का अनुसरण और अनुकरण करने में तथा ख्रीस्त में आगे बढ़ने में अपने जीवन का पूर्ण अर्थ या लक्ष्य पाया है वही ख्रीस्तीय है।
आज के सुसमाचार में येसु कहते हैं, ’’मैं दाखलता हूँ और तुम डालियाँ हों’’। अर्थात दाखलता का तना स्वयं ख्रीस्त हैं और हम लोग उनकी डालियाँ। तने से अलग होकर डालियाँ मर जाती हैं। ठीक उसी प्रकार पुनर्जीवित प्रभु येसु के बिना ख्रीस्तीय का विश्वास व्यर्थ है। आगे सुसमाचार में येसु कहते हैं, ’’जो मुझ में रहता है और मैं जिस में रहता हूँ वही फलता है क्योंकि मुझ से अलग रहकर तुम कुछ भी नहीं कर सकते।’’ अर्थात चाहे जितना छोटा भी कार्य हो हमें येसु की कृपा की ओर हमारा मन आकर्षित करना चाहिए।
लीमा की संत रोज़ ने, जो कि दक्षिण अमेरिका की एक आदिवासी बालिका थीं, बचपन से ही येसु को पहचान लिया था। वे येसु से अकसर बातचीत किया करती थी। लेकिन लीमा पढ़ाई में कमजोर थी। जब वह चार वर्ष की थी तब उसकी माँ ने उसे कुछ कठोर वचनों से डाँटा। यह सुनकर उसे अच्छा नहीं लगा। अपनी माता के कठोर वचनों को सुनकर उसका चेहरा उदास पड़ गया था। फिर लीमा ने येसु से प्रार्थना की, ’’हे मेरे येसु! देखिए, मेरी माँ कहती है कि जमीन खोदना उतना बुरा नहीं, जितना तुम्हें पढ़ाना। मैं आप के पास अपनी पाठ्य-पुस्तक लाई हूँ। जब आप पृथ्वी पर थे तब आपने मृतकों को जीवित किया और अनेकों महान कार्य किये। क्या अब आप एक छोटा-सा कार्य मेरे लिये नहीं कर सकते हैं? मुझे पढ़ना सिखाइए।’’
लीमा की संत रोज की यह घटना हमें बताती है कि प्रभु येसु से अलग होकर हम कुछ भी कार्य नहीं कर सकते हैं क्योंकि हम ईश्वर के मन्दिर हैं और ईश्वर का आत्मा हमारे शरीर में निवास करता है। जैसे संत पौलुस कुरिन्थियों को लिखते हुए कहते हैं, “क्या आप यह नहीं जानते कि आप ईश्वर के मन्दिर हैं और ईश्वर का आत्मा आप में निवास करता है” ( 1 कुरिन्थियों 3:16)। हमें महसूस ज़रूर होना चाहिये कि जो भी काम हम करते है वह हम प्रभु येसु की शक्ति एवं पावन आत्मा की प्रेरणा से ही करते हैं। हम किसी के पूछने पर कि यह काम किसने किया? अक्सर कहते हैं, मैंने किया। लेकिन हर ख्रीस्तीय को कहना चाहिये कि ईश्वर की कृपा से उनके द्वारा प्राप्त वरदान से यह काम मैंने पूरा किया। तब हम, जो येसु के विश्वासी हैं येसु से कह सकते है, हाँ प्रभु हम आप की डालियाँ हैं और हम आप में रहना चाहते हैं।
प्रभु येसु में रहने का अर्थ यह भी होता है कि उनके द्वारा सिखाई गयी शिक्षायें एवं आज्ञाओं का पालन करना, उनका सही अर्थ समझकर जीवन बिताना। आज के दूसरे पाठ के द्वारा संत योहन भी कहते हैं, ”बच्चों! हम वचन से, कर्म से मुख से नहीं, हृदय से एक-दूसरे को प्यार करें। इसी से हम जान जायेंगे कि हम सत्य की सन्तान हैं और हम उस से जो कुछ माँगेंगे, हमें वही प्रदान करेगा“ (1 योहन 3:18)।
आइए, हम दैनिक जीवन को प्रार्थनामय बनाकर येसु के करीब जायें, उन्हीं में रहें ओर अधिक फलें।