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20. चालीसे का पहला इतवार_2018

उत्पत्ति 9:8-15; 1 पेत्रुस 3:18-22; मारकुस 1:12-15

फादर रोनाल्ड वाँन


ईश्वर का प्रेम मनुष्य के लिए सदैव बना रहता है। हालॉकि हम अपने पापमय जीवन के द्वारा ईश्वर के कोप का पात्र बनते हैं किन्तु वह दण्ड हमारे सुधार के लिए होता है। यह सुधार हमें अंनत मृत्यु से बचाने के लिए होता है। ईश्वर नूह से अपनी चिरस्थायी शांति और मुक्ति की प्रतिज्ञा करते हैं। ईश्वर उसे एक चिन्ह प्रदान करते हैं जो उन्हें इस विधान का स्मरण दिलाएगा कि ईश्वर मनुष्य का विनाश अब नहीं करेगा। प्रभु येसु द्वारा ईश्वर के राज्य की घोषणा इस मुक्ति की योजना की परिपूर्णता थी।

हमारे आम जीवन का यह साधारण सत्य है कि यदि शुद्ध जल को किसी गंदे पात्र में डाला जाये तो पात्र की गंदगी सारे जल की शुद्धता को नष्ट कर देती है। इसलिये जल की शुद्धता के पूर्ण उपयोग के लिए पात्र को भी साफ-सुथरा होना चाहिए। सुसमाचार के वरदान और हमारे जीवन के पाप लगभग शुद्ध जल एवं गंदे पात्र के समान है। इसलिये येसु ईश्वर के राज्य के आगमन की घोषणा करने के साथ-साथ ही पश्चाताप की शर्त भी जोड देते हैं। ईश्वरीय वरदानों को योग्य रीति से ग्रहण करने के लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि हम पश्चाताप एवं विश्वास के द्वारा अपने आप को साफ-सुथरा बनाये। इसके लिए हम यह स्वीकार करें कि हम पापी हैं तथा हमें सुधार या बदलाव की आवश्यकता है। अपने पापों पर पश्चाताप कर, अपने पापमय जीवन का त्याग कर, हमें स्वयं को ईशराज्य के वरदानों को योग्य रीति से ग्रहण करने के लिए प्रस्तुत करना चाहिए। बिना सदाचरण के कोई भी प्रभु की कृपाओं को योग्य रीति से ग्रहण नहीं कर सकता।

इसलिये स्तोत्रकार भी पूछते है कि कौन प्रभु की कृपा को योग्य रीति से ग्रहण कर सकता है, “प्रभु के पर्वत पर कौन चढ़ेगा? उसके मन्दिर में कौन रह पायेगा? वही, जिसके हाथ निर्दोष और हृदय निर्मल है, जिसका मन असार संसार में नहीं रमता जो शपथ खा कर धोखा नहीं देता। प्रभु की आशिष उसे प्राप्त होगी, मुक्तिदाता ईश्वर उसे धार्मिक मानेगा। ऐसे ही हैं वे लोग, जो प्रभु की खोज में लगे रहते हैं, जो याकूब के ईश्वर के दर्शनों के लिए तरसते हैं।’’ (स्तोत्र 24:3-6) तो स्तोत्रकार भी यह मानते हैं कि व्यक्ति की निर्दोषता एवं हृदय की निर्मलता ईश्वरीय कृपा प्राप्त करने के लिए अत्यंत आवश्यक है। एफेसियों के नाम पत्र में संत पौलुस चेतावनी देते हुये कहते हैं, “आप लोग यह निश्चित रूप से जान लें कि कोई व्याभिचारी, लम्पट या लोभी - जो मूर्तिपूजक के बराबर है- मसीह और ईश्वर के राज्य का अधिकारी नहीं होगा। (एफेसियों 5:5) प्रज्ञा ग्रंथ अध्याय 1 पद संख्या 4-5 इसी सत्य को दोहराते हुए कहता है, “प्रज्ञा उस आत्मा में प्रवेश नहीं करती, जो बुराई की बातें सोचती है और उस शरीर में निवास नहीं करती, जो पाप के अधीन है, क्योंकि शिक्षा प्रदान करने वाला पवित्र आत्मा छल-कपट से घृणा करता है। वह मूर्खतापूर्ण विचारों को तुच्छ समझता और अन्याय से अलग रहता है।’’

येसु यह जानते हैं कि हम अपने पुराने पापमय स्वाभाव को धारण कर स्वर्गराज्य के वरदानों को ग्रहण नहीं कर सकते हैं। “’कोई पुराने कपड़े पर कोरे कपड़े का पैबन्द नहीं लगाता। नहीं तो नया पैबन्द सिकुड़ कर पुराना कपड़ा फाड़ देता है और चीर बढ़ जाती है। कोई पुरानी मशकों में नयी अंगूरी नहीं भरता। नहीं तो अंगूरी मशकों फाड़ देती है और अंगूरी तथा मशकें, बरबाद हो जाती हैं। नयी अंगूरी को नयी मशको में भरना चाहिए।’’(मारकुस 2:21-22) हमें नयी शिक्षा को नये हृदय से ग्रहण करना चाहिए, ईश्वर के राज्य को नये हृदय एवं विचारधारा के साथ ग्रहण करना चाहिए।

ईश्वर निनीवे के लोगों को पश्चाताप का संदेश भेजते हैं। निनीवे के लोग प्रभु के संदेश के अनुसार पश्चाताप करते हैं तथा उनकी कृपा को ग्रहण करते हैं।

ईश्वर किस प्रकार का पश्चाताप चाहते हैं? अपने पापों को स्वीकारना तथा उन पर दुखित होकर उन्हें दुबारा नहीं करने का प्रण लेना। यह वह ’दुःख’ होता है जो ईश्वर की इच्छानुसार स्वीकार किया जाता है यह हमारे दिलों में पश्चाताप उत्पन्न करता है जो मुक्ति की ओर ले जाता है। ईश्वरीय दुःख से तात्पर्य वह दुःख है जो हमें तब होता है जब हम सोचते हैं कि हमारे पापों के कारण ईश्वर को दुःख पहुँचता है। हम पवित्र ईश्वर की शिक्षा पर ध्यान देते हैं तथा पापों के भयंकर परिणामों को सोचकर प्रभु के पास लौटते हैं तथा ईश्वर से क्षमा तथा चंगाई की भीख मांगते हैं। मन की ऐसी भावनाओं को हम ईश्वरीय दुःख कहते हैं। पश्चाताप का केंद्रीय बिन्दु ईश्वर तथा पापों से ईश्वर को लगा दुःख होता है। इस पश्चाताप को समझाते हुए संत पौलुस लिखते हैं, “मुझे इसलिए प्रसन्नता नहीं कि आप लोगों को दुःख हुआ, बल्कि इसलिए कि उस दुःख के कारण आपका हृदय-परिवर्तन हुआ। आप लोगों ने उस दुःख को ईश्वर की इच्छानुसार स्वीकार किया.... क्योंकि जो दुःख ईश्वर की इच्छानुसार स्वीकार किया जाता है, उस से ऐसा कल्याणकारी हृदय-परिवर्तन होता है कि खेद का प्रश्न ही नहीं उठता। संसार के दुःख से मृत्यु उत्पन्न होती है। आप देखते हैं कि आपने जो दुःख ईश्वर की इच्छानुसार स्वीकार किया, उस से आप में कितनी चिन्ता उत्पन्न हुई, अपनी सफाई देने की कितनी तत्परता, कितना क्रोध, कितनी आशंका, कितनी अभिलाषा, न्याय करने के लिए कितना उत्साह! इस प्रकार आपने इस मामले में हर तरह से निर्दोष होने का प्रमाण दिया है।’’(2 कुरिन्थियों 7: 9-11)

लोग योहन बपतिस्ता से पूछते थे कि वे उन्हें किस प्रकार का पश्चाताप करना चाहिये। “जनता उस से पूछती थी, ’’तो हमें क्या करना चाहिए?’’ वह उन्हें उत्तर देता था, ’’जिसके पास दो कुरते हों, वह एक उसे दे दे, जिसके पास नहीं है और जिसके पास भोजन है, वह भी ऐसा ही करे’’। नाकेदार भी बपतिस्मा ग्रहण करते थे और उस से यह पूछते थे, ’’गुरुवर! हमें क्या करना चाहिए?’’ वह उन से कहता था, ’’जितना तुम्हारे लिये नियत है, उस से अधिक मत माँगों’’। सैनिक भी उस से पूछते थे, ’’और हमें क्या करना चाहिए?’’ वह उन से कहता था, ’’किसी पर अत्याचार मत करो, किसी पर झूठा दोष मत लगाओ और अपने वेतन से सन्तुष्ट रहो’’। (लूकस 3:10-14)

येसु भी इसी प्रकार पश्चाताप तथा हदय परिवर्तन चाहते हैं। प्रभु ईसा स्वर्गराज्य की घोषणा करके हमें महान भविष्य के दर्शन कराते हैं। वे हमें विश्वास दिलाते हैं कि हम कितने भी बुरे एवं पापी क्यों न हो हमारे लिए स्वर्गराज्य प्राप्त करने की संभावना बनी रहती है। इस प्रकार येसु हमें यही सिखलाते हैं कि यह जरूरी नहीं कि हम क्या हैं बल्कि हमें सोचना चाहिए कि ’हम येसु की शिक्षा पर चलकर क्या बन सकते हैं’। येसु के समय जो स्वयं को पापी समझकर पश्चात करते थे प्रभु उनको स्वर्ग राज्य का वरदान देते थे किन्तु जो अपनी धार्मिक हठधर्मिता में मग्न थे उनके बचने की कोई उम्मीद नहीं दिख पडती थी। क्योंकि वे नहीं समझते थे कि उनको बदलाव की आवश्यकता है। “ईसा ने उन से कहा, ’’मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ- नाकेदार और वैश्याएँ तुम लोगों से पहले ईश्वर के राज्य में प्रवेश करेंगे। योहन तुम्हें धार्मिकता का मार्ग दिखाने आया और तुम लोगों ने उस पर विश्वास नहीं किया, परंतु नाकेदारों और वेश्यायों ने उस पर विश्वास किया। यह देख कर तुम्हें बाद में भी पश्चात्ताप नहीं हुआ और तुम लोगों ने उस पर विश्वास नहीं किया।” (मत्ती 21:31-32)

नबी ऐजेकिएल भी पापियों को आशा दिलाते हुये कहते हैं कि यदि वे अपने जीवन को पापमय मार्गों का त्याग कर ईश्वरीय मार्ग को अपनाये तो यह उनके लिए एक नूतन जीवन की शुरूआत होगी, “प्रभु-ईश्वर यह कहता हैं अपने अस्तित्व की शपथ! मुझे दुष्ट की मृत्यु से प्रसन्नता नहीं होती, बल्कि इस से होती है कि दुष्ट अपना कुमार्ग छोड़ दे और जीवित रहे। अपना दुराचरण छोड़ दो,... यद्यपि मैं दुष्ट से यह कहता हूँ, ’तुम अवश्य मरोगे’, फिर भी यदि वह कुमार्ग छोड़ देता और न्याय और सत्य का आचरण करता है, यदि दुष्ट बन्धक लौटा देता, लूटा हुआ सामान वापस कर देता, जीवन प्रदान करने वाले नियमों का पालन करता और पाप का परित्याग करता है, तो वह निश्चय ही जीवित रहेगा, वह नहीं मरेगा। उसके द्वारा किये गये पापों में से किसी को भी याद नहीं रखा जायेगा। उसने न्याय और सत्य का आचरण किया हैय वह अवश्य जीवित रहेगा।’ (ऐजेकिएल 33:11,14-16)

आइये हम भी ईश्वर से पश्चाताप का वरदान मॉगे, सच्चा पश्चाताप करें तथा ईश्वर के वरदानों को ग्रहण करने के लिए स्वयं को प्रस्तुत करें।


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