ईश्वर ने हमें जो प्रतिभा दी है, उसका सही रूप से उपयोग करने से येसु के पुनरागमन पर ‘‘शाबाश भले और ईमानदार सेवक! तुम थोड़े में ईमानदार रहे मैं तुम्हें बहुत पर नियुक्त करूँगा, अपने स्वामी के आनन्द के सहभागी बनो,‘‘ ऐसी अंतिम विधि हम सुन पायेंगे। अपने जीवन को धन्य करने को आज के सुसमाचार द्वारा प्रभु येसु हमसे कहते हैं। प्रभु येसु ‘अशर्फियों के दृष्टांत‘ द्वारा यह शिक्षा देते हैं कि ईश्वर की ओर से मनुष्य को जो वरदान मिले हैं, उसे जीवन के अंत में उन सबका लेखा देना पड़ेगा। इस दृष्टांत के बारे में चिंतन करते समय हमारे मन में यही विचार आता है कि ईश्वर हमारे मालिक हैं। किसी भी चीज़ के बारे में ’मेरी’ या ‘मेरा‘ बोलने का हमें कोई हक नहीं है। यहाँ ऐसा कुछ भी नहीं है जो वास्तव में ’मेरा’ है, सब ईश्वर का दान है। मेरा जीवन, मेरी सुंदरता, मेरा स्वास्थ्य, धन, नौकरी, कला-संस्कृति, माता-पिता, भाई-बहन, बीबी-बच्चें, स्कूल, मंदिर आदि सब ईश्वर के दान हैं। ईश्वर ही इन सबका मालिक हैं। हम ऐसा नहीं कह सकते कि मैं अपनी इच्छा से जीऊँगा क्योंकि ईश्वर ही हमारे मालिक हैं।
अगर हम मानते हैं कि ईश्वर ही हमारे मालिक हैं और हम उनके दास, तो ईश्वर द्वारा दी गई अशर्फियों का हमें सदुपयोग करना चाहिए। आज के पहले पाठ में हमने सुना कि हम अपनी योग्यता के अनुसार अपने कर्त्तव्यों का पालन करके ईश्वर की सेवा करें। दूसरे पाठ में संत पौलुस हमें याद दिलाते हैं कि बपतिस्मा संस्कार द्वारा हम ईश्वरीय संतान बन जाते हैं और हमें ईश्वरीय सान्निध्य में अपना कार्य करके जीना चाहिये।
संत मत्ती ने प्रभु येसु द्वारा बताये हुए एक दृष्टान्त को हमारे सामने आज के सुसमाचार में प्रस्तुत किया है। इस दृष्टान्त में दो व्यक्ति अपने मालिक से मिले हुए रुपयों का सही उपयोग करते हैं लेकिन तीसरा व्यक्ति मालिक से मिली हुई एक हजार अशर्फियों को भूमि खोदकर उसमें छिपा देता है और अपने मालिक की शिकायत कर समय निकालता है। वह कहता है कि मालिक कठोर हैं, वे जहाँ बोते नहीं वहाँ लूनते हैं, जहाँ बिखेरते नहीं, वहाँ बटोरते हैं। लेकिन जिन सेवकों ने अपने मालिक से तीन हजार और पाँच हजार अशर्फियाँ प्राप्त की थी, उन्होंने उस पूँजी को सही जगह लगाकर उसे दो गुना बढ़ाया और अपने मालिक के सच्चे सेवक बने। मालिक ने उन दोनों सेवकों को अधिक सम्पत्ति का अधिकारी बनाया।
असलियत में कौन था कठोर व्यक्ति? कौन है वह जो वहाँ लुनने की कोषिश करता है जहाँ उसने नहीं बोया था, वहाँ बटोरने की कोषिश करता है जहाँ उसने नहीं बिखेरा था? वही जिसने एक हजार अशर्फियाँ ज़मीन में छुपायी थी। हम भी बहुत बार ऐसा ही करते हैं। हम कई बार ईश्वर द्वारा दिये हुये दान का सही उपयोग नहीं करते और अपनी गलतियों को दूसरों के ऊपर डालकर अपने कर्त्तव्यों से मुँह मोड़ लेते हैं। हम ऐसा सोचते हैं कि जो दूसरों के पास है यदि वह मेरे पास होता तो मैं भी बहुत कुछ कर सकता था। हमें ऐसा नहीं सोचना चाहिए। ईश्वर ने हमें जो अशर्फियाँ दी हैं उनका सही उपयोग कर हमें अपने कर्त्तव्यों को निभाते हुए अपनी प्रतिभाओं को बढ़ाना चाहिए।
सन् 1964 के एक सुहावने दिन में न्यूयार्क के ‘मूर आन्ट अजिस्बारी स्टोर‘ में एक मोची का दरिद्र बालक पहुँचा और वहाँ के मालिक को थोड़े से पैसे देकर अपनी माँ के जन्मदिन के लिये कुछ उपहार खरीदना चाहा। लेकिन उस स्टोर के मालिक ने उसे चिल्लाकर वहाँ से भगा दिया। वह बालक अपनी आसूँ भरी आँखों से उस स्टोर के बाहर कुछ समय तक खड़ा रहा और उसने अपने मन में कहा, ’’मैं एक दिन ऐसे ही बड़े स्टोर का मालिक बनूँगा’’। कुछ साल बीत गए। उसने एक छोटी-सी दुकान डाली। वहाँ दस-दस रुपयों का सामान मिलता था। जो कठिनाईयाँ उसके सामने आई, उन सभी को धीरे-धीरे पार करते हुए वह सफलता की सीढ़ियों पर चढ़ता रहा। नेपोलियन का जीवन उसके लिए प्रेरणास्रोत था। उसी ने विश्व का प्रसिद्ध वूलवर्थ स्टोर और एम्पायर स्टेट जो 101 मंजिला और 1240 फिट ऊँचे थे बनाये। जिस स्टोर से उसे निकाल दिया था, वह स्टोर भी उसने खरीदा। यह सब करने वाले उस व्यक्ति का नाम था - फ्रेन्क वूलवर्थ। प्रयत्न और कोशिश किसी भी व्यक्ति को जीवन की ऊँचाईयों तक पहुँचा सकती है। इसलिये हम जीवन में कभी निराश न होकर हमेशा ईश्वर में भरोसा रखकर अपने कर्त्तव्यों को पूरा करें, जो हमारे पास है उसका सही उपयोग करें।
मैं बहुत दुःखी था, क्योंकि मेरे पास चप्पल नहीं थी, जब मैंने गली में बिना पैर वाला व्यक्ति देखा तो मेरा दुःख दूर हो गया। हर व्यक्ति के जीवन में दुःख, संकट और कठिनाईयाँ आती है और ईश्वर ने उन सबसे पार होने के लिये हमें बुद्धि और शक्ति दी है। इसलिये जो हमारे पास है उसी में हमें संतुष्ट होकर अपना कार्य करना चाहिये। जो प्रतिभाएं ईश्वर ने हमें दी है उसका सही उपयोग करके उन प्रतिभाओं को बढ़ाने के लिये कोशिश करें। तब ईश्वर अपने प्रत्यागमन के समय हमसे यह कहेंगे-‘‘शाबाश भले और ईमानदार सेवक! तुम थोड़े में ईमानदार रहे, मैं तुम्हें बहुत पर नियुक्त करूँगा। अपने स्वामी के आनन्द के सहयोगी बनो।‘‘
हम कैसे ईश्वर द्वारा मिले हुए दानों का उपयोग कर सकते हैं? हम न केवल अपनी उन्नति के लिये बल्कि अपने समाज के लिये व अपने राष्ट्र के लिये अपनी प्रतिभाओं का उपयोग करें। तभी व्यक्ति बढ़ेगा, समाज बढ़ेगा और राष्ट्र बढ़ेगा। इस रास्ते पर जो कठिनाईयाँ आएं, उसे सच्चे मन से स्वीकार करें। हम काँच के समान न बने जो हथौड़ी लगने से टूट जाता है। हमें स्टील के समान बनना चाहिये, जो हथौड़ी लगने पर एक नया रूप ले लेता है। जब लोग हमारी आलोचना करें तब हम निराश न होकर उसे सही रूप से स्वीकार कर अपनी गलतियों को सुधारने का प्रयत्न करें।
अगर एक आर्कस्ट्रा ग्रुप का कोई सदस्य संचालक की न सुनकर, अपने उपकरण की आवाज़ बढ़ाकर बजाने लगे, तो गाने की ताल और स्वर बिगड़ जाएगा और संगीत सभा का संचालन सही रूप से नहीं हो पाएगा। यदि संचालक के आदेशों को स्वीकार कर सभी अपनी-अपनी भूमिका निभाएं तो ही संगीत सभा सही रूप से चल पाएगी।
हम भी आर्कस्ट्रा के अंग जैसे हैं। हमें भी ईश्वर को अपने जीवन का संचालक मानकर अपनी प्रतिभाओं का ईश्वर की इच्छा के अनुसार सेवाभाव से उपयोग करना चाहिए। हम इस पृथ्वी पर अपने सेवाभाव और प्रेमभाव से अपने समाज को स्वर्ग बनाने में सहयोग दें। ईश्वर के प्रत्यागमन में हम अपने आपको यह सुनने के लिये तैयार करें, ‘‘शाबाश भले और ईमानदार सेवक! तुम थोड़े में ईमानदार रहे मैं तुम्हें बहुत पर नियुक्त करूँगा। अपने स्वामी के आनन्द के सहयोगी बनो।‘‘ इन शब्दों को सुनने के लिये हम अपने मिले हुए सभी वरदानों को ईश्वरीय हित के लिये उपयोग करें।