चक्र अ के प्रवचन

वर्ष का तीसवाँ इतवार

पाठ: निर्गमन 22:20-26; 1 थेसलनीकियों 1:5स-10; मत्ती 22:34-40

प्रवाचक: फ़ादर डेन्नीस तिग्गा


जो इस जीवन के यथार्थ एवं क्षणभंगुरता को समझता है, वह व्यक्ति आने वाले जीवन या अनंत जीवन के लिए जरूर तत्पर रहता है। मत्ती 19 में हम ऐसे ही एक महत्त्वाकांक्षी युवक जिसने धन कमाया था, अनन्त जीवन की प्राप्ति के लिए प्रभु के पास आता है और यह सवाल करता है, ‘‘गुरुवर! अनन्त जीवन प्राप्त करने के लिए मैं कौन सा भला कार्य करूँ?’’ (मत्ती 19:16) प्रभु येसु उससे कहते हैं, ‘‘यदि तुम जीवन में प्रवेश करना चाहते हो, तो आज्ञाओं का पालन करो।’’ (मत्ती 19:17)। अर्थात् आज्ञाओं का पालन करना हम सबके लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है। जो प्रभु की आज्ञाओं का पालन करता हैं उसे आर्शीवाद प्राप्त होता है। ‘‘प्रभु की जो आज्ञाएँ मैं आज तुम्हारे सामने रख रहा हूँ, यदि तुम उनका पालन करोगे, तो तुम्हें आर्शीवाद प्राप्त होगा’’ (विधि 11:27)। ‘‘यदि तुम प्रभु, अपने ईश्वर की वाणी पर ध्यान दोगे और उन सब आदेशों का पालन करोगे, जिन्हें मैं आज तुम को दे रहा हूँ। तो वह तुम्हें पृथ्वी भर के राष्ट्रों से महान् बनायेगा। यदि तुम प्रभु, अपने ईश्वर की वाणी पर ध्यान दोगे, तो ये सब वरदान तुम को मिलेंगे और तुम्हारा साथ देते रहेंगे। नगर में तुम्हारा कल्याण होगा और देहात में तुम्हारा कल्याण होगा। तुम्हारी सन्तान, तुम्हारी भूमि की उपज, तुम्हारे पशुधन, तुम्हारी गायों और भेड़-बकरियों के बच्चों को आशीर्वाद प्राप्त होगा। तुम्हारी टोकरी और आटा गूँधने के पात्र को आशीर्वाद प्राप्त होगा। घर से बाहर जाने पर, दोनों यमय तुम्हें आशीर्वाद प्राप्त होगा। प्रभु तुम्हारा विरोध करने वाले शत्रओं को पराजित करेगा। वे एक मार्ग से तुम पर आक्रमण करने आयेंगे, परन्तु तुम्हारे सामने से हो कर सात मार्गों से भग निकलेंगे। प्रभु तुम को तुमहारे भण्डारो और तुम्हारे सब कार्यों में आशीर्वाद देता रहेगा। प्रभु, तुम्हारा ईश्वर तुम्हें उस देश में आशीर्वाद देता रहेगा, जिसे वह तुम्हें प्रदान करने वाला है। यदि तुम प्रभु, अपने ईश्वर की आज्ञाओं का पालन करते हुए उसके बताये मार्गों पर चलोगे, तो प्रभु तुम को अपनी पवित्र प्रजा बनायेगा, जैसी कि उसने तुम से शपथपूर्वक प्रतिज्ञा की है.......तो तुम्हारी अवनति नहीं, बल्कि उन्नति होती रहेगी।’’ (विधि विवरण 28:1-16) इतने सारे आशीर्वाद मात्र ईश्वर की आज्ञाओ का पालन करने से है। अब सवाल यह उठता है कि कौन सी आज्ञा सबसे महत्वपूर्ण है। आज के सुसमाचार में प्रभु येसु बताते हैं कि पूरी संहिता में सब से बड़ी आज्ञा कौन सी है जिसका हमे पालन करना चाहिए।

प्रभु येसु सबसे बड़ी आज्ञा के विषय में बताते हैं- ‘‘अपने प्रभु-ईश्वर को अपने सारे हृदय, अपनी सारी आत्मा और अपनी सारी बुद्धि से प्यार करो और अपने पड़ोसी को अपने समान प्यार करो’’ (मत्ती 22:37,39)। अर्थात् सबसे पहली आज्ञा का मतलब प्रभु ईश्वर को अपनी जिन्दगी में प्रथम स्थान देना - हर क्षेत्र में, हर कार्य में, अपनी पूरी जिन्दगी में। और फिर अपने पड़ोसियों को अपने समान समझना है।

इन दो आज्ञाओ में समस्त संहिता और नबियों की शिक्षा अवलंबित है। अर्थात् इन दो आज्ञाओ में हमारा जीवन टिका हुआ है। ये दो आज्ञाएं हमारे जीवन का स्तम्भ है। यह किस प्रकार से यह हमारे जीवन का स्तम्भ है, आईये इस बात पर मनन-चिंतन करें।

अगर कोई व्यक्ति किसी चीज़ का अविष्कार करता है तो वह कई वर्षों से रिसर्च करता है और उस खोज से जुडी हर एक बात पर बारीकियों से ध्यान देता है। अर्थात् जो व्यक्ति किसी भी यंत्र का निर्माण करता है तो वह उसकी छोटी से छोटी चीज़ों तथा उसकी प्रत्येक अच्छाई-बुराई से अच्छी तरह परिचित होता है। ठीक उसी प्रकार ईश्वर ने हम सभी को बनाया है और यह जीवन दिया हैं और वे हमारी अच्छाई और बुराई के बारे में सब जानते हैं। ‘‘माता के गर्भ में तुम को रचने से पहले ही, मैंने तुम को जान लिया’’ (यिरमियाह 1:5)। ‘‘प्रभु! तूने मेरी थाह ली है; तू मुझे जानता है। तूने मेरे शरीर की सृष्टि की; तूने माता के गर्भ में मुझे गढ़ा। जब मैं अदृश्य में बन रहा था, जब मैं गर्भ के अन्धकार में गढ़ा जा रहा था, तो तूने मेरी हड्डियों को बढ़ते देखा। तूने मेरे सब कर्मों को देखा’’ (स्तोत्र 139:1,13,15-16)। ईश्वर को अच्छी तरह मालूम है कि हमारा जीवन किस प्रकार से चलना चाहिए। ईश्वर इसे भली भांति जानते हैं। ‘‘मैं तुम्हारे लिए निर्धारित अपनी योजनाएँ जानता हूँ- तुम्हारे हित की योजनाएँ, अहित की नहीं, तुम्हारे लिए आशामय भविष्य की योजनाएँ’’ (यिरमियाह 29:11)। हमारे जीवन को सही रूप से या अच्छे रूप से चलने के लिए उन्होंने हमारे लिए मूसा द्वारा हमें दस नियम दिये हैं। कुछ लोगों ने इसको समझा और अपनाया परन्तु कुछ ने इन्हें अस्वीकार किया। बाद में प्रभु येसु ने इन दस नियमों को सरलता प्रदान करते हुए इन्हें दो नियमों में संयोजित कर दिया। इन दो नियमों में बाकी सब नियम समाहित है और अगर हम मात्र इन दो नियमों या आज्ञाओं का पालन करेंगे तो हमारे जीवन अर्थपूर्ण रूप से चलने लगेगे और जितने भी आशीर्वाद विधि विवरण ग्रंथ में बताये गये है वे हमें प्राप्त होंगे और हमें अनन्त जीवन की प्राप्ति में मदद मिलेगी।

ईश्वर से प्रेम और पड़ोसी से प्रेम एक दूसरे के पूरक हैं। जो व्यक्ति ईश्वर से प्रेम करता है वह दूसरों से भी उसी प्रकार से प्रेम करेगा। ‘‘मेरी आज्ञा यह है- जिस प्रकार मैंने तुम लोगो को प्यार किया है, उसी प्रकार तुम भी एक दूसरे को प्यार करो’’ (योहन 15:12)। अर्थात् जो ईश्वर से सच्चा प्रेम करता और उनकी आज्ञाओं का पालन करता है तो वह ज़रूर दूसरो से भी उसी प्रकार प्रेम करेगा। अगर वह ईश्वर के सामने भक्त बना रहता है पूजा पाठ करता है परंतु अपने पड़ोसियो से प्रेम नहीं करता तो उसका प्रेम झूठा है। ‘‘यदि वह अपने भाई को, जिसे वह देखता है, प्यार नहीं करता, तो वह ईश्वर को, जिसे उसने कभी देखा नहीं, प्यार नहीं कर सकता।’’ (1 योहन 4:20)। ऐसे लोगो के लिए प्रभु येसु कहते हैं, ‘‘ढ़ोंगियो! इसायस ने यह कह कर तुम्हारे विषय में ठीक ही भविष्यवाणी की है- वे लोग मुख से मेरा आदर करते हैं, परन्तु इनका ह्दय मुझ से दूर है।’’ (मत्ती 15:7-8)। परन्तु जो ईश्वर से सच्चा प्रेम करता वह इस प्रेम को दूसरों को बॉंटने के लिए दौड़ता है जिस प्रकार मरियम पवित्र आत्मा के प्रेम से प्रेरित होकर एलिजबेथ की सेवा करने के लिए शीघ्रता से चल पड़ती है (लूकस 1:39)। समारी स्त्री ईश्वर के पुत्र और उनके प्रेम को पहचान कर दूसरों को उस मसीहा तथा उनके प्रेम को देखने को बुलाती है (योहन 4:28-29)। कलकत्ता की संत तेरेसा प्रभु येसु से इतना प्रेम करती है कि वह दूसरे में येसु को पाकर उन मनुष्यों से भी उतना ही प्रेम करती हैं। अगर हम सबसे पहली आज्ञा का सच्चे रूप में पालन करने लगेंगे तो हम में ईश्वर का निवास होगा। ‘‘यदि कोई मुझे प्यार करेगा, तो वह मेरी शिक्षा पर चलेगा। मेरा पिता उसे प्यार करेगा और हम उसके पास आ कर उस में निवास करेंगे’’ (योहन 14:23)। “और उस समय हम यह कह सकेंगे कि ‘‘मैं अब जीवित नहीं रहा, बल्कि मसीह मुझ में जीवित हैं’’ (गलातियों 4:20)। और इसके साथ साथ हम दूसरों में ईश्वर के रूप को देख सकेंगे। ‘‘मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ - तुमने मेरे इन भाइयों में से किसी एक के लिए, चाहे वह कितना ही छोटा क्यों न हो, जो कुछ किया, वह तुमने मेरे लिए ही किया’’(मत्ती 25:40)।


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