"मै बलिदान नहीं, बल्कि दया चाहता हूँ। मैं धर्मियों को नहीं पापियों को बुलाने आया हूँ।" (मत्ती 9:13) इस वचन के द्वारा प्रभु येसु उन लोगों के लिए द्वार खोलते हैं जो अपने जीवन को अर्थहीन और निराशा पूर्ण समझते हैं। यह वचन उन सभी लोगो के लिए जो पाप के कारण हताश और निराश है, एक आशा का दीप हैं। आज का सुसमाचार हमें इस ओर इंगित भी करता है। आज के सुसमाचार में हम फरीसियों और पापियों पर आधारित एक उत्तम और सुंदर दृष्टांत को पाते हैं। पिता की आज्ञा या इच्छा और उसका पालन - इसके आधार पर यहाँ पर चार प्रतिक्रिया संभव हैं। पहला - जो पिता की आज्ञा सुनता तथा उसका ईमानदारी से पालन करता है, दूसरा - जो सुनता परंतु पालन नहीं करता है, तीसरा - जो नहीं सुनता परंतु बाद में जाकर पालन करता है और चौथा - जो नही सुनता और पालन भी नहीं करता हैं। प्रभु येसु ने महायाजक और जनता के नेताओं के मन की बात जानकर, पापियों के प्रति उनकी भावना, उनकी झूठी धार्मिकता और अपश्चात्तापी हृदय को देखकर दूसरे और तीसरे प्रकार की प्रतिक्रिया को प्रकट किया है।
आइये हम इस दूसरी और तीसरी प्रतिक्रियाओं पर मनन चिंतन करें। बेटा पिता को ’हाँ’ तो कहता है परंतु उसके विपरीत कार्य करता है। आदम और हेवा के विषय में जानते हैं कि ईश्वर ने उनसे कहा था, “'तुम वाटिका के सभी वृक्षों के फल खा सकते हो, किन्तु भले-बुरे के ज्ञान के वृक्ष का फल नहीं खाना; क्योंकि जिस दिन तुम उसका फल खाओगे, तुम अवश्य मर जाओगे'' (उत्पत्ति 2:16-17)। समूएल के पुत्र योएल और अबीया को न्यायकर्ता के पद पर नियुक्त किया गया था परन्तु वे “अपने पिता के मार्ग का अनुसरण नहीं करते थे। वे लोभ में पड़ कर घूस लेते और न्याय भ्रष्ट कर देते थे’’ (2 समूएल 8:3)। नबी योना को निनीवे जा कर वहाँ के लोगों को उपदेश देने को कहा गया परंतु पहली बार में उसने विपरीत कार्य किया। अनानीयस और सफीरा (प्रेरित-चरित 5) को विश्वासियों के समुदाय के अनुसार अपनी सम्पत्ति बेचकर पूरी कीमत प्रेरितों के चरणों में रखनी थी परंतु उन्होने एक अंश अपने पास रख लिया। इन सभी के जीवन में ईश्वर द्वारा या लोगो के माध्यम से ईश्वर द्वारा आज्ञा मिली थी परंतु लोभ या प्रलोभन या किसी कारणवश वे विपरीत कार्य करते हैं और उनके जीवन में भारी दुःख, संकट या परेशानियाँ आ जाती हैं।
एक बेटा पिता को न कहकर बाद में पश्चात्ताप करता है और उस कार्य को पूरा करता है। बाइबिल में हम निनीवे के लोगो को पाते हैं जिन्होने पश्चात्ताप किया और कुमार्ग छोड़ दिये (योना 3:5-10)। राजा दाउद ने अपने गलत कार्य पर पश्चात्ताप किया। पेत्रुस ने अपने अस्वीकार पर आँसू बहाकर पश्चाताप किया (लूकस 22:62)। येसु के साथ क्रूसित डाकू अपने पापो के प्रति पश्चाताप करता है और अपने लिए स्वर्ग का रास्ता सुनिश्चित कर लेता है (लूकस 23:40-43)। इन सभी ने अपने पापों के प्रति पश्चात्ताप किया और अपने जीवन में बदलाव लाया और इस कार्य के फलस्वरूप इन्हें जीवन में आनंद, शांति और मुक्ति मिली।
पश्चात्ताप हम सभी के लिए एक वरदान है क्योंकि हम सब पापी हैं। ‘‘कोई भी धार्मिक नहीं रहा - एक भी नहीं; कोई भी समझदार नहीं; ईश्वर की खोज में लगा रहने वाला कोई नहीं! सभी भटक गये, सब समान रूप से भ्रष्ट हो गये हैं। कोई भी भलाई नहीं करता - एक भी नहीं।’’ (रोमियो 3:10-12)। पश्चात्ताप प्रभु येसु का अपने मिशन कार्य का सबसे पहला उपदेश है। ‘‘समय पूरा हो चुका है। ईश्वर का राज्य निकठ आ गया है। पश्चात्ताप करो और सुसमाचार में विश्वास करो’’(मारकुस 1:15)। इससे पता चलता है पश्चात्ताप हमारे जीवन में इतना महत्वपूर्ण क्यों हैं। पश्चात्तापी हृदय के फलस्वरूप एक पापी संत बन सकता है तथा उसको एक नया जीवन मिल सकता है, परंतु अपश्चात्तापी ह्दय के कारण एक संत पापी बन सकता है तथा वह मृत्यु की ओर ले जा सकता है। ‘‘यदि कोई भला मनुष्य अपनी धार्मिकता त्याग कर अधर्म करने लगता और मर जाता है, तो वह अपने पाप के कारण मर जाता है। और यदि कोई पापी अपना पापमय जीवन त्याग कर धार्मिकता और न्याय के पथ पर चलने लगता है, तो वह अपने जीवन को सुरक्षित रखेगा।’’ (एज़ेकिएल 18:26-27)
आज का सुसमाचार हमें प्रेरित करता है कि हम सदैव ईश्वर की इच्छा को पूरी करें क्योंकि ‘‘जो लोग मुझे ‘प्रभु! प्रभु! कह कर पुकारते हैं, उन में सब के सब स्वर्ग राज्य में प्रवेश नहीं करेंगे। जो मेरे स्वर्गिक पिता की इच्छा पूरी करता है, वही स्वर्गराज्य में प्रवेश करेगा’’ (मत्ती 7:21)। और यदि हम भटक जाए तो ‘‘प्रभु यह कहता है - अपने वस्त्र फाड़ कर नहीं, बल्कि ह्दय से पश्चात्ताप करो और अपने प्रभु-ईश्वर के पास लौट जाओे’’ (योएल 2:13) क्योकि ‘‘एक पश्चात्तापी पापी के लिए स्वर्ग में अधिक आनन्द मनाया जायेगा’’ (लूकस 15:9)।