किसी कवि ने कहा है कि सुख के सब साथ चलेंगे तथा दुःख में सब मुँह मोडेंगे। जब आप खुश होंगे तो लोग आपके पास आयेंगे, आप दुःखी होंगे तो वे आँखें चुरायेंगे। वे आपकी सारी खुशियाँ बाँटना चाहेंगे, मगर उन्हें आपका दुःख नहीं चाहिए। अगर आप खुश हैं तो आपके बहुत सारे दोस्त होंगे, आपके दुःखी होने पर वे आपसे किनारा कर लेंगे। आपके सुखी समय में मधुरतम पेय को कोई नहीं नकारेगा, मगर जिंदगी के कड़वे घूँट आपको अकेले ही पीने पडेंगे।
आज का दौर आधुनिकता का युग है। इस वैज्ञानिक युग में टी.वी., पत्रिका तथा समाचार पत्रों में विविध प्रकार के विज्ञापन दिये जा रहे हैं। जो हमारे दिलों-दिमाग को लुभाते हैं। ये चंद मिनटों में और साथ ही साथ कम समय में, कम खर्च में हर प्रकार की सुख-सुविधाएं, शांति उपलब्ध या मुहैया कराने के लिये ग्यारण्टी देते हैं। लेकिन ये सब नश्वर सुख हैं। मनुष्य अपने अंतर में छिपी चेतना में सबसे अनभिज्ञ रहकर दुःख-सुख के भँवर में फँस जाता और पिसता रहता है। वह अवास्तविकता के पीछे भागता है। लेकिन वास्तव में दुःख-सुख की यही परिभाषा है। यह हमारी मनोदशा का प्रतिफल है।
लेकिन आज के सुसमाचार में हम एक ऐसे व्यक्ति को पाते हैं जो एक अनूठा विज्ञापन पेश करते है। ’’दुःख लो, सुख पाओ। अपना क्रूस उठा लो और जीवन पाओ। अपना जीवन दो और अमर बनो।’’ दुःख के बिना जीवन नहीं है। संसार दुःखों की खान है। इस बात को नकारा नहीं जा सकता। जीवन में कितना सौन्दर्य है और मनुष्य कितना अंधा है। जीवन में कितना आनन्द है और मनुष्य कितना संवेदनशून्य है। हम दुःख से बच नहीं सकते हैं। हमारे दुःखों और परेशानियों का कारण हमारा आत्मनिर्भर न होना है। हमें दुःख का सामना करना ही पड़ेगा। हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि दुःख की प्रत्येक काली घटा के पीछे आशा का सूर्य भी सदा चमकता है। क्योंकि दुःख ही जीत और उन्नति का पहला कदम है।
आज प्रभु येसु क्रूस के द्वारा अमर जीवन, सच्चा सुख-षांति देने की बात करते हैं। सचमुच हम क्रूस को देखते ही यह सोचने लगते हैं कि- क्रूस अपमान का चिह्न है। क्रूस जान लेने का उपकरण है। क्रूस कत्ल करने वाला औज़ार है। क्रूस दुःख का प्रतीक है। क्रूस हार का चिह्न है। क्रूस मृत्यु का साधन है।
अक्सर क्रूस के बारे में हमारे यही विचार होते हैं। क्योंकि प्रभु येसु इसी क्रूस पर अपमानित हुए थे। दोनों चोरों के बीच में असंख्य दुखों का सामना करते हुए, अपना जीवन खोकर उन्हें अपने प्राण खोने पडे़। इसलिये हम अपना-अपना क्रूस उठाना नहीं चाहते हैं। दूसरों को क्रूस देना चाहते हैं परन्तु स्वयं पाना नहीं चाहते हैं।
मुकाबला कड़ा और परिस्थितियाँ खराब हो तो दुःख-तकलीफ, गरीबी रूपी क्रूस का सामना करने के लिये हम कतई तैयार नहीं हैं। हम सब एक दूसरे पेत्रुस बन कर जी रहे हैं। वक्त की रफ्तार के साथ कदम से कदम मिलाते हुए इतने आगे निकल आये हैं कि न चाहते हुए भी अपने से उबर नहीं पाते हैं।
आज के सुसमाचार में हम यही दृष्य को देखते हैं। ’’मुझे येरुसालेम जाना होगा। नेताओं, महायाजकों तथा शास्त्रियों की ओर से बहुत दुःख उठाना, मार डाला जाना व तीसरे दिन जी उठना होगा’’ (मत्ती 16:21-27)। लेकिन पेत्रुस इस संदेश को स्वीकार नहीं करना चाहते थे। वे कहने लगे, ’’ईश्वर ऐसा न करे। प्रभु! यह आप पर कभी नहीं बीतेगी।’’ येसु तुरन्त पेत्रुस को डाँटते हुए कहते हैं कि तुम ईश्वर की नहीं बल्कि मनुष्य की बातें सोचते हो।
ईश्वर से भिन्नता की भावना ही हमारी समस्त चिंताओं का मूल कारण है। स्वयं को ईश्वर से अलग मानकर ही मनुष्य संसार में स्वयं को अकेला, असुरक्षित और असहाय पाता है। जो ईश्वर को सदा अपने समीप महसूस करता है, वह सभी दुष्कर्मों से बचा रहता है।
मनुष्य की सोच में क्रूस अपमान का प्रतीक है लेकिन प्रभु ने उसे महिमा का चिह्न बनाया है। प्रभु येसु ने उस हार के प्रतीक को पुनरुत्थान द्वारा विजय का चिह्न बनाया है। इसलिये संत पौलुस कहते हैं, ’’हे मृत्यु तेरी विजय कहाँ है?’’
सच तो यह है कि आँधी-तूफान के बाद ही शांति आती है, अंधेरे के बाद रोशनी, दुःख के बाद सुख आता है। जिस प्रकार बारिश और धूप दोनों के मिलने से इन्द्रधनुष बनता है हमारा जीवन भी इससे अलग नहीं है। इसमें खुशियाँ और गम, अच्छाई और बुराई, अंधेरा और उजाला हैं। अगर हम मुष्किलों का सामना करते हैं तो इससे हम मजबूत बनते हैं।
हम निराश होकर टूट जाते हैं। लेकिन चींटी के व्यवहार से हमें सीख लेना चाहिये जो बार-बार दीवार पर चढ़ने के प्रयास में गिरती है और फिर अपने प्रयास में जुट जाती है और मंजिल तक पहुँच जीत हासिल करती है। ठीक इसी प्रकार क्रूस के बाद ही जीत या विजय, महिमा तथा सुख शंाति आती है।
यदि क्रूस नहीं है, तो पुनरुत्थान नहीं है। क्रूस नहीं है, तो येसु नहीं है। क्रूस नहीं है, तो जीवन नहीं है। क्रूस नहीं है, तो शिष्य नहीं है। शिष्य को गुरू की राह पर चलकर, गुरू की सेवा करना चाहिये। लेकिन प्रभु येसु ने गुरू होकर भी शिष्यों की सेवा की तथा मानव जाति के लिये अपने प्राण दिये। उसी प्रकार हम में से हर एक व्यक्ति को भी येसु के समान अपने भाई-बहनों के लिये अपना क्रूस उठाकर दूसरों को सुख-षांति प्रदान करना चाहिये। इसलिये प्रभु कहते हैं, ’’जो मेरा अनुसरण करना चाहता है वह आत्म त्याग करें और अपना क्रूस उठाकर मेरे पीछे हो ले’’ (मत्ती 16:29)। इससे हमें यह सीख मिलती है कि प्रभु येसु के शिष्य क्रूस से बचकर शिष्य बनकर नहीं रह सकते हैं।
एक बार एक व्यक्ति अपनी परछाई से बचना चाहता था, यहाँ तक की अपनी परछाई को देखना तक नहीं चाहता था। इसलिये उसने कई तरीकों को अपनाया। वह चारों दिशाओं में दौड़ने लगा, हर प्रकार के जतन करने पर भी इस कार्य में उसे सफलता नहीं मिली। अन्त में वह व्यक्ति एक मुनि के पास गया और जाकर अपनी समस्या का समाधान ढूँढ़ने लगा। मुनि ने मुस्कुराते हुए कहा, ’’बेटा तुम जाकर किसी बड़े पेड़ की छाया में खड़े हो जाओ सब ठीक हो जायेगा’’। उसने इसी प्रकार किया जैसे मुनि ने उसे बताया था। उसकी परछाई गायब हो गयी। यदि हम भी दुख रूपी परछाई से बचना चाहते हैं तो प्रभु येसु के क्रूस की छाया में जाकर शरण लें। तब हमारा दुख सुख में बदल जायेगा। हार-जीत में परिवर्तित हो जायेगी, अपमान महिमा में बदलेगा। क्योंकि क्रूस की छाया हमारे जीवन की शरण तथा आसरा है। क्रूस की छाया हमारी जिंदगी का कवच है जो हमें सदैव सुख-षांति प्रदान करता है और प्रदान करता रहेगा। क्योंकि क्रूस का फल हमारी मुक्ति है जिसे ईश्वर ने हमें दी है। उसी क्रूस के द्वारा हमें मुक्ति और विजय मिली है। इसलिये पुण्य शुक्रवार के दिन क्रूस की उपासना करते हुए उसका हम चुम्बन करते हैं, न सिर्फ क्रूस को बल्कि उसमें टंगे प्रभु येसु का चुम्बन करते हैं। यह चुम्बन एक साधारण परम्परा मात्र न रह जाये, मगर हमारे अपने दैनिक जीवन के क्रूस को खुशी से आलिंगन करने की दृढ़ प्रतिज्ञा का संकेत हो।