प्रभु येसु ने अपने जीवन काल में शिष्यों को शिक्षा दी, उनके साथ समय बिताया, उनके विश्वास को दृढ़ बनाया तथा अपने दुखभोग, मरण तथा पुनरुत्थान के बारे में उन्हें समझाया ताकि शिष्य भविष्य में निडर हो कर दृढ़तापूर्वक ईश्वर के राज्य की घोषणा कर सकें।
आज के सुसमाचार में हम देखते हैं कि प्रभु शिष्यों की परीक्षा लेते हैं। वे जानना चाहते हैं कि शिष्यों ने इतने वर्षों में क्या सीखा, क्या समझा और क्या अनुभव किया। इसलिए प्रभु येसु अपने शिष्यों से प्रश्न करते हैं कि ’मैं कौन हूँ’ इस विषय में लोग क्या कहते हैं। तुरन्त ही वे उन्हें बताने लगते हैं कि कुछ लोग आपको योहन बपतिस्ता, कुछ एलियस, कुछ यिरमियाह और कुछ नबियों में से कोई कहते हैं। फिर वे उनसे एक व्यक्तिगत प्रश्न करने लगते हैं कि तुम क्या कहते हो कि मैं कौन हूँ। इसका उत्तर देने में शिष्य सोच में पड जाते हैं। सिर्फ पेत्रुस उत्तर देते हैं, “आप मसीह हैं, आप जीवन्त ईश्वर के पुत्र हैं।”
पवित्र बाइबिल में हमें पढ़ने को मिलता है कि लोगों ने अपने अनुभव के आधार पर प्रभु येसु के बारे में कुछ न कुछ कहा। जैसे फरीसियों ने उन्हें बढई का बेटा माना, समारी स्त्री ने उन्हें नबी कहा और निकोदेमुस ने उन्हें गुरू तथा इस्राएल का राजा कहा। इस प्रकार अलग-अलग लोगों ने अपने-अपने अनुभव के आधार पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की।
आज प्रभु येसु हम से भी व्यक्तिगत प्रश्न करते हैं कि तुम क्या कहते हो कि मैं कौन हूँ? हम सब इस प्रश्न का जवाब अपने ख्रीस्तीय जीवन के अनुभव के द्वारा ही दे सकते हैं। हम सबों के उत्तर शायद भिन्न-भिन्न होंगे। किसी के लिए वे चंगाईदाता हैं, तो किसी के लिए शांतिदाता या दयासागर, प्रेमी पिता या मित्र । अगर किसी व्यक्ति ने अपने जीवन में येसु को करीब से अनुभव नहीं किया हो, तो उसके लिए इस प्रश्न का जवाब देना असंभव है।
जब पेत्रुस ने कहा, “आप मसीह हैं, आप जीवन्त ईश्वर के पुत्र हैं” तब येसु पेत्रुस से कहते हैं, “सिमोन, योनस के पुत्र, तुम धन्य हो, क्योंकि किसी निरे मनुष्य ने नहीं, बल्कि मेरे स्वर्गिक पिता ने तुम पर यह प्रकट किया है”। इसका यह मतलब है कि जब तक ईश्वर अपने आप को प्रकट नहीं करते हैं, तब तक हम उन्हें नहीं जान सकते हैं।
आज के पहले पाठ में संत पौलुस कहते हैं, “कितना अगाध है ईश्वर का वैभव, प्रज्ञा और ज्ञान! कितने दुर्बोध हैं उसके निर्णय! कितने रहस्यमय हैं उसके मार्ग! प्रभु का मन कौन जान सका?” (रोमियों 11:33-34)
हालाँकि हम ईश्वर का अनुभव कर सकते हैं और उस अनुभव के आधार पर उन के विषय में कुछ न कुछ कह सकते हैं, वह सब ज्ञान गहरा नहीं हो सकता जब तक ईश्वर स्वयं अपने आप को हमारे लिए प्रकट करने की कृपा न करें। ईश्वर को प्यार करने वालों को और उनके समक्ष बच्चों जैसा बनने वालों के सामने ईश्वर अपने आप को प्रकट करते हैं। मत्ती 11:25-27 में प्रभु येसु कहते हैं, “पिता! स्वर्ग और पृथ्वी के प्रभु! मैं तेरी स्तुति करता हूँ; क्योंकि तूने इन सब बातों को ज्ञानियों और समझदारों से छिपा कर निरे बच्चों पर प्रकट किया है। हाँ, पिता! यही तुझे अच्छा लगा। मेरे पिता ने मुझे सब कुछ सौंपा है। पिता को छोड़ कर कोई भी पुत्र को नहीं जानता। इसी तरह पिता को कोई भी नहीं जानता, केवल पुत्र जानता है और वही, जिस पर पुत्र उसे प्रकट करने की कृपा करे।”
इस से हम यह समझ सकते हैं कि हम अपने दिमाग से ईश्वर का पक्का ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते हैं। हमें ईश्वरीय ज्ञान के लिए ईश्वर से ही गिडगिडा कर याचना करना चाहिए। सूक्ति 2:1-6 में प्रभु का वचन कहता है, “पुत्र! यदि तुम मेरे शब्दों पर ध्यान दोगे, मेरी आज्ञाओं का पालन करोगे, प्रज्ञा की बातें कान लगा कर सुनोगे और सत्य में मन लगाओगे; यदि तुम विवेक की शरण लोगे और सद्बुद्धि के लिए प्रार्थना करोगे; यदि तुम उसे चाँदी की तरह ढूँढ़ते रहोगे और खजाना खोजने वाले की तरह उसके लिए खुदाई करोगे, तो तुम प्रभु-भक्ति का मर्म समझोगे और तुम्हें ईश्वर का ज्ञान प्राप्त होगा; क्योंकि प्रभु ही प्रज्ञा प्रदान करता और ज्ञान तथा विवेक की शिक्षा देता है।”
नबी दानिएल कहते हैं “ईश्वर का नाम सदा-सर्वदा धन्य है, प्रज्ञा और शक्ति उसी की है; काल और ऋतु उसी के हाथ में हैं; वही राजाओं की प्रतिष्ठा करता और उनके सिंहासन उलटता है। वही विद्वानों को प्रज्ञा देता है और समझदारों को समझ। वही गूढ़ रहस्यों को प्रकट करता है, वही अंधकार में छिपे भेद जानता है, क्योंकि उस में ज्योति का निवास है। (दानिएल 2:20-22)