प्रभु येसु अपने पिता द्वारा सौंपे गये कार्य को पूरा करने में लगे रहते हैं। इस कार्य में साथ देने के लिए वे बारह प्रेरितों को चुनते हैं। प्रभु उन्हें शिक्षा देते हैं; उनके सामने कई प्रकार के चमत्कार करते हैं तथा स्वर्गराज्य की घोषणा करते हैं। प्रभु येसु उन्हें आनेवाली प्राण-पीड़ा के संकेत भी देते हैं। वे चाहते हैं कि इन सब के माध्यम से शिष्य उन्हें मुक्तिदाता तथा मसीह के रूप में पहचानें।
एक दिन प्रभु उनको अलग ले जाकर उनसे यह जानना चाहते हैं कि वे उनके विषय में क्या सोचते हैं। अक्सर अपने जीवन में भी हम देखते हैं कि किसी के साथ कुछ दिन तक रहने तथा साथ काम करने के बाद उस व्यक्ति के बारे में और उसके व्यक्तित्व के बारे में हमारे मन में कुछ धारणाएं बनती हैं। बिरले ही हम ऐसी धारणाओं को उसी व्यक्ति के सामने प्रकट करते हैं। जो हमारे साथ अपने संबंध को और अधिक मज़बूत करना चाहते हैं, वे कभी कभी सवाल भी करते हैं कि आप मेरे विषय में क्या सोचते हैं? या वे हमारे बारे में जो सोचते हैं उसे प्रकट करते हैं। जब हम किसी से कहते हैं, ’’तुम तो मेरे बेटे के समान हो’’, तब उसके साथ हमारा व्यवहार भी उसी दिशा में झुकने लगता है तथा हम उसे बेटा समझकर व्यवहार करने लगते हैं। जिनको हम सच्चे दोस्त मानते हैं उसके लिये हम सब कुछ करने के लिये तैयार हो जाते हैं।
प्रभु येसु अपने शिष्यों को कैसरिया फिलिपी ले चलते हैं। वह मंदिरों का शहर माना जाता था। कई देवी-देवताओं के वैभवशाली और गगन चंुबी मंदिर वहाँ मौजूद थे। येसु इस शहर में अपने शिष्यों को खड़े करके उन्हें यह बताने के लिये विवश करते हैं कि वे उनके विषय में क्या सोचते हैं। इस प्रक्रिया के प्रथम चरण में प्रभु शिष्यों से यह जानना चाहते हैं कि लोग उनके विषय में क्या कहते हैं। शिष्य कहते हैं कि लोग आपको योहन बपतिस्ता, एलियस, येरेमियस या नबियों में से एक मानते हैं। इस पर प्रभु उनसे पूछते हैं, ’’तुम क्या कहते हो कि मैं कौन हूँ?’’ अब उन्हें जवाब दूसरों की बातों में या किसी किताब में नहीं, बल्कि अपने ही अंदर ढूँढना पड़ता है। शिष्यों की ओर से संत पेत्रुस कहते हैं, ’’आप मसीह हैं, आप जीवंत ईश्वर के पुत्र हैं’’। संत पेत्रुस इतना अच्छा जवाब कैसे दे पाते हैं? यह प्रभु येसु के शब्दों से साफ है। प्रभु कहते हैं, ’’तुम धन्य हो, क्योंकि किसी निरे मनुष्य ने नहीं बल्कि मेरे स्वर्गिक पिता ने तुम पर यह प्रकट किया है’’। ईश्वर का ज्ञान अर्जित करने के लिये हमें ईश्वर की ही मदद की ज़रूरत है।
संत योहन बपतिस्ता को राजा हेरोद ने मरवा डाला था। लेकिन कई व्यक्तियों का यह विचार था कि योहन जैसे महान व्यक्ति वापस आयेंगे। किसी-किसी ने उन्हें एलियस माना। राजाओं के दूसरे ग्रंथ (2 राजाओं 2:1-11) के मुताबिक नबी एलियस की मृत्यु नहीं हुई थी। वे अग्नि के रथ में स्वर्ग में उठा लिये गये थे। मलआकी 3:23 में प्रभु परमेश्वर कहते है, ’’देखो, उस महान् एवं भयावह दिन के पहले, प्रभु के दिन के पहले, मैं नबी एलियाह को तुम्हारे पास भेजूँगा’’। इसी कारण यहूदियों की यह प्रथा थी कि पास्का भोज के समय हर परिवार में नबी एलियस के लिये एक स्थान खाली छोड़ देते थे। इसी प्रकार यहूदियों के बीच 2 मक्काबियों 2:1-12 पर आधारित यह विष्वास था कि इस्राएलियों के निर्वासन के पहले नबी येरेमियस ने विधान की मंजूषा तथा धूप की वेदी येरुसालेम के मंदिर में से निकालकर नेबो पर्वत पर किसी गुफा में छिपा दी थी तथा वे इन पवित्र वस्तुओं को लेकर मसीह के आगमन के पहले पुनः पधारेंगे। इसलिये लोग प्रभु येसु को योहन बपतिस्ता, एलियस या येरेमियस समझते हैं।
प्रभु के पास शिष्यों के साथ रहने के लिये अब ज्यादा समय नहीं था। उनकी मृत्यु निकट थी। उन्हें यह मालूम और महसूस करना ज़रूरी था कि लोग, विशेषकर उनके शिष्य उन्हें मसीह के रूप में पहचान पा रहे हैं या नहीं। हालाँकि लोगों ने येसु को मसीह नही माना, फिर भी उन्हें योहन बपतिस्ता, एलियस या येरेमियस का दर्जा देकर उनको बहुत ही सम्मानित और महान व्यक्ति माना। शिष्यों को ईश्वर पिता ने यह प्रकट किया कि येसु मसीह हैं। लेकिन हमें इस पर भी ध्यान देना चाहिए कि संत पेत्रुस का जवाब सुनने के बाद प्रभु शिष्यों को यह समझाते हैं कि उनके मसीह होने का मतलब यह नहीं है कि वे उस समय की आम विचारधारा के अनुसार दुनियावी शासकों के समान संासारिक महिमा में राज्य करेंगे, परन्तु अपनी प्रजा की मुक्ति के लिए दीन-हीन बनकर, दुख सहकर, क्रूस पर अपने प्राण त्याग देंगे।
प्रभु हम से भी यह जानना चाहते हैं कि वे हमारे व्यक्तिगत जीवन में क्या स्थान रखते हैं। हमें यह ज्ञात है कि दुनिया में कई लोग प्रभु येसु को एक महान व्यक्ति मानते हैं, लेकिन ये सब लोग उन्हें अपने व्यक्तिगत जीवन का मुक्तिदाता या मसीह नहीं मानते हैं। ईश्वर के आत्मा ही हमें प्रभु को पहचानने और स्वीकारने में मदद कर सकते हैं। आइए हम प्रभु को अपने व्यक्तिगत जीवन का स्वामी मानकर उन्हें हृदय से स्वीकार करें क्योंकि जैसे रोमियों को लिखते हुए संत पौलुस आज के पहले पाठ में कहते हैं, वे ही सब कुछ का मूल कारण, प्रेरणा-स्रोत तथा लक्ष्य है।