यह सृष्टि का नियम है कि अच्छी और सच्ची चीज़ें सदैव बनी रहती हैं। इसका मतलब यह है कि जो चीज़ें रद्दी एवं खराब होती है उनका मान-सम्मान कुछ समय तक तो हो सकता है किंतु सदैव बने नहीं रह सकता। यह सभी जानते हैं कि सच्चाई, सहिष्णुता, पवित्रता और प्यार जहाँ होता है वहाँ ईश्वर रहते हैं और जहाँ काम, क्रोध, मद एवं लोभ का वास होता है वहाँ ईश्वर की परछाई भी नहीं जाती। कुछ लोग आम मार्ग को चुनते हैं तो कुछ ऐसे भी हैं जिन्हें सच्चाई का मार्ग सही लगता है। विवेक, जिसे हम ईश्वर की देन कहते हैं, के कारण ही यह संभव हो पाता है। विवेक ही लोगों की विभिन्न वृत्तियों को चुनने में मदद करता है। जो भी व्यक्ति विवेक का सही इस्तेमाल करता है वह सदा सफल होता है, यह सत्य है।
सुलेमान का वर्णन पवित्र बाइबिल में एक महान राजा के तौर पर किया गया है। कहा गया है कि सुलेमान के राज्य की सीमा अत्यंत ही विस्तृत थी। अनेक बड़े राजा उनके अधीन रहकर भी अपने आप को धन्य मानते और सुलेमान का जय-जयकार करते थे। क्योंकि सुलेमान के कारण सभी जगहों पर शांति थी।
किंतु क्या शांति अपने आप में स्वयं आने वाली चीज़ है? क्या शांति के लिये अन्य किसी राज्य या व्यक्ति की शांति भंग नहीं करनी होती है? इन सभी प्रष्नों का उत्तर ’भय’ में छिपा है। हम सभी भयभीत रहते हैं। आम प्रजा एक चोर से भय खाती है। चोर पुलिस से भयभीत रहता है, पुलिस अपने अधिकारियों या नेताओं से भयभीत रहती है। नेता प्रजा से डरते है कि कहीं वह उन्हें गद्दी से न उतार फेंके। इस प्रकार भय का एक चक्र निंरतर चलता रहता है। यही चक्र एक शांति प्रिय व्यक्ति के लिये भी लागू होता है। वह इसलिये शांति बनाये रखता है कि शायद अषांति उसको हानि पहुँचायेगी। इस शांति को बनाए रखने के लिये मनुष्य में विवेक का होना भी आवश्यक है। क्योंकि यही विवेक एक मनुष्य को सही गलत की पहचान कराने में सहायक होता है। जो अपनी बुद्धि, विवेक और ज्ञान का सदुपयोग करता है वह अपना ही नहीं वरन आसपास सभी के कल्याण का भागी बनता है।
आज के दूसरे पाठ में संत पौलुस कहते हैं कि जो लोग ईश्वर को प्यार करते हैं और उनके विधान के अनुसार बुलाये गये हैं, ईश्वर उनके कल्याण के लिये सभी बातों में उनकी सहायता करते हैं। वास्तव में सुलेमान के साथ ऐसा ही हुआ था। ईश्वर के प्रति प्यार तथा ईश्वरीय योजना की ओर समर्पण की भावना से प्रेरित होकर सुलेमान ने ईश्वरीय प्रज्ञा का वर माँगा और प्रभु ईश्वर इससे प्रसन्न होकर प्रज्ञा के साथ-साथ उन्हें धन-सम्पत्ति तथा मान-सम्मान भी प्रदान करते हैं।
यह स्पष्ट होता है कि ईश्वर ने उन्हीं को अपना बनाया जिन्होंने उनके मार्ग पर चलने की चेष्टा की और उस पूरी प्रक्रिया में भक्त या चेले ने ईश्वर का प्यारा बनकर अपने देश-समाज में महान होने का गौरव प्राप्त किया।
जैसे कि हम जानते हैं कि ईश्वर पवित्रता चाहते हैं, सत्य चाहते हैं और क्षमा धर्म में विष्वास चाहते हैं। ये सभी तत्व उस स्थान पर मौजूद है जहाँ ईश्वर राज्य करते हैं। संत मत्ती ने अपने सुसमाचार में उल्लेख किया है कि स्वर्ग का राज्य खेत में छुपे हुए उस खजाने के समान है जिसे प्राप्त करने की उमंग में एक व्यक्ति अपनी समस्त संपत्ति दांव पर लगा देता है। इसी प्रकार अगर वह अपने आप को पवित्रता, सत्यता और अहिंसा के मार्ग पर डाल दे तो स्वर्ग की सीढ़ियां उसके लिये खुल जायेगी जो किसी खजाने से ज्यादा महत्वपूर्ण होगा।
संत मत्ती ने स्वर्गराज्य की तुलना उस व्यापारी से भी की है जो मोती खोजता है और जब उसे एक ऐसा बेजोड़ मोती मिलता है जो सर्वश्रेष्ठ है तो वह अपनी सारी संपत्ति बेचकर भी उस मोती को मोल लेता है। यह उदाहरण भी उसी बात की ओर इंगित करता है कि स्वर्ग का राज्य इसी सर्वश्रेष्ठ मोती के समान है जिसे पाने के लिये किसी को भी अपनी समस्त इच्छाओं, वासनाओं इत्यादि को छोड़ना होगा और सत्मार्ग की ओर बढ़ना होगा। यही एक मार्ग है जहाँ से ईश्वर के घर जाने का रास्ता दिखाई देता है।
एक दिन ऐसा समय आएगा जब ईश्वर अच्छे, सच्चे, पवित्र और सद्मार्गी लोगों को वासनाओं से भरी भीड़ से निकालकर अपने घर ले जायेंगे। धर्म से अलग हुए लोगों के पास कुछ नहीं बचेगा और वे स्वयं अपनी दुष्टता की अग्नि में जलकर भस्म हो जायेंगे। इसी प्रकार संत मत्ती ने येसु के उपदेषों में स्वर्ग की सीढ़ी का पता बताया है जिसे पाने के लिये हमें अपनी दुष्टता छोड़नी होगी और पवित्रता को अपनाना होगा।