आज के सुसमाचार में हमने एम्माउस जाने वाले दो शिष्यों के बारे में सुना। मैं समझता हूँ कि हम इस घटना का विवरण कई बार सुन चुके हैं। हम सहज ही इसका अर्थ निकालते हैं। क्लेओपस और उसके साथी शिष्य येरुसालेम से एम्माउस जा रहे थे। वे रास्ते में येसु के पुनरुत्थान और उसके बाद होने वाली घटनाओं के बारे में विचार-विमर्ष कर रहे थे। उनकी बातचीत से यह पता चलता है कि वे भयभीत थे और साथ ही व्याकुल भी। अचानक पुनर्जीवित प्रभु स्वयं आकर उनके साथ हो लिये, परन्तु उन शिष्यों की आँखे उन्हें पहचानने में असमर्थ रहीं। बातें करते-करते वे एम्माउस पहुँच ही रहे थे, तब प्रभु येसु शिष्यों से अलग होकर आगे बढ़ना चाहते थे। तब शिष्यों ने यह कहकर उनसे आग्रह किया, ’’हमारे साथ रह जाइए। साँझ हो रही है और अब दिन ढल चुका है’’। इसपर प्रभु उनके साथ रह जाते हैं। बाद में रोटी तोड़ते समय शिष्यों ने उन्हें पहचान लिया।
जब इस घटना की घोषणा होती है तो श्रोता सहज ही यह सोचने लगते हैं कि शिष्यों को लगा होगा कि अंधेरे के कारण प्रभु को आगे के रास्ते में परेशानी होगी और इस परेशानी से बचाने के लिये वे प्रभु से यह आग्रह करते हैं कि प्रभु उनके साथ रुक जायें और सुबह जब दुबारा दिन निकल आयेगा तब आगे जायें। लेकिन इस घटना का वास्तविक अर्थ और अधिक गहरा है। बाइबिल इतिहास मात्र नहीं है। यह मुक्ति का इतिहास है। इसलिये जब हम बाइबिल पढ़ते या सुनते हैं तो हमें न सिर्फ अपनी शारीरिक आँखों या कानों से, बल्कि आंतरिक आँखों या कानों से देखना, सुनना और समझना चाहिये। दूसरे शब्दों में कहा जाये तो इस मुक्ति के संदेश को एक रहस्य के रूप में हमें विष्वास रूपी आँखों से पढ़ना और आंतरिक कानों से सुनना एवं समझना चाहिये। आइए हम इस नज़रिए से इस घटनाक्रम को पुनः देखें।
उन शिष्यों ने अपने जीवन में अंधकार का अनुभव किया। वे भयभीत थे कि जिन पर उन्होंने भरोसा किया था वे उनके साथ अब नहीं हैं। वे व्याकुल हो गये थे क्योंकि कई ऐसी बातें सुनने में आ रही थीं जो उनको उलझन में डाल रही थीं। वे शायद यह सोच रहे थे कि प्रभु येसु एक महान राजा या नेता के रूप में उभरेंगे और एक इस प्रकार का साम्राज्य स्थापित करेंगे जिसमें शिष्य महत्वपूर्ण पदों पर उपविष्ट होंगे। वे बड़े अधिकारी बनाये जायेंगे जिनका लोग बहुत सम्मान करेंगे। लेकिन प्रभु येसु की मृत्यु के साथ ये सब सपने टूट गये और वे निराशा के दलदल में फँस गये। शिष्यों की बातचीत से यह प्रकट ज़रूर होता है कि वे हैरान-परेशान थे। यही उनके जीवन का अंधकार था।
प्रभु येसु जो अपने को संसार की ज्योति कहते हैं जब तक उनके साथ रहे तब तक अंधकार उनके जीवन से दूर था। इसी की झलक आज के सुसमाचार में हमें मिलती हैं। बाइबिल कहती है कि प्रभु येसु खीस्त को पहचानने के बाद शिष्यों ने एक-दूसरे से कहा, ’’हमारे हृदय कितने उद्दीप्त हो रहे थे, जब वे रास्ते में हमसे बातें कर रहे थे और हमारे लिये धर्मग्रन्थ की व्याख्या कर रहे थे!’’ प्रभु येसु खीस्त का वचन ही उनके लिये एक दीपक के समान था जिसके ज़रिये उनके हृदय उद्दीप्त हो रहें थे। यानि प्रभु के वचनों में उन शिष्यों के हृदयों को प्रज्वलित करने की शक्ति थी। प्रभु की उपस्थिति उनके जीवन को तेजोमय बना सकती थी। इसी कारण वे प्रभु से अनुनय-विनय करते हैं कि प्रभु उनके जीवन के अंधेरे को मिटाकर ज्योति प्रदान करने के लिये उनके साथ रुक जायें। संत योहन कहते हैं, ’’शब्द वह सच्ची ज्योति था, जो प्रत्येक मनुष्य का अन्धकार दूर करती है’’ (योहन 1:9)।
हमने अभी जो कुछ भी देखा यह हमारे जीवन में भी लागू होता है। अगर हम वास्तविकता को पहचानने की कोशिश करेंगे तो हमें यह ज़रूर महसूस होगा कि हमारे जीवन में भी एक ऐसा हिस्सा है जहाँ अंधकार व्याप्त है। जब हम इसका अवलोकन करते हैं तो हमें यह पता चलेगा कि वह अंधकार प्रभु की अनुपस्थिति को ही दर्षाता है। जिस प्रकार एक जलती हुई मोमबत्ती के पास अंधेरा छिप नहीं सकता उसी प्रकार हमारे हृदय में अगर प्रभु येसु विराजमान रहते हैं तो वहाँ पर व्याकुलता, भय तथा निराशा रूपी अंधकार के लिये जगह नहीं है। जाने-अंजाने हम कई दफा हमारे जीवन में अंधकार को जगह देते हैं। हमें भी उन शिष्यों के समान प्रभु से विनती करना चाहिये कि प्रभु हमारे साथ रह कर हमारे दिल के अंधकार को मिटायें और उसे देदीप्यमान बनायें।
जब तक हमारे जीवन पर पाप और कंलक रूपी या निराशा या दुःख रूपी अंधेरा छाया रहेगा, तब तक हम प्रभु को पहचान नहीं पायेंगे और न ही उनके सुसमाचार का प्रचार-प्रसार कर पायेंगे। सुसमाचार में हम देखते हैं कि प्रभु का उजियाला प्राप्त कर शिष्य तुरंत ही उसी रात येरुसालेम लौट जाते हैं और पुनरुत्थान के गवाह बनते हैं। इस यूखारिस्तीय समारोह में भी प्रभु येसु हमारे लिये वह रोटी तोड़ते हैं और अपने वचन के प्रकाश से हमारे जीवन को आलोकित करते हैं। तो आइए हम दिल खोलकर उस ज्योति को ग्रहण करें, प्रभु को पहचानें और सुसमाचार के प्रचार-प्रसार के लिये अपने को समर्पित करें।