चक्र अ के प्रवचन

पुण्य शुक्रवार

पाठ: इसायाह 52:13-53:12; इब्रानियों 4:14-16,5:7-9; योहन 18:1-19:42

प्रवाचक: फादर जॉंनी पुल्लोप्पिल्लिल


आज की पूजन विधि का सबसे महत्वपूर्ण भाग प्रभु के दुःखभोग का स्मरण है। प्रभु के इस सफ़र में हम अलग-अलग व्यक्तियों से मिलते हैं। कोई शत्रु है, तो कोई मित्र, कोई पारिवारिक सदस्य है, तो कोई अजनबी व्यक्ति। कई मुलाकातें सांत्वनादायक होती है तो कई दुखदायक।

ऐसी ही मुलाकातों में सबसे पहली है, प्रभु येसु और यूदस इस्कारियोती की। प्रभु येसु ज्योति का प्रतीक हैं जबकि यूदस अंधकार का। ये दो व्यक्तियों की मुलाकात नहीं बल्कि दो विपरीत शक्तियों का संघर्ष है। थोड़े समय के लिये यूदस लोभ के कारण अपने काम में सफल होते दिखता है लेकिन लम्बे समय में ज्योति यानि येसु की ही विजय स्थापित होती है। जैसे ज्योति के आते ही अंधकार दूर हो जाता है।

इस यात्रा की दूसरी मुलाकात पेत्रुस और प्रभु येसु के बीच होती है। पेत्रुस प्रभु को पहचानने से इंकार करते हैं और कहते हैं कि मैं उनका शिष्य नहीं हूँ। पेत्रुस प्रभु येसु को बार-बार अपने पिता ईश्वर के विरुद्ध जाने के लिये प्रेरित करते हैं। योहन 13:8 में पेत्रुस प्रभु येसु को अपने पैर धोने से मना करते हैं। योहन 18:11 में पेत्रुस तलवार का प्रयोग करके प्रभु येसु को अपने पिता द्वारा दिये गये प्याले को पीने से मना करते हैं।

इस यात्रा में येसु और पिलातुस की मुलाकात भी बहुत महत्वपूर्ण है। वास्तव में यह मिलन दो राजाओं के मध्य है- एक सांसारिक राजा तथा दूसरा दैविक। पिलातुस प्रभु येसु से सत्य के बारे में पूछते हैं जबकि उसे यथार्थ में न्याय देने या दिलाने के पूर्व सत्य से परिचित होना चाहिए था। प्रभु येसु खुद परम सत्य हैं, लेकिन पिलातुस उसे पहचान नहीं पाता हैं। वह सत्य का पक्ष लेने की अपनी जिम्मेदारी से हाथ धो लेता है।

इसी श्रृंखला में चौथा मिलन प्रभु येसु और भीड़ के बीच होता है। भीड़ सांसारिक बादषाहत का साथ देते हुए येसु को क्रूस देने के लिये चिल्लाती है, खून की माँग करती है यानि सत्य को खो बैठती है। 

एक नज़र हमारे जीवन की ओर डालते हैं। हम अपने जीवन में ज्योति की अपेक्षा अंधकार को अपनाने में अधिक रुचि रखते हैं और ज्योति को खो बैठते हैं। हमें ज्योति पुंज तक पहुँचने के लिए उतना ही अथक परिश्रम करना होगा जितना प्रयत्न लय खो बैठा खिलाड़ी अपनी लय में आने के लिये करता है। 

मानवीय जीवन में दो विपरीत शक्तियों का खिचाव रहता है। इस प्रक्रिया में कभी-कभी हम न स्वयं न्याय का साथ देते हैं और न किसी को न्याय करने देते हैं; न ईश्वर की इच्छा समझते हैं और न दूसरों को ईश्वरीय मार्ग पर चलने में मदद करते हैं। कठिनाईयाँ आने पर हम ईश्वर से दूर भाग जाते हैं।

पिलातुस रूपी पात्र हमको यह शिक्षा देता है कि हम न सत्य को जानते हैं और न जानने की कोशिश करते हैं। वह एक शब्द मात्र से एक जीवन को बचा सकता था लेकिन उसने उस अवसर का इस्तेमाल भीड़ को खुश करने के लिये किया और कहा, ‘‘आप लोग इसे ले जाइये और संहिता के अनुसार न्याय दीजिए‘‘। पिलातुस के समान सत्य जानने के अवसर प्राप्त होने पर हम ने भी उसकी अवहेलना की और उसे नहीं पहचाना। हमने सत्य की अपेक्षा असत्य को अपनाया। सत्य का साक्ष्य देने में जीवन खोना पडे़गा। निर्दोष लोगों को दण्डाज्ञा मिलती है, डर एवं पद खोने के भय के कारण हम सत्य को जानते हुए भी नहीं जानने का बहाना करते हैं।

जीवन रूपी इस यात्रा में हम भी भीड़ में खो जाते हैं। हमारा अपना अस्तित्व खो बैठते हैं। सभी सोचते हैं कि प्रत्येक प्रष्न का एक सरल सुगम हल हो। इसलिये भीड़ का साथ देते हैं एवं भीड़ के दबाव में आ जाते हैं। इसमें दूसरे व्यक्ति का नुकसान होता ही है। साथ ही साथ हम अपनी जिम्मेदारी से भी बचते हैं। यह अधिकत्तर अपने लिये एवं दूसरों के लिये हानिकारक साबित होता है। भीड़ चिल्ला उठी, ‘‘इसे नहीं, बराबस को‘‘।

इस प्रकार अलग-अलग मिलन हम आज के सुसमाचार में देखते हैं। इन उदाहरणों से एक बात हमारे सामने स्पष्ट हो गई है कि प्रभु येसु को दण्ड, प्रताड़ना मिली। वह उन्हें उनके पाप के कारण नहीं अपितु हमारी अज्ञानता एवं पाप के कारण मिली। दूसरे शब्दों में यह सत्य ही है कि प्रभु येसु स्वयं के कारण, स्वयं के लिए नहीं वरन् हमारे कारण, हमारे लिये मरे। इसी कारण उनकी मृत्यु जीवन प्रदायक है और यह सच्चाई उन्हें मृत्युंजय सिद्ध करती है। 

इस प्रकार हम भी जब दूसरों के कारण पीड़ित होते हैं या दुःख सहते हैं तो निराश या हतोत्साहित होने की जरूरत नहीं है बल्कि खुशी के साथ उस दुख को अपनाने में सत्य की स्थापना होगी, जैसे प्रभु येसु का जीवन हमें सिखाता है।

अंत में हम यह कह सकते हैं कि प्रभु येसु की क्रूस यात्रा अंधकार पर ज्योति की, अज्ञानता पर ज्ञान की, अन्याय पर न्याय की, असत्य पर सत्य की एवं आलस्य पर जिम्मेदारी की विजयी यात्रा है।


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