इब्रानी भाषा में ‘इब्राहीम‘ शब्द का अर्थ है विशाल जनता के पिता। ईश्वर के द्वारा इब्राहीम के साथ विधान बनाने के पहले का नाम था ‘अब्राम‘ जिसका अर्थ है प्रतिष्ठित पिता। उत्पत्ति ग्रंथ इब्राहीम को बहुत से राष्ट्रों का पिता कहता है। इतिहास ग्रंथ इब्राहिम को ईश्वर का मित्र कहता है (2 इतिहास 20:7)। विश्वास में इब्राहिम हमारे पिता हैं। उत्पत्ति ग्रंथ 15:6 में हम पढ़ते हैं कि इब्राहीम ने ईश्वर पर विश्वास किया इसलिये प्रभु ने उन्हें धार्मिक माना है। इब्राहीम खलदैया देश के ऊर नगर को छोड़कर अपने कुटुम्ब के लोगों के साथ कनान के लिये रवाना हुए। मगर वे हारून पहुँचकर वहीं रहने लगे। प्रभु ने अब्राम से कहा, ‘‘अपना देश, अपना कुटुम्ब और अपना पिता का घर छोड़ दो और उस देश जाओ जिसे मैं तुम्हें दिखाऊँगा‘‘। ईश्वर ने इब्राहीम से कई प्रतिज्ञाएं की। अन्त में कहा कि तुम्हारे द्वारा पृथ्वी भर के लोग आशीर्वाद प्राप्त करेंगे। आज के प्रथम पाठ के अंत में हमने सुना कि इब्राहीम ईश्वर के कहने के अनुसार चले जाते हैं।
इब्राहीम को यहूदी, खीस्तीय और इस्लाम धर्मावलंबी लोग अपना कुलपति समझते हैं। यह इसलिये कि उन्होंने ईश्वर पर विश्वास किया। रोमियों के नाम संत पौलुस के पत्र 4:18 में हम पढ़ते हैं कि इब्राहीम ने निराशाजनक परिस्थिति में भी आशा रखकर विश्वास किया और वे बहुत से राष्ट्रों के पिता बन गये। हम भी प्रभु पर विश्वास करेंगे तो धार्मिक बन सकते हैं।
उत्पत्ति ग्रंथ के प्रथम 11 अध्याय इतिहास के पूर्व की बातें हैं। अध्याय 12 से इतिहास से संबधित बातें लिखी गयी हैं। इब्राहीम 75 साल के थे तथा चलवासी थे, इसलिये उनके पास बहुत ज्यादा संपत्ति नहीं थी। फिर भी अज्ञात देश की ओर यात्रा उनके लिये ज़रूर कठिन रही होगी। बिलकुल अपरिचित देश की ओर यात्रा थी, जैसे अंधकार की ओर छलाँग।
आज चालीसे का दूसरा इतवार है। चालीसे के अंत में हम प्रभु येसु के दुःखभोग और मृत्यु पर विचार करते हैं। सुसमाचार में हम प्रभु के रूपान्तरण के बारे में सुनते हैं। येसु येरुसालेम जा रहे थे। येरुसालेम में उन्हें क्रूस मरण का सामना करना था। पिता की इच्छा जानने के लिये और शिष्यों को विश्वास में पक्का करने के लिये प्रभु पहाड़ पर चले गये। रूपांतरण का पहाड़ क्रूस मरण का पहाड़ गोलगोथा की तैयारी थी। प्रभु पेत्रुस, याकूब और योहन को साथ ले गये। इन तीनों शिष्यों को प्रभु ने निकट रखा था। प्रभु चाह रहे थे कि क्रूस मरण के समय ये लोग विचलित न हों बल्कि अन्य शिष्यों को हिम्मत बँधाये। प्रभु अक्सर पिता से प्रार्थना करने पहाड़ पर जाया करते थे। मूसा, जो यहूदियों के नियमदाता थे, ने सिनाई पर्वत पर ईश्वर का अनुभव किया। नबी एलियस ने भी मंद समीर की सरसराहट में पहाड़ के ऊपर ईश्वर का अनुभव किया था।
पहाड़ पर रूपांतरण के समय पेत्रुस कुछ अप्रासंगिक बातें कर रहे थे। पेत्रुस ने कहा, ‘‘ आप चाहें तो मैं यहाँ तीन तम्बू खड़ा कर दूँगा‘‘। ईश्वर की उपस्थिति के बादल और मूसा को देखकर पेत्रुस को इस्राएलियों की मरुभूमि यात्रा की याद आयी। मरुभूमि पर इस्राएली तंबू बनाकर रहा करते थे। यहूदी फ़सल काटने के बाद तंबू का त्योहार मनाते थे। पेत्रुस चाह रहे थे कि उन आनन्दमय क्षणों को चिरस्थायी बना लें तथा वही रहें जबकि प्रभु की इच्छा थी कि प्रार्थना के बाद लोगों के बीच जाएं। हम भी इस चर्च से पूजन विधि के बाद एक-दूसरे की सेवा हेतु निकल पड़ें।
पवित्र बाइबिल की तीन पुस्तकों को धर्मपत्र कहते हैं। ये हैं- तिमथी के दो तथा तीतुस के नाम संत पौलुस के पत्र। संत पौलुस इन पत्रों में कलीसिया संचालन के विषय में मार्गदर्शन देते हैं। इसी कारण इन पत्रों को धर्मपत्र कहते हैं। संत पौलुस ने ही तिमथी और तीतुस को धर्माचार्य नियुक्त किया था। संत पौलुस आज के पाठ मंऔ कहते हैं कि सुसमाचार के लिये कष्ट सहो। हम भली भांति जानते हैं कि सुसमाचार के प्रचार के पीछे विश्वासियों के बलिदान की कहानी है। हम विश्वासियों से भी यही उम्मीद की जाती है कि सुसमाचार के लिये कष्ट सहें। हम भी सुसमाचार प्रचार के लिये बलिदान करना सीखे। आदिम कलीसिया को यह पक्का विश्वास था कि शहीदों के खून से ही कलीसिया का विकास हुआ था। जब-जब लोगों ने खीस्त और सुसमाचार के विरुद्ध काम करते हुए विश्वासियों को सताने की कोशिश की तब-तब कलीसिया और भी आगे बढ़ती गई। यह इसलिये संभव हुआ कि कलीसिया में प्रभु तथा सुसमाचार के नाम पर दुख तथा कष्ट सहनेवाले अनेक थे। प्रभु ने साफ शब्दों में कहा था, ’’यदि उन्होंने मुझे सताया, तो वे तुम्हें भी सतायेंगे। (योहन 15:20)। प्रभु ने अत्याचार सहनेवालों को आनन्द मनाने के लिए सिखाया। उन्होंने कहा, ’’धन्य हो तुम, जब लोग मेरे कारण तुम्हारा अपमान करते हैं, तुम पर अत्याचार करते और तरह-तरह के झूठे दोष लगाते हैं। खुश हो और आनन्द मनाओ- स्वर्ग में तुम्हें महान् पुरस्कार प्राप्त होगा। तुम्हारे पहले के नबियों पर भी उन्होंने इसी तरह अत्याचार किया’’(मत्ती 5:11-12)। यह यूखारिस्तीय समारोह हमारे लिए रूपान्तरण का ही अनुभव है। हम ईश्वर से प्रार्थना करें कि यह ईश्वरानुभव हमें सुसमाचार के प्रति दुःख-तकलीफ सहने की शक्ति प्रदान करे।