प्रलोभन बहुत ही मनमोहक और आकर्षक लगता है। यह सच्चा व अच्छा प्रतीत होता है पर ऐसा है नहीं। प्रलोभन एक जालसाज है। यह झूटा, छल-कपट और खोखला है। यह सच्चाई को छुपाता और मिथ्यात्व को सच्चाई व अच्छाई के रूप में पेश करता है। यहॉं तक कि प्रलोभन कोई अच्छाई को पेश कर हमें उन्हें गलत तरिके या अपनी स्वार्थ के लिए उपयोग करने को प्रेरित कर सकता है। परन्तु यह हमें विनाश की ओर ले जाता है। प्रलोभन हमारे जीवन में आते रहते हैं विभिन्न रूपों में। इस प्रकार यह हमारे जीवन का अभिन्न अंग है। कई बार हम इसकी ओर झूकते व इनके शिकार बनते हैं। अंग्रजी में कहा जाता है “self is selfish by nature”। इसलिए तो येसु कहते हैं-‘‘यदि कोई मेरा अनुसरण करना चाहे तो वह आत्म त्याग करे।” क्योंकि उसने स्वयं आत्म त्याग किया है। उसने अपने आत्म पर विजय हासिल किया है। अतः वे आत्मविजयी बन गये।
आज के प्रथम पाठ और सुसमाचार में हम प्रलोभन के बारे में सुनते है। ईश्वर की इच्छा व योजना रही कि मनुष्य ईश्वर के अधीनस्त रहे, उसके प्रति आज्ञाकारी एवं विश्वस्त रहे। मनुष्य पूर्ण रूप से ईश्वर पर निर्भर रहे। ईश्वर ने मनुष्य के लिए अदन वाटिका के रूप में एक सुन्दर दुनिया रची। इस सुन्दर दुनिया में आदम और हेवा को किसी प्रकार की कोई कमी नहीं थी। बस उन्हें वाटिका के बीचोबीच वाले वृक्ष का फल खाने से मना था। उसे स्पर्श तक नहीं करना था। परन्तु सॉंप ने हेवा से कहा कि वे उस वृक्ष के फल को खाने से ईश्वर के सदृश बन जायेंगे। शायद यही इच्छा थी उनमें कि वे ईश्वर के सदृश बने। उनकी यह इच्छा ईश्वर की इच्छा व योजना के विरूद्ध थी। उनकी इस इच्छा के कारण उन्हें अदन वाटिका से बाहर होना पड़ा। उनकी इस इच्छा के कारण वे ईश्वर के विरुद्ध बन गये। उनकी इस इच्छा से आज समस्त मानव जाति विभुषित है जिसे उसने अपने प्रथम माता-पिता से दाय के रूप में पाया है। इसलिए हर मनष्य में अच्छाई और बुराई का संघर्ष चलता रहता है।
हम विश्वास करते हैं कि येसु में मानव व दिव्य दोनों ही गुण रहा है। अतः वह पूर्ण रूप से मानुष्य व ईश्वर थे। एक निश्चित काल एंव स्थान में उसकी जन्म हुई। उसकी अपनी इतिहास रही है। उन्होंने हमारी ही तरह कठिनाइयॉं झेली। उसने एक आम मानुष्य के भॉति असहनीय दुःख व दर्द महसूस किया। उसे भी भूख व प्यास लगी। उसे भी परीक्षा व प्रलोभन झेलना पड़ा। उसे भी आपनी आत्मन् और ईश्वरता के बीच संधर्ष करनी पड़ी।
हम अधिकतम लोग उसकी मनुष्यता को अनदेखा कर देते या देखना नहीं चाहते हैं। हम सिर्फ उन्हे एक ईश्वर के रूप में देखते हैं। और जब हम उसे केवल ईश्वर के रूप में देखते हैं तो हमारे लिए उसका अनुसरण करना नमुकिन लगता है। तब हम उसका अनुसरण करने के स्थान में उसकी आराधना करते हैं। हम उसकी पूजा करते है। हम उसकी प्रशंसा करते हैं। लेकिन येसु ने बहुत ही स्पष्ट रूप से कहा है कि हमें उसका अनुसरण करना हैं। येसु ईश्वर ही है। पर हमें येसु को एक मनुष्य के रूप में भी देखना चाहिए। जब हम येसु को एक मनुष्य के रूप में देखेंगे तब हम उसका अनुसरण करेंगे। क्योंकि एक मनुष्य का अनुसरण किया जाना संभव हो सकता है पर ईश्वर अनुसरण करना शायद उतना सहज नहीं होगा। तो आवश्यता है येसु को एक मनुष्य के रूप में देखने व उसका अनुसरण करने की।
डाग हमारस्कजोल्ड स्वाडेशी राजनयिक या कूटनीतिज्ञ एवं लेखक था। वे सयुक्त राष्ट्र के द्वितीय महासचिव रहे हैं। सिर्फ यही एकल व्यक्ति है जिसके मरणोपरान्त नोबल प्राइस फोर पीस दिया गया था। 1961 में जब डाग युद्ध-विराम की समझोता के लिए कोन्गो जा रहा था तो विमान दुर्घटना में मारा गया। जब उसके कमरे की सफाई की गयी तब मारकिन्गस नाम से व्यक्तिगत डायरी या पत्रिका पायी गयी। इसे जुड़े हुए एक पेपर था जिसमें लिखा गया था कि यह प्रकाशित किया जा सकता है। अतः उसे प्रकाशित किया गया। और यह सर्वाधिक बिकाऊ बन गया। उस डायरी या पत्रिका के अन्दर प्रभु येसु के प्रार्थना का बहुत सारा जिक्र है। उन में से सबसे अधिक हृदयस्पर्शी है-‘‘आप का नाम पवित्र माना जाये मेरा नही, आपका राज्य आये मेरा नहीं, आपकी इच्छा पूरी होवे मेरी नहीं।’’
यदि हम येसु की परीक्षा या प्रलोभन पर गहन चिन्तन करेंगे तो हम पायेंगे कि येसु की परीक्षा या प्रलोभन इन्ही बातों पर आधारित है- नाम, राज्य, और इच्छा। सर्वप्रथम हमें यह स्वीकार करना जरूरी है कि येसु एक मनुष्य भी थे। और इसलिए शैतान ने उसकी परीक्षा ली। यह परीक्षा येसु के लिए एक कठिन संघर्ष था। संघर्ष इसलिए कि वह पूर्ण रूप से मानव भी था। बपतिस्मा के पश्चात् आत्मा येसु को निर्जन प्रदेश ले चला जहॉं सुसमाचार के अनुसार उसकी परीक्षा ली गयी। उसकी परीक्षा उसके सर्वजनिक कार्य के प्रारम्भ करने के पूर्व हुआ। अतः येसु की परिक्षा एक तरह से येसु के अंतरिक संघर्ष को दर्शाता है कि वह किस प्रकार अपने मिशन कार्य को पूरा करे। उसके पास विकल्प था कि वह ईश्वर की इच्छा व योजना के अनुसार पूरा करे या फिर अपनी इच्छा के अनुसार या शैतान के प्रभाव में आ कर अपनी दिव्य शक्ति का उपयोग कर। बपतिस्मा में पिता ईश्वर ने यह घोषित किया था कि येसु ईश्वर के पुत्र हैं। शैतान आकर येसु से कहता है-‘‘यदि आप ईश्वर के पुत्र हों, तो कह दीजिए कि ये पत्थर रोटियॉं बन जायें।’’ शैतान उसे अपने दिव्य शक्ति अपने भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए कह रहा है। अगर येसु शैतान की बात मान लेता तो उसकी स्वार्थ की आवश्यकताएं पूरी हो जाती। साथ ही यह बहुत बड़ा चमत्कार होता। उसकी ख्याति एकदम से फैल जाता। उसका नाम होता, लोग उनपर विश्वास करते। पर यह ईश्वर की इच्छा व योजना के विरूद्ध था। येसु ने इसे नकारा। अपनी इच्छा या आत्मन् को त्याग देकर ईश्वर की इच्छा व योजना को अपनाया।
दूसरी बार में शैतान येसु को मंदिर के शिखर पर खड़ा कर कहता है-‘‘यदि आप ईश्वर के पुत्र हों, तो नीचे कूद जाइए, क्योंकि लिखा है....।’’ यह परीक्षा येसु की महत्त्वाकांक्षा के लिए एक विकाल्प है। आदम और हेवा महत्त्वाकांक्षी थे। वे ईश्वर के समान बनना चाहते थे। वे अपने इच्छानुसार चले और ईश्वर की आज्ञा का उलंघन किये। मंदिर के शिखर से कूद जाना बहुत ही भव्य एवं अपूर्व चमत्कार होता। लोगों को येसु पर विश्वास कराने में उत्प्रेरक होता। शैतान येसु को ईश्वर के पुत्र होने का शक्ति-प्रादर्शन कर ईश्वर के पुत्र साबित करने का एक मौका देता है। परन्तु येसु का उत्तर यह प्रमाणित करता है कि येसु अपने पिता ईश्वर पर विश्वास करता है और ऐसे कुछ मुर्खता कर अपने पिता ईश्वर के वचनों का परीक्षण नहीं करेगा। एक और बार येसु अपने मानवीय आत्मन् या शैतान पर विजय हासिल करते है।
तीसरी बार शैतान येसु को संसार के सभी राज्य और उनका वैभव दिखलाता है और संसारिक राज्य की स्थापना करने के लिए अहवान देता है। बस आवश्यकता थी कि येसु इसके लिए तैयार हो जाएं, इस प्रस्ताव को स्वीकार करे। परन्तु पिता ईश्वर की योजाना थी कि येसु स्वर्ग राज्य की स्थापना करे। येसु ने शैतान के या अपने आत्मन् के प्रस्ताव को ठुकराया। उसने संसारिक राज्य के स्थान पर स्वर्गराज्य को चुना। येसु ने शैतान पर या अपने आत्मन् पर पुनः विजय हासिल किया। आदम और हेवा ने आज्ञा-उलंघन द्वारा विनाश लाया। येसु ने आज्ञापालन द्वारा जीवन लाया।
प्रिय भाइयो-बहनों शैतान बाहर से आया या फिर प्रलोभन या परीक्षा येसु के आत्मन् का प्रतिफल है कहा नहीं सकता। पर एक बात तो सच व सामान्य है कि हरएक इन्सान इस तरह का संघर्ष महसूस करता है। शैतान हमारी आत्मन् की ओर हमें आकर्षित करता है तो येसु ईश्वर की ओर आने के लिए अहवान देता है। इस तरह से हम कभी ईश्वर की ओर झूकते हैं तो कभी आत्मन् की ओर। यह खिंच-तान हम अपने जीवन में हर कदम पर हर क्षण महसूस करते है। तो आवश्यकता है हमें अपने आत्मन् को जीतने की।