प्रलोभन मानवीय जीवन का अभिन्न अंग है। प्रभु मानवीय जीवन की इस सच्चाई को स्वीकारते हुये कहते हैं, ’’प्रलोभन तो अनिवार्य है।’’ देखने में आता है कि अधिकांशः मनुष्य अपनी संपन्नता में प्रलोभन में पड जाते हैं। पवित्र बाइबिल में अनेक धर्मियों के अपनी संपन्नता और समृद्धि के दौरान प्रलोभन में गिरने की घटनायें देखने को मिलती है। ’’सावधान रहो-तुम अपने प्रभु ईश्वर को मत भूलो....कहीं ऐसा न हो कि जब तुम खा कर तृप्त हो जाओगे, जब तुम सुन्दर भवन बना कर उन में निवास करोगे, जब तुम्हारे गाय-बैलों और भेड़-बकरियों की संख्या बढ़ जायेगी, जब तुम्हारे पास बहुत सोना-चाँदी और धन सम्पत्ति एकत्र हो जायेगी’ तो तुम घमण्डी बन जाओ और अपने प्रभु ईश्वर को भूल जाओ।’’ (विधि-विवरण 8:11-14)
जब आदम और हेवा आनन्द के साथ अदन की वाटिका में जी रहे थे तो उन्हें किसी बात का अभाव नहीं था। ईश्वर ने उन्हें सारी स्वतंत्रता प्रदान की थी। इस दौरान शैतान अपनी धूर्तता से उनमें आज्ञा तोडने का विचार उत्पन्न करता है। अपनी संपन्नता में वे ईश्वर की एकमात्र आज्ञा को तोड देते हैं।
जब राजा दाउद ने उरिया की पत्नी बतशेबा से व्यभिचार किया तो वह अपनी सत्ता और समृद्धि में संपन्न था। नाथान अपने इस कथन ’’धनी के पास बहुत-सी भेड-बकरियॉ और गाय-बैल थे’’ (2 समुएल 12:2) से राजा दाउद की विपुलता इंगित करते हुये बताता कि किस प्रकार दाउद ने अपनी विपुलता में इन व्यभिचार और हत्या की बुराई के कार्य किये हैं। सुलेमान भी अपनी संपन्नता तथा सुखलोलुपता की पराकाष्ठा पर पहूँच कर मूर्तिपूजा आदि के घोर पाप करता है। मूर्ख धनी के दृष्टांत द्वारा प्रभु भी यही समझाते है कि धनी अपनी अच्छी फसल को देखकर ईश्वर को भूल गया था। धनी युवक येसु का अनुसरण इस कारण नहीं कर सका कि वह धनी एवं संपन्न था।
सांसारिक संपन्नता मानव के जीवन में इस प्रलोभन को जन्म देती है कि वह जीवन के नियमों के साथ खिलवाड करने में सक्षम है। अति-आत्मविश्वास उसे गलत धारणाओं की ओर ले जाता है। पैसा उसे इस बात का अहसास कराता है कि जोड-तोड कर हर गलत काम को ढाका जा सकता है। यह जुगाड की मानसिकता उसे ईश्वर के विधान और उसके पालन से दूर ले जाती है। सूक्तिग्रंथ में भक्त प्रभु से कहता है, ’’....कहीं ऐसा न हो कि मैं धनी बन कर तुझे अस्वीकार करते हुए कहूँ ’प्रभु कौन है?’’ (सुक्ति ग्रंथ 30:9) हमें भी अपनी संपन्नता के दौरान ईश्वर पर अपनी श्रद्धा का हास नहीं होने देना चाहिये। तिमथी के नाम पत्र में संत पौलुस चेतावनी देते हुये कहते हैं, “इस संसार के धनियों से अनुरोध करो कि वे घमण्ड न करे और नश्वर धन-सम्पत्ति पर नही, बल्कि ईश्वर पर भरोसा रखें।’’ (1तिमथी 6:17)
इसके विपरीत प्रभु येसु चालीस दिन के उपवास एवं प्रार्थना के बाद जब शैतान येसु की परीक्षा लेता है तब येसु निर्धन एवं भूखे है। ऐसी स्थिति में वह उन्हें अनेक प्रलोभन देता है। येसु की भूख पर निशाना कर वह उन्हें रोटी का लालच देते हुये कहता है, ’’यदि आप ईश्वर के पुत्र हैं, तो कह दीजिए कि ये पत्थर रोटियाँ बन जायें’’। (3) जब प्रभु क्षीण थे तो उन्हें खुद को बचाने की बात कहकर फुसलाता है। ’’यदि आप ईश्वर के पुत्र हैं तो नीचे कूद जाइए, क्योंकि लिखा है- तुम्हारे विषय में वह अपने दूतों को आदेश देगा। वे तुम्हें अपने हाथों पर सँभाल लेंगे कि कहीं तुम्हारे पैरों को पत्थर से चोट न लगे।’’(6) प्रभु निर्धन थे तो वह उन्हें वैभव का प्रलोभन देता है। ’’शैतान संसार के सभी राज्य और उनका वैभव दिखला कर बोला, ’यदि आप दण्डवत् कर मेरी आराधना करें, तो मैं आपको यह सब दे दूँगा!’’(9)
अपनी निर्धनता में भी प्रभु शैतान एवं उसके प्रपंचों पर विजय प्राप्त करते हैं। सांसारिक संपत्ति एवं आराम के नाम पर उनके पास कुछ नहीं था किन्तु प्रार्थना एवं उपवास की आध्यात्मिक शक्ति का अपार बल उन में था। वे न सिर्फ प्रलोभनों से बचते हैं बल्कि शैतान को निरूतर कर उन्हें हरा देते हैं। येसु के पास प्रार्थना एवं उपवास का बल था।
प्रार्थना के द्वारा मनुष्य ईश्वर के करीब होता जाता है। और जो ईश्वर के करीब होता है उन्हें ईश्वर अपना आध्यात्मिक बल एवं संरक्षण प्रदान करते हैं। प्रार्थना के द्वारा मनुष्य ईश्वर के सामर्थ्य एवं प्रकृति में सहभागी बनता है। येसु ने अपने व्यवस्त दिनचर्या के दौरान भी प्रार्थना निंरतर प्रार्थना करते रहे। सुसमाचार में अनके स्थानों पर येसु के प्रार्थना करते होने का जिक्र है। येसु ने अपने जीवन के सभी महत्वपूर्ण अवसरों पर प्रार्थना की।
अपनी शिक्षाओं में प्रभु इस पर अधिक जोर देते हुये कहते हैं, ’’जागते रहो और प्रार्थना करते रहो, जिससे तुम परीक्षा में न पडो।’’ (मती 26:41) प्रार्थना हमें शैतान की धूर्तता के प्रति सजग बनाये रखती है। जब ईसा के शिष्य गूँगे-बहरे अपदूत को लडके से नहीं निकाल सके तो उन्होंने एकांत में ईसा से पूछा, ’हम लोग उसे क्यों नहीं निकाल सके?’ उन्होंने उत्तर दिया, ’प्रार्थना और उपवास के सिवा और किसी उपाय से यह जाति नहीं निकाली जा सकती।’’ (मारकुस 9:28-29) ’हे पिता हमारी’ प्रार्थना में भी येसु शिष्यों को परीक्षा में गिरने से बचने के लिये प्रार्थना करना सिखाते हैं।
प्रार्थना हमें ईश्वर पर निर्भर रहना सिखाती है। हम प्रार्थना में अपना जीवन, जीवन की सारी आवश्यकतायें तथा अभावों को ईश्वर को चढाते हैं। हम विश्वास करते हैं कि चाहे जैसी भी परिस्थितियां हो ईश्वर हमारी मदद करेंगे। ऐसी मानसिकता हमें सांसारिक जोड़-तोड वाली दुर्भावनाओं से बचाये रखती है। संपन्नता में मनुष्य अपने धन-बल पर अधिक ध्यान देता है। वह समझता है कि धन सबकुछ खरीदने में समक्ष है। इसलिये ईश्वर पर भरोसा स्वाभाविक तौर पर कम रहता है। यही कारण है कि लोग परीक्षा में पड जाते है।
प्रलोभन में हमें याद रखना चाहिये कि ईश्वर हमें अकेला नहीं छोडते हैं। ईश्वर पर हमारा भरोसा अटल रहना चाहिये क्योंकि येसु ’’प्रभु धर्मात्माओं को संकटों से छुड़ाने....में समर्थ है।’’(2 पेत्रुस 2:9) ईश्वर प्रार्थना के द्वारा हमारा मनोबल बढाते तथा हर प्रकार के प्रलोभन पर विजयी होने का आश्वासन देते हैं। संत पौलुस यही सत्य बताते हैं, ’’आप लोगों को अब तक ऐसा प्रलोभन नहीं दिया गया है, जो मनुष्य की शक्ति से परे हो। ईश्वर सत्यप्रतिज्ञ है। वह आप को ऐसे प्रलोभन में पड़ने नहीं देगा, जो आपकी शक्ति से परे हो। वह प्रलोभन के समय आप को उससे निकलने का मार्ग दिखायेगा और इस प्रकार आप उस में दृढ़ बने रह सकेंगे।’’ (1कुरि.10:13)
आइये हम भी प्रभु को अपना आदर्श मानते हुये अपने प्रलोभनों पर प्रार्थना तथा उपवास के द्वारा विजय प्राप्त करे।