‘तुम मेरे सेवक हो, मैं तुम में अपनी महिमा प्रकट करूँगा।‘
अति प्राचीन काल से ईश्वरीय बुलाहट अपने चुने हुए सेवको के लिए एक विशेष चुनौती एवं उपलब्धि थी। क्योंकि यह ईश्वरीय बुलाहट न केवल बुलाये गये व्यक्ति के लिए वरन् सारी मानव-जाति के उत्थान के लिए थी, चाहे वे समाज के किसी भी समुदाय के क्यों न हों। मूसा द्वारा इस्राएलियों का मरुभूमि में पथ-प्रदर्शन करना एक मुख्य उपलब्धि थी। मूसा इस्राएलियों के लिए सुख और दुख की दो नदियों की धारा के सदृश्य थे और यही हमारी खीस्तीय जीवन की पहचान है, खीस्तीय जीवन का चिह्न भी।
पुराने विधान के प्रायः सभी नबियों तथा राजाओं ने ईश्वर के वचनों को ईश्वर की प्रजा तक पहुँचाने, उनके जीवन में अवतरित करने एवं व्यवस्थित रखने के लिये असंख्य प्रयास किये है। इतिहास इसका गवाह है। ‘ईश्वर का वचन जीवन्त, सशक्त और किसी भी दुधारी तलवार से तेज हैं’ (इब्रानियों 4:12)। ईश्वर का वचन जिस व्यक्ति पर पड़ता है वह उसके जीवन को अन्धकार से निकालकर ईश्वरमय और ज्योतिर्मय बना दे देता है। उसका जीवन ईश्वर के लिए समर्पित हो जाता है। ईश्वर का वचन जिनके हृदय में वास करता है, वह ईश्वर के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर देता है। यह बात संत पौलुस के जीवन में खरी उतरती है। वे कहते हैं, ‘मेरे लिए तो जीवन हैं मसीह और मृत्यु है उनकी पूर्ण प्राप्ति’ (फिलिप्पियों 1:21)।
आज के पहले पाठ में ईश्वर नबी इसायाह के माध्यम से हमारी बुलाहट पर प्रकाश डालते हैं। बुलाहट एक चुनौती और जिम्मेदारी है जिसे निभाना प्रत्येक मनुष्य का दायित्व है। उसे ईश्वर हमारी योग्यता द्वारा सिद्ध करते हैं। ईश्वर जानते हैं कि किस व्यक्ति में, किस क्षेत्र के कार्य करने की कितनी क्षमता है। उसी के अनुसार वे बुलाहट प्रदान करते हैं। उसे सभी उचित शक्ति और साहस प्रदान कर उसका मनोबल ऊँचा करते हैं। वे नबी इसायाह से कहते हैं कि याकूब के वंशों का उद्धार करने तथा इस्राएल के बचे हुए लोगों को वापस ले आने के लिए ही तुम मेरे सेवक नहीं बने बल्कि जिससे तुम्हारे द्वारा मेरा मुक्ति-विधान संसार के सीमान्तों तक फैल जाये (इसायाह 49:6)। पिता ईश्वर मनुष्यों को अपनी बुलाहट प्रदान करने के बाद उनकी हर संभव सहायता करते रहते हैं, उनमें किसी प्रकार की कमी नहीं आने देते हैं। क्योंकि ईश्वर ने स्वयं कहा है ‘मैं तुमको नहीं छोडूँगा, मैं तुमको कभी नहीं त्यागूँगा। इसलिये हम विश्वस्त होकर यह कह सकते हैं- प्रभु मेरी सहायता करता है। मनुष्य मेरा क्या कर सकता है?’ (इब्रानियों 13:5-6)। ईश्वर अपने वचनों पर अडिग रहते हैं। उनमें किसी प्रकार की अस्थिरता नहीं है। ‘ईश्वर न तो अपने वरदान वापस लेते हैं और न अपना बुलावा रद्द करते हैं (रोमियों 11:29)।
पिता ईश्वर की बुलाहट संत पौलुस के जीवन में उस समय चरितार्थ हुयी, जब वे अपने पापमय जीवन को त्यागकर प्रेरितों की मण्डली में शामिल हुए। इसके पूर्व उन्होंने ईश्वर की कलीसिया पर नाना प्रकार के दोषारोपण करके घोर अत्याचार किया (गलातियों 1:13)। परन्तु जब उन्हें दमिश्क यात्रा के दौरान प्रभु येसु के दर्शन हुए तब उनके नवीन जीवन का आरंभ हुआ। उन्होंने अपना पुराना स्वभाव त्यागकर प्रभु येसु को वस्त्र की तरह धारण कर लिया और अपना जीवन प्रभु येसु के लिए सौंप दिया। इसके पश्चात् उन्होंने निर्भीकतापूर्वक प्रभु येसु के सुसमाचार का प्रचार किया। वे कुरिन्थियों को बताते हैं कि सभी लोग ईसा मसीह द्वारा पवित्र किये गये हैं तथा संत बनने के लिए बुलाये गये हैं’ (कुरिन्थियों 1:12)। वे ईश्वर के वचन के प्रति इतने उत्साहित थे कि उनके लिए केवल येसु खीस्त की प्राप्ति ही जीवन का उद्देश्य था। वे ईश्वर की शक्ति एवं ज्ञान के सामने सांसारिक सुख-सुविधा, धन-दौलत को नगण्य समझने लगे। उन्होंने ‘यदि कोई गर्व करना चाहे, तो वह प्रभु पर गर्व करे’(कुरिन्थियों 1:31) को अपने जीवन का आधार बना लिया।
खीस्तीय इतिहास में हम अनेक धर्मात्माओं एवं संतों के बारे में पढ़ते हैं, जिन्होंने अपने लिये नहीं वरन् प्रभु येसु खीस्त के लिये जीवन निर्वाह किया। जैसे संत बरथोलोमी, जिन्हें आस्तियाजिस ने गिरफ़्तार कर, जल्लादों के हवाले कर दिया और आज्ञा दी गयी कि इसकी खाल जीते जी उतार दी जाये। उस समय उन्होंने प्रार्थना कर कहा ‘हे मेरे प्रभु! हमारे लिए तूने इससे कई गुणा अधिक दुःख सहे। तुझे लाख-लाख धन्यवाद कि तेरे नाम पर यह कष्ट उठाने के लिए मुझे चुना। मेरी आत्मा को ग्रहण कर।’
आज के सुसमाचार में संत योहन प्रभु येसु खीस्त को ईश्वर के मेमने की संज्ञा देते हैं। मेमना निर्दोषता का प्रतीक है, क्योंकि मेमना स्वभाव से नम्र, कोमल और निष्कलंक है। योहन बपतिस्ता की बुलाहट इस्राएलियों को पश्चात्ताप का पाठ पढ़ाना था। इसे उन्होंने अपने जीवन से प्रकट किया। उनके जीवन का उद्देश्य इस्राएलियों को अपने पापों का एहसास करा कर ईश्वर की कलीसिया में शामिल होने के लिये तैयार करना था, क्योंकि वे ईश्वर के विधान से अलग होकर अपने स्वार्थसिद्धि के लिए ईश्वर से दूर भटक गये थे। नम्रता ईश्वरीय गुण है। यह गुण योहन बपतिस्ता के जीवन में झलक उठता था। वे सब कुछ में और सब में ईश्वर के दर्शन करते थे। वे नम्रता के धनी व्यक्ति थे। इसलिए वे कहते हैं, ‘वे बढ़ते जायें और मैं घटता जाऊँ’ (योहन 1:29)।
योहन बपतिस्ता प्रभु येसु को इसलिये भी ईश्वर का मेमना कहते हैं, कि जब यहूदी मिस्र देश की गुलामी से मुक्त हुए थे, उस समय मेमने के रक्त को अपने दीवारों के चौखटों पर पोतकर वे आगामी विपत्ति के प्रकोप से मुक्त हुए थे। इसलिये वे प्रत्येक वर्ष मंदिर में पास्का के मेमने की बलि चढ़ाते थे। नबी इसायाह के ग्रन्थ 53:7 में हमें प्रभु येसु के जीवन का पूर्वाभास होता है, जहाँ एक मेमने का वर्णन किया गया है। मेमना अपने ऊपर किये गये सभी अत्याचार और अपमान दृढ़तापूर्वक सहन कर लेता है और प्रत्युत्तर में कुछ नहीं करता है। ये सभी घटनाएं प्रभु येसु खीस्त के जीवन में अवतरित हुई। शास्त्रियों, फ़रीसियों और महायाजकों ने उन पर अभियोग लगाया और अत्याचार किया। फिर भी प्रभु येसु प्रत्युत्तर में कुछ नहीं बोले और सब कुछ सहते रहे। इसलिए योहन बपतिस्ता आज के सुसमाचार में कहते हैं, ‘देखो- ईश्वर का मेमना, जो संसार के पाप हरता है’ (योहन 1:29)।
आज का युग प्रतिस्पर्द्धा का युग है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी-अपनी उन्नति के लिए आगे बढ़ता चला जा रहा है। वह यह नहीं सोचता कि सब कोई उन्नति के शिखर की ओर बढें। ऐसे समय में सुसमाचारीय वचन हमारे सामने चुनौती लेकर आते हैं- क्या हम अपने प्रभु येसु खीस्त की तरह सबों के उद्धार एवं उन्नति के लिए प्रयास करते हैं? क्या हम सभी व्यक्तियों में ईश्वर के प्रतिरूप को स्पष्ट देखते हैं? क्या हम अपने भाई-बहनों के अंधकारमय जीवन में दीपक बनकर उजियारा देने के लिए तैयार हैं?
आइए, हम इस यूखारिस्तीय बलिदान के दौरान प्रार्थना करें कि हम भी प्रभु येसु के सदृश्य दूसरों की सेवा में अपना जीवन समर्पित करे दें क्योंकि प्रभु येसु भी इस संसार में सेवा कराने नहीं, सेवा करने तथा बहुतों के उद्धार के लिए अपने प्राण देने आये थे।