’’झूठे धन से अपने लिए मित्र बना लो, जिससे उसके समाप्त हो जाने पर वे लोग परलोक में तुम्हारा स्वागत करेंगे।’’(लूकस 16:9) झूठे धन से प्रभु का तात्पर्य इस सांसारिक धन से है जिसको अर्जित करने हेतु हम दिन रात मेहनत करते हैं। प्रभु के अनुसार इस धन के द्वारा हमें वे कार्य करना चाहिए जो प्रभु की दृष्टि में प्रिय है। धन के उपयोग द्वारा परोपकार एवं दया के कार्य वे कार्य हैं जिनसे हमारी परोपकारिता एवं सेवा से लाभान्वित होने वाले लोग ईश्वर को धन्यवाद दें तथा जिनसे ईश्वर की महिमा हो। कुरिन्थियों के नाम अपने दूसरे पत्र में संत पौलुस इसी बात को विस्तृत रूप में बताते हुए कहते हैं, ’’आपका दान..... ईश्वर के प्रति धन्यवाद का कारण बनेगा; क्योंकि सेवा-कार्य न केवल संतों की आवश्यकताओं को पूरा करता है, बल्कि ईश्वर को धन्यवाद देने के लिए बहुत से लोगों को प्रेरित भी करता है। आपका यह सेवा कार्य देख कर वे ईश्वर की महिमा करेंगे...वे आपके लिए ईश्वर से प्रार्थना करेंगे...क्योंकि वे जानते हैं कि ईश्वर ने आप लोगों पर कितना अनुग्रह किया है।’’ (2 कुरि. 9:12-14) इस प्रकार हमारे धन से लोगों को लाभ मिलता है साथ ही साथ ईर का अनुग्रह हम पर बना रहता है। ईश्वर हमारे इन कार्यों तथा इससे हुये अच्छे प्रभाव का पुरस्कार स्वर्ग में हमारे लिए संचित रखता है। ’’अपनी सम्पत्ति बेच दो और दान कर दो। अपने लिए ऐसी थैलियाँ तैयार करो, जो कभी छीजती नहीं। स्वर्ग में एक अक्षय पूँजी जमा करो। वहाँ न तो चोर पहुँचता है और न कीडे खाते है; क्योंकि जहाँ तुम्हारी पूँजी है, वहीं तुम्हारा हृदय भी होगा।’’ (लूकस 12:33-34)
इस तरह हम सांसारिक धन जो नष्ट हो जाता है, से अपने लिए ईश्वर का सच्चा धन प्राप्त कर सकते हैं। इसी शिक्षा को आगे समझाते हुए प्रभु कहते हैं कि हमें हमारे सामाजिक कार्यक्रमों एवं भोजों में गरीबों, शोषितों तथा विकलांगों को बुलाना चाहिए। ऐसा करने के दो परिणाम होते हैं। पहला, जो लोग वास्तव में भूखे तथा सामाजिक रूप से हाशिये पर हैं उनको भोजन तथा सम्मान मिलेगा। वे उपकृत लोग हमारे लिए ईश्वर से कृतज्ञता की प्रार्थना करेंगे। दूसरा, ऐसे लोग कभी भी इस परोपकार को लौटा नहीं पाते हैं। किन्तु ईश्वर जो हमारे सभी पापों एवं पुण्यों को देखता है और उनका हिसाब रखता है, हमें पुरस्कृत करेंगे। ’’पर जब तुम भोज दो, तो कंगालों, लूलों, लँगड़ों और अंधों को बुलाओ। तुम धन्य होगे कि बदला चुकाने के लिए उनके पास कुछ नहीं है, क्योंकि धर्मियों के पुनरुत्थान के समय तुम्हारा बदला चका दिया जायेगा।’’ (लूकस 14:14)
लेकिन बहुताः हमारी सम्पत्ति हमारे कल्याण का स्रोत न बनकर हमारी बुराई का कारण बनती है। इस धन को अर्जित करने के लिए हमें अथक परिश्रम करना पड़ता है। इस प्रक्रिया में शायद हम अनैतिक मूल्यों के साथ समझौता भी कर सकते हैं। इस प्रकार हम ईश्वर की शिक्षा जो ईमानदारी तथा मौलिकता के साथ धन कमाने का आव्हान करती है को दरकिनार कर देते हैं। सांसारिक धन हममें लालच एवं आसक्ति उत्पन्न करता है जो हमें ईश्वरीय कार्यों को करने से रोकता है। हमें सदैव सचेत रहकर धन के प्रिय अपने मोह को ईश्वर की शिक्षा के अधीन रखना चाहिए। धन की अधीनता के परिणाम के प्रति चेतावनी देते हुए प्रभु कहते हैं, ’’धनी के लिए स्वर्ग के राज्य में प्रवेष करना कठिन होगा। मैं यह भी कहता हूँ कि सूई के नाके से होकर ऊँट का निकलना अधिक सहज है, किन्तु धनी का ईश्वर के राज्य में प्रवेष करना कठिन है।’’ (मत्ति 19:23-24)
धनी नवयुवक की भी यही समस्या थी। वह येसु जो सच्चा धन है, से अधिक अपने सांसारिक झूठे धन को प्रेम करता था। प्रभु धन के प्रति उसके प्रेम एवं उसमें उसकी आसक्ति को पहचान जाते हैं। अतः वे उससे कहते हैं, ’’यदि तुम पूर्ण होना चाहते हो, तो जाओ, अपनी सारी सम्पत्ति बेच कर गरीबों को दे दो और स्वर्ग में तुम्हारे लिए पूँजी रखी रहेगी। तब आकर मेरा अनुसरण करो।’’ यह सुन कर वह नवयुवक बहुत उदास होकर चला गया, क्योंकि वह बहुत धनी था।’’ (मत्ती 19:21-22) झूठे धन का मोह सच्चे धन की प्राप्ति में बाधा बन जाता है।
प्रभु मूर्ख धनी के दृष्टांत में धनी को इसलिए मूर्ख कहते हैं कि उसने इस संसार के धन से भोग-विलास करने की योजना बनाते हुये कहा, ’’विश्राम करो, खाओ-पियो और मौज उड़ाओ।’’ उसकी इस मूर्खता पर प्रभु कहते हैं, ’’यही दशा उसकी होती है जो अपने लिये तो धन एकत्र करता है किन्तु ईश्वर की दृष्टि में धनी नहीं है।’’ (लूकस 12:21)
अतः ईश्वर की दृष्टि में कौन धनी है? प्रभु उस कंगाल विधवा को मंदिर में उपस्थित अन्य सभी धनवान व्यक्तियों से अधिक धनवान समझते हैं क्योंकि वह ईश्वर के विश्वास में धनी थी। उसने ईश्वर के पूर्व-प्रबंध पर भरोसा रखकर अपना सबकुछ ईश्वर को दान कर दिया। ईश्वर में हमारा सच्चा विश्वास ही हमारा सच्चा धन है। जैसा कि ईशवचन आश्वासन देता है, ’’आप लोग धन का लालच न करें। जो आपके पास है, उस से संतुष्ट रहें; क्योंकि ईश्वर ने स्वयं कहा है - मैं तुम को नहीं छोडूँगा। मैं तुम को कभी नहीं त्यागूँगा।’’ (इब्रानियों 13:5)
किसी की भी धन-समृद्धि स्थायी नहीं है। जो आज समृद्ध है वह शायद कुछ वर्षों या पीढियों के बाद निर्धन बन जायेगा। जिस प्रकार आज ऐसे कई धनी है जो पहले निर्धन थे। ’’इस समय आप लोगों की समृद्धि उनकी तंगी दूर करेगी, जिससे किसी दिन उनकी समृद्धि आपकी तंगी दूर कर दे और इस तरह बराबरी हो जाये। जैसा कि लिखा है - जिसने बहुत बटोरा था, उसके पास अधिक नहीं निकला और जिसने थोडा बटोरा था उसके पास कम नहीं निकला।’’ (2 कुरि. 8:14-15) अतः हमें प्रकृति के चक्र नहीं भूलना चाहिये तथा उन्मुक्त होकर परोपकार एवं दया के कार्य करना चाहिए ताकि स्वर्गिक पूंजी प्रदान करने के साथ-साथ ईश्वर निर्धनता में भी हमें याद रखेगा।
-फ़ादर रोनाल्ड वॉन