तेरे घर का उत्साह...

राजा दाऊद ने हित्ती ऊरीया की पत्नी बतशेबा के साथ व्यभिचार किया तथा उसके परिणामस्वरूप वह गर्भवती हो गयी। उसने दाऊद को कहला भेजा कि, ’’मैं गर्भवती हूँ।’’ ( 2समूएल 11:5) राजा दाऊद अपने इस व्यभिचार के कार्य को छुपाना चाहते थे। इसलिए वह उस स्त्री के पति ऊरीया को, जो उसका सैनिक था तथा उसकी सेना के साथ युद्ध के मोर्चे पर था, सेना तथा युद्ध का समाचार पूछने के बहाने घर बुलवाते है। राजा दाऊद का उद्देश्य था कि वह इस समयावधि में उसकी पत्नी के साथ रमण करे जिससे राजा दाऊद का व्यभिचार प्रकट न हो। लेकिन ऊरीया एक सच्चा स्वामीभक्त तथा देशभक्त व्यक्ति था। उसने यह कहकर अपने घर एवं अपनी पत्नी के साथ रहने से मना कर दिया कि, ’’विधान की मंजूषा, इस्राएल और यूदा के सब लोग तम्बुओं में रहते हैं। मेरे सेनापति योआब और मेरे स्वामी के सेवक खुले मैदान में रहते हैं और मैं खाने-पीने और अपनी पत्नी के साथ सोने घर जाऊँ? आपके और अपने प्राणों की शपथ! मैं ऐसा नहीं कर सकता।’’ (2समूएल 11:11) जब राजा दाऊद उसे नहीं समझा सका तो उसने ऊरीया को युद्ध में ऐसी जगह तैनात करने का आदेश दिया कि उसकी मृत्यु निश्चित हो जाए।

हित्ती ऊरीया का दोष केवल यही था कि वह अपने राजा एवं देश को अपने सभी लाभों से अधिक प्रेम करता था। उसका देश एवं राजा के प्रति भक्ति एवं उत्साह उसकी मृत्यु का कारण बनता है।

मूसा जब तीन माह के ही थे तो उन्हें फिराउन की राजाज्ञा के अनुसार बाहर फेंक दिया गया तब ’’फिराउन की पुत्री ने उन्हें गोद ले लिया और अपने पुत्र की तरह उनका पालन-पोषण किया। मूसा को मिस्रियों की सब विद्याओं का प्रशिक्षण मिला’’। (प्रेरित-चरित 7: 21-22) इस तरह मूसा को राजपुरुष के सभी शाही अधिकार एवं सुख-सुविधाएं प्राप्त थी। लेकिन जब उन्होंने एक मिस्री को अपने इब्रानी भाईयों पर अत्याचार करते हुए देखा तो मूसा ने मिस्री को मार कर अत्याचार का बदला चुकाया। दूसरे दिन जब मूसा ने दो इस्राएलियों को आपस में झगडते देखा तो उन्होंने दोनों के बीच मेल कराने का प्रयत्न किया। लेकिन, ’’जो व्यक्ति अपने पडोसी के साथ अन्याय कर रहा था, उसने मूसा को ढकेल दिया और कहा, ’किसने तुम को हमारा शासक और न्यार्यकर्ता नियुक्त किया है? कल तुमने उस मिस्री का वध किया। क्या तुम उसी तरह मुझ को भी मार डालना चाहते हो?’ इस पर मूसा वहाँ से भाग निकले और मिदियान में परदेशी के रूप में रहने लगे।’’ (प्रेरित-चरित 7:27-29) इस प्रकार अपने इब्रानी भाईयों के प्रति प्रेम एवं सदभावना के कारण मूसा को न सिर्फ सभी शाही अधिकारों एवं सुविधाओं से वंचित होना पड़ा बल्कि एक अपराधी के तरह भागकर किसी दूसरे देश में परदेशी के रूप में जीवन बिताने के लिए मजबूर भी होना पड़ा। मूसा का दोष केवल यही था कि वे अपने लोगों के प्रति उत्साही एवं बंधुओं से प्रेम करते थे। इसी प्रेम एवं उत्साह के कारण उन पर अनचाही विपत्तियाँ आ पडती है।

जब येसु ने येरुसालेम के मंदिर में ’’बैल, भेडें और कबूतर बेचने वालों को तथा अपनी मेजों के सामने बैठे हुए सराफों को देखा। तो उन्होंने रस्सियों का कोड़ा बना कर भेडों और बैलों-सहित सब को मंदिर से बाहर निकाल दिया, सराफों के सिक्के छितरा दिये, उनकी मेजें उलट दी और कबूतर बेचने वालों से कहा, ’’यह सब यहाँ से हटा ले जाओ। मेरे पिता के घर को बाज़ार मत बनाओं।’’ उनके शिष्यों को धर्मग्रंथ का यह कथन याद आया - तेरे घर का उत्साह मुझे खा जायेगा।’’ (योहन 2:13-17)

प्रभु येसु भी यदि चाहते तो बड़े आराम के साथ अपना जीवन बिता सकते थे। लेकिन वे लोगों से प्रेम करते थे। वे जानते थे कि वे सभी पिता परमेश्वर की संताने हैं, इसलिए वे उन्हें सच्चा मार्ग तथा धर्म का वास्तविक मर्म समझाते थे। लोग उनकी बातें सुनकर अचंभित हो जाते थे तथा उनके चमत्कारों को देखकर विस्मित रह जाते थे किन्तु उनका विरोध भी करते थे। लोग येसु का विरोध इसलिए करते थे कि येसु की बातें उनके जीवन के विरोधाभासों तथा पाखण्ड को प्रदर्शित करती थी। अंत में वे लोग येसु के विरूद्ध षडयंत्र कर उन्हें क्रूस पर मार डालते है। येसु का दोष यही था कि वे लोगों को सही मार्ग की शिक्षा देते, धर्म के प्रति उत्साही तथा अपने पिता परमेश्वर से गहरा प्रेम करते थे। स्तोत्रकार की ईश्वर के प्रति यही गुहार थी, ’’तेरे ही कारण मेरे भाई मुझे पराया समझते हैं और मैं अपनी माता के पुत्रों में परदेशी जैसा बन गया हूँ; क्योंकि तेरे घर का उत्साह मुझे खा जाता है।’’ (स्तोत्र 69:9-10)

इस प्रकार भले, ईमानदार एवं उत्साही लोगों को सच्चाई का साथ देने के कारण दुःख उठाना यहाँ तक कि मर भी जाने के सैकडों उदाहरण मानव इतिहास के पन्नों पर मिल जाते हैं। इन भले लोगों के हश्र के कारण अनेक लोग चाहकर भी सच्चाई का मार्ग साहस एवं निर्भीकता के साथ अपनाने से हिचकिचाते है। वे सोचते है कि हमारे अकेले के बोलने के क्या होगा? या फिर मेरे सच बोलने एवं ईमानदार बने रहने मात्र से संसार धार्मिक नहीं बनेगा? इस प्रकार की निरूत्साही बातों के विचारों से अनेक लोगों का उत्साह नष्ट हो जाता है तथा वे भी अधर्म के कुचक्र के शिकार या समर्थक बन जाते हैं।

हमें सच्चाई एवं परमेश्वर के न्याय के प्रति उत्साह नहीं खोना चाहिए। क्योंकि वास्तव में पिता परमेश्वर हमें कभी भी नहीं त्यागते है। इस संसार के अन्याय एवं अत्याचार के बदले परमेश्वर हमें कहीं अधिक ऊँचा उठाते है। जरा विचार कीजिए, यदि हित्ती ऊरीया अपने देश एवं स्वामी के प्रति ईमानदार एवं उत्साही नहीं होता तो वह अपनी पत्नी के रह जाता। इससे उसका जीवन तो कुछ समय के लिए बच जाता लेकिन सारा जीवन वह अपनी पत्नी की वास्तविकता नहीं पहचान पाता। यदि पुत्र होता भी तो वह उसे अपना ही मानकर अपनाता है जबकि वह तो राजा दाऊद की संतान होता। इस प्रकार ऊरीया का जीवन झूठ की बुनियाद पर बना रहता। लेकिन पिता परमेश्वर ने उसे अपने व्यभिचारी राजा एवं पत्नी के वष में नहीं रहने दिया। बल्कि पूर्ण निर्दोषता को बनाए रखते हुए उसने अपने प्राण त्यागे। धर्मग्रंथ का यह कथन ऊरीया के लिए वास्तविकता बन जाता है जो कहता है, ’’धर्मियों की आत्माएँ ईश्वर के हाथ में हैं।...उसकी आत्मा प्रभु को प्रिय थी, इसलिए प्रभु ने उसे शीघ्र ही चारों ओर की बुराई में से निकाल लिया है।’’ (देखिए प्रज्ञा 3:1; 4:14) उसके त्याग के कारण ही अतः राजा दाऊद का पाप सामने आता है। इस प्रकार ईश्वर अपना न्याय बनाये रखते हैं।

इस प्रकार मूसा को कुछ वर्षों के लिए सबकुछ त्यागकर एक अपराधी के तरह पलायन करना पड़ता है। किन्तु इसी घटना के कारण उसे ईश्वर के दर्शन होते है तथा वह ईश्वर का वाहन बन जाता है। मूसा के जीवन के दुःख भी पिता परमेश्वर की योजना के परिणाम ही थे।

प्रभु येसु को भी अत्यंत दुःख उठाना पडता है स्तोत्रकार की भविष्यवाणी प्रभु के दुःखभोग के बारे में सत्य साबित होती है, जो कहती है, ’’कुकर्मियों का दल मेरे चारों ओर खड़ा हैं। वे मेरे हाथ-पैर छेद रहे हैं। मैं अपनी एक-एक हड्डी गिन सकता हूँ। वे मुझे देखते और घूरते रहते हैं। वे मेरे वस्त्र आपस में बाँटते और मेरे कुरते पर चिट्ठी डालते हैं।’’ (स्तोत्र 22:17-19) लेकिन प्रभु का दुःखभोग एवं मृत्यु व्यर्थ नहीं जाती बल्कि वह मानवमुक्ति का स्रोत बन जाती है।

हमारे सच्चाई के लिए किये गये साहस एवं उत्साह के छोटे-बडे कार्य व्यर्थ नहीं जाते बल्कि पिता परमेश्वर की दृष्टि में बने रहते हैं। पिता परमेश्वर उन कार्यों के द्वारा अनेकों का उद्धार कर देते है। वास्तव में यही ईश्वर की इच्छा भी है कि हम जो ’’प्रभु के शिष्य होने के नाते ’ज्योति बन गये हैं। ज्योति की संतान की तरह आचरण करें।...तथा लोग जो व्यर्थ के काम अंधकार में करते है, उन से आप दूर रहें और उनकी बुराई प्रकट करें।’’(एफेसियों 5:8,14) हम भी साहस, उत्साह एवं निर्भीकता के साथ अंधकार की बुराईयों को प्रकट करे।

-फा. रोनाल्ड वॉन


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