हम गलत कार्य करने के बाउजूत भी अपने को सही प्रमाणित करना चाहते हैं। इसी कारण हम कई बहाने बनाने लगते हैं। या फिर किसी दूसरे व्यक्ति या परिस्थिति को अपनी गलतियों के लिए दोषी ठहराने लगते हैं। लूकस 14:15-25 में हम देखते हैं भोज के लिए आमन्त्रित लोगों ने भोज पर न आने के लिए कई बहाने प्रस्तुत किये। एक ने कहा, “मैंने खेत मोल लिया है और मुझे उसे देखने जाना है।“ दूसरे ने कहा, “मैंने पाँच जोड़े बैल खरीदे हैं और उन्हें परखने जा रहा हूँ”। तीसरे ने कहा, मैंने विवाह किया है, इसलिए मैं न आ सकता”। ये सब उनकी अनुपस्थिति के वास्तविक कारण नहीं थे, बहाने मात्र थे। वास्तव में वे आना नहीं चाहते थे। यह समझना भी कठिन है कि स्वामी उन्हें कुछ कठिन काम करने के लिए नहीं बुला रहे हैं, बल्कि एक भोज में शामिल होने के लिए बुला रहे हैं। फिर भी लोग बहाने बना कर दूर रहते हैं। इस का कारण क्या हो सकता है? ईश्वर हमें कृपा प्रदान करने लिए बुलाते हैं, उनके भोज में शामिल होने के लिए बुला रहे हैं। फिर भी हम विभिन्न प्रकार के बहाने बना कर ईश्वर से दूर रहते हैं।
बहाना बनाने की प्रवणता और दूसरों पर दोष लगाने की प्रवणता अकसर एक साथ पायी जाती हैं। लूकस 7:31-35 में प्रभु कहते हैं, “मैं इस पीढ़ी के लोगों की तुलना किस से करूँ? वे किसके सदृश हैं? वे बाज़ार में बैठे हुए छोकरों के सदृश हैं, जो एक दूसरे को पुकार कर कहते हैं: हमने तुम्हारे लिए बाँसुरी बजायी और तुम नहीं नाचे, हमने विलाप किया और तुम नहीं रोये; क्योंकि योहन बपतिस्ता आया, जो न रोटी खाता और न अंगूरी पीता है और तुम कहते हो-उसे अपदूत लगा है। मानव पुत्र आया, जो खाता-पीता है और तुम कहते हो-देखो, यह आदमी पेटू और पियक्कड़ है, नाकेदारों और पापियों का मित्र है। किन्तु ईश्वर की प्रज्ञा उसकी प्रजा द्वारा सही प्रमाणित हुई है।’’ हम प्रभु को और उनके निमन्त्रणों को स्वीकार न करने के लिए कई बहाने ढ़ूँढ़ते हैं। वास्तव में प्रभु के पास जाने से हमें असुविधाएँ होती हैं। हम उन असुविधाओं से बचना चाहते हैं। साथ ही हम अपने को सही भी साबित करना चाहते हैं।
उत्पत्ति 3 में हम देखते हैं कि पाप करने के बाद आदम ने हेवा पर दोष लगाया और हेवा ने साँप पर। मत्ती 25:24-25 में हम देखते हैं कि जिसे एक हज़ार अशर्फियाँ मिली थीं, उससे जब हिसाब माँगा गया तो उसने कहा, “स्वामी! मुझे मालूम था कि आप कठोर हैं। आपने जहाँ नहीं बोया, वहाँ लुनते हैं और जहाँ नहीं बिखेरा, वहाँ बटोरते हैं। इसलिए मैं डर गया और मैंने जा कर अपना धन भूमि में छिपा दिया। देखिए, यह आपका है, इस लौटाता हूँ।“ इस प्रकार उसने स्वामी पर ही दोष लगाया और स्वामी की कठोरता को अपने परिश्रम न करने का कारण ठहराया जबकि उसका वास्तविक कारण उसका ही आलस्य था। सूक्ति 22:13 में प्रभु का वचन कहता है, “आलसी कहता है, ‘सिंह बाहर खड़ा है, सड़क पर निकलने पर वह मेरा वध करेगा’।“ ऐसे आलसी के भविष्य की क्या दशा होगी, यह भी पवित्र ग्रन्थ हमारे सामने रखता है। सूक्ति ग्रन्थ 20:4 कहता है, “आलसी कार्तिक में हल नहीं चलाता, किन्तु फसल के समय ढूढ़ने पर भी उसे कुछ नहीं मिलेगा।“
रोमियों 1:19-22 में हम पढ़ते हैं, “ईश्वर का ज्ञान उन लोगों को स्पष्ट रूप से मिल गया है, क्योंकि ईश्वर ने उसे उन पर प्रकट कर दिया है। संसार की सृष्टि के समय से ही ईश्वर के अदृश्य स्वरूप को, उसकी शाश्वत शक्तिमत्ता और उसके ईश्वरत्व को बुद्धि की आँखों द्वारा उसके कार्यों में देखा जा सकता है। इसलिए वे अपने आचरण की सफाई देने में असमर्थ है; क्योंकि उन्होंने ईश्वर को जानते हुए भी उसे समुचित आदर और धन्यवाद नहीं दिया। उनका समस्त चिन्तन व्यर्थ चला गया और उनका विवेकहीन मन अन्धकारमय हो गया। वे अपने को बुद्धिमान समझते हैं, किन्तु वे मूर्ख बन गये हैं।“ जो विभिन्न प्रकार के झूठे बहाने बनाते हैं, वे अपने बुद्धिमान समझते हैं, परन्तु वास्तव में वे मूर्ख हैं। बहाने बना कर और दूसरों को अपनी गलतियों के लिए दोषी ठहरा कर वे अपने को ही सच्चाई से वंचित रखते हैं।
जब हम सच्चाई का सामना करना नहीं चाहते हैं, तब हम बहाने बनाने लगते हैं। परन्तु जब तक हम बहाने बनाते रहेंगे तब तक हम धोखे खाते रहेंगे। पाप-स्वीकार के समय भी कई लोग अपने पापों के लिए दूसरों को या परिस्थितियों को कारण बताते हैं। हमें योहन बपतिस्ता को सुनने वाले लोगों की प्रतिक्रिया को अपनाना चाहिए। उन्होंने अपने पापों को ईमानदारी से कबूला और योहन से सवाल किया, “तो हमें क्या करना चाहिए?’’
-फ़ादर फ़्रांसिस स्करिया