संत मत्ती 21:23-27 में हम देखते हैं कि प्रभु येसु मंदिर में शिक्षा दे रहे थे। महायाजक और जनता के नेता उनके पास आकर उन से पूछते हैं, “आप किस अधिकार से यह सब कर रहें हैं? किसने आप को यह अधिकार दिया?” प्रभु येसु ने उन्हें उत्तर दिया, “मैं भी आप लोगों से एक प्रश्न पूछना चाहता हूँ। यदि आप मुझे इसका उत्तर देंगे, तो मैं भी आपको बता दूँगा कि मैं किस अधिकार से यह सब कर रहा हूँ। योहन का बपतिस्मा कहाँ का था? स्वर्ग का अथवा मनुष्यों का?’’ उन लोगों ने प्रभु के प्रश्न के जवाब में कुछ समय तक आपस में परामर्श करने के बाद कहा, “हम नहीं जानते”। उनके वाद-विवाद से हमें पता चलता है कि उन्होंने शायद जानने की कोशिश नहीं की या फिर जानते हुए भी अनजान होने का ढोंग रचा। हमें कई बार स्वर्ग और इस दुनिया के बीच, ईश्वर और मनुष्य के बीच, ईश्वर और शैतान के बीच चयन करना पड़ता है। चयन करने का अवसर स्वतंत्रता का प्रमाण है।
पवित्र ग्रंन्थ हमें बताता है, “ईश्वर ने अपने द्वारा बनाया हुआ सब कुछ देखा और यह उसको अच्छा लगा। सन्ध्या हुई और फिर भोर हुआ यह छठा दिन था।“ (उत्पत्ति 1:31) अब तक तो पूरी सृष्टि हो चुकी थी और ईश्वर को सब कुछ अच्छा लगा। “प्रभु-ईश्वर ने धरती से सब प्रकार के वृक्ष उगायें, जो देखने में सुन्दर थे और जिनके फल स्वादिष्ट थे।” ईश्वर ने जितने भी वृक्षों की इस धरती पर सृष्टि की, वे सब के सब अच्छे ही थे। उनमें जीवन का वृक्ष तथा भले-बुरे के ज्ञान का वृक्ष भी थे। फिर “प्रभु-ईश्वर ने मनुष्य को यह आदेश दिया, ''तुम वाटिका के सभी वृक्षों के फल खा सकते हो, किन्तु भले-बुरे के ज्ञान के वृक्ष का फल नहीं खाना; क्योंकि जिस दिन तुम उसका फल खाओगे, तुम अवश्य मर जाओगे''। भले-बुरे के ज्ञान का वृक्ष भी अच्छा ही था। अगर यह सच है, तो हम कैसे कह सकते हैं कि उस वृक्ष के फल को खाने से आदम और हेवा ने पाप किया? ईश्वर के आज्ञा देने तक एक प्रकार से आदम और हेवा स्वतंत्र नहीं थे। उनके सामने भलाई और अच्छाई के अतिरिक्त कोई विकल्प ही नहीं था। वे कोई चयन नहीं कर सकते थे। आज्ञा देने से ईश्वर उनको स्वतंत्र बना रहे थे, उनको स्वतंत्रता प्रदान कर रहे थे। अब वे अपनी मर्जी से चयन कर सकते हैं।
सन्त पौलुस की प्रज्ञा को परखिए; वे कहते हैं, “मुझे सब कुछ करने की अनुमति है, किन्तु सब कुछ हितकर नहीं। मुझे सब कुछ करने की अनुमति है, किन्तु मैं किसी भी चीज का गुलाम नहीं बनूँगा।“ (1 कुरिन्थियों 6:12) पुन: वे दुहराते हैं, “सब कुछ करने की अनुमति है, किन्तु सब कुछ हितकर नहीं। सब कुछ करने की अनुमति है, किन्तु सब कुछ लाभदायक नहीं।“ (1 कुरिन्थियों 10:23)
स्वतंत्रता के साथ चयन करते समय हमारे सामने प्रभु का यह सवाल खडा रहता है – “स्वर्ग का अथवा मनुष्यों का?” प्रभु कहते हैं, “तुमहारी बात इतनी हो-हाँ की हाँ, नहीं की नहीं“ (मत्ती 5:37)। हमें ईश्वर के सामने ’हाँ’ कहना है, शैतान तथा इस दुनिया के सामने ’नहीं’ कहना है। जिसे परखने से हमें स्वर्ग का मालूम पड़ता है, उसी को हमें चुनना है। आदम और हेवा अपने चयन में हार गये। हमारे पिता इब्राहीम की बात लीजिए। युध्द में विजयी होने पर सोदोम के राजा ने अब्राम को बहुत कुछ इनाम में देना चाहा, परन्तु अब्राम ने सोदोम के राजा से कहा, “स्वर्ग और पृथ्वी के सृष्टिकर्ता प्रभु-ईश्वर की शपथ! डोरे का एक छोटा टुकड़ा हो या जूते की एक पट्टी - मैं तुम्हारी कोई भी चीज नहीं लूँगा, जिससे तुम यह न कह सको कि मैंने अब्राम को धनी बनाया है।“ (उत्पत्ति 14:22-23) जो ईश्वर के हाथ से नहीं आता, उससे हमारी वास्तविक प्रगति नहीं हो सकती है। ईश्वर के हाथों से कुछ भी लेने के लिए हमें तैयार रहना चाहिए। योब कहते हैं, “हम ईश्वर से सुख स्वीकार करते हैं, तो दुख क्यों न स्वीकार करें” (योब 2:10)। सन्त पौलुस कहते हैं, “हम चाहे घर में हों, चाहे परदेश में, हमारी एकमात्र अभिलाषा यह है कि हम प्रभु को अच्छे लगे” (2 कुरिन्थियों 5:9)। प्रेरितों ने इस दृष्टिकोण को अपनाया था। इसलिए तो जब यहूदी महासभा ने सन्त पेत्रुस और योहन को प्रभु येसु के नाम के प्रचार करने से रोकना चाहा और उन्हें चुप रहने का आदेश दिया, तो प्रेरितों ने कहा, “आप लोग स्वयं निर्णय करें - क्या ईश्वर की दृष्टि में यह उचित होगा कि हम ईश्वर की नहीं, बल्कि आप लोगों की बात मानें?” (प्रेरित-चरित 4:19)।
सच्चे चयन करने के लिए हमें स्वतंत्रता चाहिए और सत्य ही हमें स्वतंत्र बना सकता है। प्रभु येसु ही सत्य है। जो सही ढ़ंग से स्वतंत्र हैं, वे ईश्वर के पक्ष में चयन करते हैं। जब हम पाप के अंधकार में उतरते हैं, तब हम ईश्वर को या उनके गुणों को चुन नहीं सकते हैं। ईश्वर ही हमें स्वतंत्रता के साथ चयन करने की क्षमता प्रदान कर सकते हैं। जब येसु ने ज़केयुस से मुलाकात की और उसे स्वतंत्रता प्रदान की, तो उसने मनुष्य से जो भी प्राप्त किया था, उसे लौटाने का दृढ़संकल्प किया (देखिए लूकस 19)। जब ईश्वर ने समारी स्त्री को स्वतंत्रता प्रदान की तो उसने भी अपनी दुनियावी जीवन को त्यागने का निर्णय लिया। आज हमारी बारी है। हम क्या चुनना चाहेंगे – ईश्वर का या मनुष्य का?