भारत की छवि तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था के रूप में उभर रही है। सड़कों, गगनचुंभी इमारतों, तथा उपरिपुलों आदि का निर्माण बड़े पैमाने पर हो रहा है। मोबाइल फोन जैसे उपकरण हरेक व्यक्ति के दैनिक उपयोग के लिए ज़रूरी समझे जा रहे हैं। संचार माध्यमों का इतना विस्तार हो चुका है कि बालकों तथा युवाजनों पर इसका बहुत असर देखने को मिल रहा है। इन कार्यों का समाज के हर एक तबके के लोगों के विचार तथा भावनाओं पर विभिन्न प्रकार का असर पड़ रहा है।
परिवारों की एकता, सामाजिक मूल्यों एवं नैतिकता पर इस आर्थिक तरक्की का बड़ा नकारात्मक प्रभाव भी हो रहा है। प्रभु का यह कहना है कि धनी के लिए स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करना सुई के नाके से होकर ऊँट के निकलने से अधिक कठिन है (देखिए मत्ती 19:23)। यह मापदण्ड सभी धनियों के लिये लागू है। धन के साथ-साथ सुख लोलुपता बढ़ती है जो प्रलोभन के कारण बनती है। धनी शरीर की वासनाओं की पूर्ति करने के लिए अपने धन का उपयोग करने लगता है। वह कभी तृप्त नहीं होता। जिस मंजिल की वह तलाश करता है, वह एक मरीचिका बनकर उसे पास आते देखकर उससे दूर भागती रहती है। यह उस के लिए असंतोष व निराशा का कारण बनता है। संत पौलुस तिमथी को लिखते हुए कहते हैं, ’’हम न तो इस संसार में कुछ अपने साथ ले आये और न यहाँ से कुछ साथ ले जा सकते हैं। यदि हमारे पास भोजन-वस्त्र हैं, तो हमें इस से संतुष्ट रहना चाहिए। जो लोग धन बटोरना चाहते हैं, वे प्रलोभन और फन्दे में पड़ जाते हैं और ऐसी मूर्खतापूर्ण तथा हानिकर वासनाओं के शिकार बनते हैं, जो मनुष्यों को पतन और विनाश के गर्त्त में ढकेल देती हैं; क्योंकि धन का लालच सभी बुराईयों की जड़ है। इसी लालच में पड़ कर कई लोग विश्वास के मार्ग से भटक गये और उन्होंने बहुत-सी यंत्रणाएँ झेलीं।’’ (1तिमथी 6:7-10)।
धनी ईश्वर पर भरोसा रखने के बजाय अपने धन को ही अपना स्वामी बना लेता है तथा घमण्डी बनता जाता है। संत पौलुस कहते हैं, ’’इस संसार के धनियों से अनुरोध करो कि वे घमण्ड न करें और नश्वर धन-सम्पत्ति पर नहीं, बल्कि ईश्वर पर भरोसा रखें, जो हमारे उपभोग की सब चीज़ें पर्याप्त मात्रा में देता है। वे भलाई करते रहें, सत्कर्मों के धनी बनें, दानशील और उदार हों। इस प्रकार वे अपने लिए एक ऐसी पूँजी एकत्र करेंगे, जो भविष्य का उत्तम आधार होगी और जिसके द्वारा वे वास्तविक जीवन प्राप्त कर सकेंगे।’’ (1 तिमथी 6:17-19) भारत की कलीसिया की यह जिम्मेदारी है कि जैसे-जैसे हमारी अर्थव्यवस्था सुधरती जाती है, हमारे राष्ट्रवासियों को विशेषतः ख्रीस्तीय विश्वासियों को उदारता, संवेदनशीलता तथा दानशीलता में आगे बढ़ने को सिखाये।
गरीबी अब भी भारत देश की एक बड़ी समस्या है। अमीर तथा गरीब के बीच का अंतर बढ़ता जा रहा है। इस स्थिति में कलीसिया को गरीबों का पक्ष लेना तथा उनकी उन्नति के लिए परिश्रम करना अनिवार्य है। गरीबों के उद्धार के लिए हमें हर संभव प्रयत्न करना चाहिए। हमारी हर योजना में हमें गरीबों का विशेष ध्यान रखना चाहिए। आदिम कलीसिया में गरीबों का बडा ख्याल रखा जाता था। विकास और आर्थिक उन्नति की भाग-दौड़ में ज़रूरतमंद लोगों को भूलना इनसानियत तथा ख्रीस्तीयता के विरुद्ध पाप है। संत योहन कहते हैं, ’’हम प्रेम का मर्म इसी से पहचान गये कि ईसा ने हमारे लिए अपना जीवन अर्पित किया और हमें भी अपने भाइयों के लिए अपना जीवन अर्पित करना चाहिए। किसी के पास दुनिया की धन-दौलत हो और वह अपने भाई को तंगहाली में देखकर उस पर दया न करे, तो उस में ईश्वर का प्रेम कैसे बना रह सकता है।’’ (1 योहन 3:16,17)
गरीबी का एक प्रमुख कारण बेरोज़गारी है। रोज़ी रोटी की तलाष में कभी कभी मनुष्य को अपने प्रियजनों तथा मातृभूमि को छोड़कर परदेश में जाकर रहना पड़ता है। यह स्थानान्तरण प्रवासी लोगों को विभिन्न कठिन तथा प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करने को बाध्य करता है। ऐसे निराश्रित मनुष्यों के प्रति सहानुभूति बरतना तथा उनकी मदद करना हमारा कत्र्तव्य है।
आबादी की समस्या के निवारण हेतु सरकार और अन्य संस्थाएं विभिन्न उपायों का प्रचार कर रही हैं। इस के साथ उपभोक्तावाद के जड़ पकड़ने का खतरा समाज पर मंडराता रहता है। इस संदर्भ में मानवीय मूल्यों पर जोर देना कलीसियाई शिक्षकों का दायित्व है। गर्भपात ईश्वर और मनुष्य के खिलाफ घोर अपराध है। ईश्वर के सिवा और किसी को किसी की जान लेने का हक़ नही है। इसलिए ख्रीस्तीय विश्वासियों को इस पाप से न सिर्फ हमेषा बचकर रहना चाहिए, बल्कि इसका हर संभव विरोध भी करना चाहिए।
कहा जाता है कि संत पापा पीयुस ग्यारहवें ने रोम के पुरोहितों से एक बार पूछा, ’’कलीसिया के कौन-कौन से अंग हैं?’’ किसी पुरोहित ने कलीसिया के परम्परागत चार अगों को दोहराया जिसे उसने अपने बचपन में ही धर्म शिक्षा की कक्षा में कंठस्थ कर लिया था, ’’एक, पवित्र, कैथलिक और प्रेरितिक’’। पापा ने कहा, ’’एक और जोड़िए- उत्पीड़ित। वास्तव में कलीसिया शुरूआत से ही उत्पीड़न का शिकार थी। प्रभु ने कहा भी था, ’’यदि उन्होंने मुझे सताया, तो वे तुम्हें भी सतायेंगे’’ (योहन 15:20)। उत्पीड़न का मुकाबला करते समय कलीसिया न हिंसात्मक प्रतिक्रिया अपना सकती हैं, और न ही निराशा में पड़ सकती है। कलीसिया का हमेशा यह अनुभव रहा है कि उत्पीड़न से कलीसिया बढ़ती है, न कि घटती है। हरेक विश्वासी को हमेशा प्रभु में विश्वास रखकर भलाई करते हुए आगे बढ़ना है। संत पेत्रुस कहते हैं, ’’आप बुराई के बदले बुराई न करें और गाली के बदले गाली नहीं, बल्कि आशीर्वाद दें। आप यही करने बुलाये गये हैं; जिससे आप विरासत के रूप में आशीर्वाद प्राप्त करें’’। (1 पेत्रुस 3:9)। वे आगे कहते हैं, ’’यदि आप को धार्मिकता के कारण दुःख सहना पड़ता है, तो आप धन्य हैं। आप उन लोगों से न तो डरें और न घबरायें। अपने हृदय में प्रभु मसीह पर श्रद्धा रखें। जो लोग आपकी आशा के आधार के विषय में आप से प्रश्न करते हैं, उन्हें विनम्रता तथा आदर के साथ उत्तर देने के लिए सदा तैयार रहें। अपना अन्तःकरण शुद्ध रखें। इस प्रकार जो लोग आप को बदनाम करते हैं और आपके भले मसीही आचरण की निन्दा करते हैं, उन्हें लज्जित होना पडे़गा। यदि ईश्वर की यही इच्छा है, तो बुराई करने की अपेक्षा भलाई करने के कारण दुःख भोगना कहीं अच्छा है’’ (1 पेत्रुस 4:12-19)।
हमारे देश में कई नेता राजनीति से प्रेरित होकर साम्प्रदायिकता तथा जातिवाद को बढ़ावा दे रहे हैं। इसके फलस्वरूप लोगों में एक-दूसरे के प्रति ईष्र्या तथा नफ़रत की भावना उत्पन्न हो रही है। धर्म और जाति के नाम पर लोग आपस में लड़ते-झगड़ते तथा बेदर्दी से एक-दूसरे का खून बहाते हैं। वे एक-दूसरे के धार्मिक स्थलों को गिराने में गर्व महसूस करते हैं। इस प्रकार के वातावरण में ख्रीस्तीय विश्वासियों की चुनौती यह होती है कि वे खुद साम्प्रदायिकता तथा विभाजन की ताकतों से दूर रहें और दूसरों को भी सहानुभूति, मेल-मिलाप तथा सहिष्णुता का रास्ता अपनायें और दूसरों को भी ऐसे करने सिखायें।
ख्रीस्तीय विश्वासियों को जाति व वर्ग आधारित हर प्रकार के भेदभाव से दूर रहना चाहिए। सन्त पौलुस कुरिन्थियों को लिखते हुए उन्हें ’’एकमत हो कर दलबन्दी से दूर रहने’’ की सलाह देते हैं (देखिए कुरिन्थियों 1:10)। ख्रीस्तीय विश्वासियों को हर प्रकार के विभेदीकरण, पक्षपात तथा भेदभाव से दूर रहना चाहिए (देखिए गलातियों 3:26-28)।
हर ख्रीस्तीय विश्वासी सभी मनुष्यों को अपने भाई-बहन मानता है। यह मनोभाव उसे हरेक के कल्याण के लिए प्रयत्न करने हेतु प्रेरित करता है। इसी कारण उसे महिलाओं पर किये जाने वाले अत्याचार, बाल शोषण, नषापान, आतंकवाद, हिंसा आदि का विरोध अपने वचन और आचरण से करना चाहिए। पर्यावरण की रक्षा तथा प्रकृति का संतुलन बनाये रखना आदि भी उसकी नैतिक जिम्मेदारी बनती है। इस प्रकार हरेक ख्रीस्तीय विश्वासी को ईश्वरीय राज्य की स्थापना में अपना सहयोग देना चाहिए।
1. निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
1. विकास और आर्थिक उन्नति के समय ख्रीस्तीय विश्वासियों को किस प्रकार सतर्क रहना चाहिए?
2. उत्पीड़न के सामना करते समय कलीसिया को किस प्रकार का दृष्टिकोण अपनाना चाहिए?
3. गरीबों के प्रति ख्रीस्तीय विश्वासियों का क्या कत्र्तव्य है?
4. साम्प्रदायिकता तथा जातिवाद के सामने ख्रीस्तीय विश्वासियों को किस प्रकार की प्रतिक्रिया अपनाना चाहिए?
2. दलीय कार्यः कलीसिया की किसी एक वर्तमान चुनौती को दर्शाते हुए एक लघु नाटिका प्रस्तुत कीजिए।