कलीसियाइ इतिहास

1 - प्रारम्भिक कलीसिया

पुनरुत्थान के बाद चालीस दिन तक प्रभु येसु शिष्यों को दिखाई देते रहे और उनको ईश्वर के राज्य के विषय में शिक्षा देते रहे। (प्रेरित-चरित 1:1-3) उन्होने शिष्यों से कहा, ‘‘मुझे स्वर्ग में और पृथ्वी पर पूरा अधिकार मिला है। इसलिए तुम लोग जा कर सब राष्ट्रों को शिष्य बनाओ और उन्हें पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा के नाम पर बपतिस्मा दो। मैंने तुम्हें जो-जो आदेश दिये हैं, तुम लोग उनका पालन करना उन्हें सिखलाओ और याद रखो -मैं संसार के अन्त तक सदा तुम्हारे साथ हूँ।‘‘ (मत्ती 28:18-20)। उन्होंने शिष्यों को यह भी आदेश दिया कि वे येरुसालेम न छोड़ें, बल्कि पवित्र आत्मा की प्रतीक्षा करें। प्रभु येसु शिष्यों के देखते-देखते स्वर्ग में आरोहित कर लिये गये।

शिष्य येरुसालेम गये तथा ‘‘अटारी पर चढ़े, जहाँ वे ठहरे हुए थे। वे थे-पेत्रुस तथा योहन, याकूब तथा अन्द्रेयस, फिलिप तथा थोमस, बरथोलोमी तथा मत्ती, अलफाई का पुत्र याकूब तथा सिमोन, जो उत्साही कहलाता था और याकूब का पुत्र यूदस। ये सब एक हृदय हो कर नारियों, ईसा की माता मरियम तथा उनके भाइयों के साथ प्रार्थना में लगे रहते थे।‘‘ (प्रेरित-चरित 1:13-14) ‘‘जब पेंतेकोस्त का दिन आया और सब शिष्य एक स्थान पर इकट्ठे थे, तो अचानक आँधी-जैसी आवाज़ आकाश से सुनाई पड़ी और सारा घर, जहाँ वे बैठे हुए थे, गूँज उठा। उन्हें एक प्रकार की आग दिखाई पड़ी, जो जीभों में विभाजित हो कर उन में हर एक के ऊपर आ कर ठहर गयी। वे सब पवित्र आत्मा से परिपूर्ण हो गये और पवित्र आत्मा द्वारा प्रदत्त वरदान के अनुसार भिन्न-भिन्न भाषाएँ बोलने लगे।‘‘(प्रेरित-चरित 2:1-4)

पेंतेकोस्त के दिन पवित्र आत्मा के आगमन के साथ येरुसालेम में कलीसिया का औपचारिक उद्घाटन हुआ। अन्य शिष्यों के साथ खड़े होकर जब पेत्रुस ने येसु के पुनरुत्थान का साक्ष्य दिया तब उस से प्रभावित होकर उस दिन करीब तीन हजार लोगों ने मसीह में विश्वास किया और वे बपतिस्मा ग्रहण कर शिष्यों में सम्मिलित हो गये।(प्रेरित-चरित 2:41)

विश्वासियों का यह समुदाय एक हृदय और एक प्राण था (प्रेरित-चरित 4:32)। उनके पास जो कुछ था, उसमें सबों का साझा था। सबों की ज़रूरतों का बराबर ध्यान रखा जाता था (प्रेरित-चरित 4:34-35)। उनके बीच आपसी भाई-चारा था। वे दत्तचित्त होकर प्रेरितों की शिक्षा सुनते थे। वे सब मिलकर प्रतिदिन मन्दिर जाते तथा सामूहिक प्रार्थनाओं में नियमित रूप से शामिल हुआ करते थे। वे निजी घरों में प्रभु-भोज में सम्मिलित होकर निष्कपट हृदय से आनन्दपूर्वक एक साथ भोजन करते थे। (प्रेरित-चरित 2:42-47) प्रेरितों के प्रचार का मुख्य मुद्दा येसु का पुनरुत्थान था। वे चमत्कारों एवं चिन्हों से प्रभु का साक्ष्य देते थे (प्रेरित-चरित 5:12) और इसके फलस्वरूप विश्वासियों की संख्या में दिनों-दिन वृद्धि हो रही थी (प्रेरित-चरित 5:14, 6:7)।

विश्वासियों की बढ़ती संख्या के कारण रसद वितरण में अनियमता होने लगी और लोगों में असंतोष फैलने लगा। प्रेरितों ने इस समस्या से निपटने के लिए लोगो को उनके बीच से पवित्र आत्मा से परिपूर्ण सात बुद्धिमान तथा ईमानदार व्यतियों को चुनने का सुझाव दिया। लोगों ने स्तेफनुस, फिलिप, प्रोखोरूस, निकानोर, तिमोन, परमेनास और निकोलास को चुना। प्रेरितों ने स्वयं प्रार्थना एवं वचन की सेवा में लगे रहने का निर्णय लिया (प्रेरित-चरित 6:1-6)।

प्रारम्भ से ही कलीसिया को विरोध का सामना करना पड़ा। यहूदी धार्मिक नेता येसु के नाम के प्रचार से चिंतित होने लगे, क्योंकि लोग बड़ी संख्या में येसु में विश्वास कर रहे थे। इसलिए वे शिष्यों को सताने लगे (प्रेरित-चरितं 4:18,21; 5:17-18)।

धर्मसेवक स्तेफनुस अनुग्रह तथा सामथ्र्य से परिपूर्ण होकर जनता के सामने बहुत से चमत्कार तथा चिन्ह दिखाते थे। वे पवित्र आत्मा से प्रेरित होकर सुसमाचार की घोषणा करते थे। ‘दास्यमुक्त’ नामक सभागृह के कुछ सदस्यों और कुरेने, सिकन्दरिया, किलिकिया तथा एषिया के कुछ लोगों ने घूस देकर कुछ व्यक्तियों से यह झूठी गवाही दिलवायी कि हमने स्तेफनुस को मूसा तथा ईश्वर की निन्दा करते सुना। वे स्तेफनुस को महासभा के सामने ले गये। स्तेफनुस ने महासभा के सामने भी निडर होकर प्रभु येसु के सुसमाचार की घोषणा की। उन्हें ईश्वर की महिमा तथा पिता ईश्वर के दाहिने विराजमान येसु का दर्षन हुआ। लोग स्तेफनुस को पकड़कर शहर के बाहर निकालकर उन्हें पत्थर मारते रहे। तब उन्होंने यह प्रार्थना की, ’’प्रभु ईसा! मेरी आत्मा को ग्रहण कर’’। फिर वे घुटने टेक कर ऊँचे स्वर से वे बोले, ‘‘प्रभु! यह पाप इन पर मत लगा।‘‘ यह कह कर उन्होंने प्राण त्याग दिये।

स्तेफनुस की हत्या के साथ अन्य विश्वासियों पर भी अत्याचार होने लगे (प्रेरित-चरित 6:8,7:1,8:3,8:1-33)। उत्पीड़न का सामना करने की शक्ति के लिए विश्वासीगण प्रार्थना करते थे (प्रेरित-चरित 4:29, 5:40)। येरुसालेम में जब अत्याचार बहुत बढ़ने लगा, तब विश्वासी उससे बचने के लिए यहूदिया एवं समारिया के देहातों में बिखर गये। कुछ फेनिसिया, कुप्रुस तथा अन्ताखिया तक पहुँच गये (प्रेरित-चरित 11:19)। जो बिखर गये थे वे घूम-घूम कर सुसमाचार का प्रचार करते रहे (प्रेरित-चरित 8:4)। इसके फलस्वरूप कई गैर यहूदियों ने भी प्रभु पर विश्वास किया।

जब लोग धर्मसेवक स्तेफनुस पर पत्थर मार रहे थे तब गवाहों ने अपने कपड़े साऊल नामक एक नवयुवक के पैरों पर रख दिये। साऊल का जन्म किलिकिया के तरसुस नगर में हुआ था, किन्तु उनका पालन-पोषण येरुसालेम में हुआ। गमालिएल के चरणों में बैठकर उन्हें पूर्वजों की संहिता की कट्टर व्याख्या के अनुसार शिक्षा-दीक्षा मिली। वे ख्रीस्तीयों का विरोध कर उनके ऊपर घोर अत्याचार करते तथा करवाते थे। उन्होंने प्रधानयाजक के पास जाकर दमिश्क के सभागृहों के नाम पत्र माँगे, जिन में उन्हें अधिकार दिया गया कि यदि वे वहाँ ख्रीस्तीय विश्वासियों का पता लगायें, तो वे उन्हें- चाहे वे पुरुष हों या स्त्रियाँ- बाँध कर येरुसालेम ले आये। जब वे यात्रा करते-करते दमिश्क के पास पहुँचे, तो उन्हें प्रभु येसु के दर्षन हुए। इस घटनाक्रम का विवरण हम प्रेरित-चरित 9 और 22 में पाते हैं। इस घटना का साऊल पर बहुत प्रभाव पड़ा। उनका मन परिवर्तन हुआ तथा वे ‘पौलुस‘ नाम से जाने जाने लगे। यही सन्त पौलुस के प्रेरितिक जीवन की शुरुआत थी।

फरीसी संप्रदाय के कुछ सदस्य जो विश्वासी हो गये थे गैर यहूदियों को स्वीकार नहीं कर सके, क्योंकि उन्होंने खतना नहीं किया था और वे मूसा की संहिता का पालन नहीं करते थे। इस समस्या का समाधान निकालने के लिए येरुसालेम में प्रेरित और अलग-अलग समुदायों के अध्यक्ष एकत्र हुए (प्रेरित-चरित 15:1-6)। काफी विचार विमर्ष के बाद यह तय किया गया कि विश्वासी बनने के लिए किसी को खतने की आवष्यकता नहीं है। वे सिर्फ देव-मूर्तियों पर चढ़ाये हुए मांस से, व्यभिचार से, गला घोटे हुए पशुओं के मांस से और रक्त से परहेज करें (प्रेरित-चरित 15:28-29)। यह कलीसिया की पहली महासभा थी।

येरुसालेम की कलीसिया बहुत गरीब थी। इसलिए अन्य प्रान्तों के विश्वासी उनके लिये चन्दा इकट्ठा करके भेजते थे (प्रेरित-चरित 11:29-30,15:25-28;16:1-4)। याकूब (जो नयादी कहलाते थे) येरुसालेम की कलीसिया का संचालन करते थे। विश्वासियों के बीच येरुसालेम की कलीसिया का विशेष स्थान था। चूँकि प्रेरित यहीं पर थे अन्य प्रान्तों की कलीसियाओं के अध्यक्ष निर्देश के लिए उनके पास आते थे।

1. निम्न प्रश्नों के उत्तर लिखिए:-
1. स्वर्गारोहण के पहले प्रभु येसु ने अपने शिष्यों को क्या आदेश दिया था?
2. कलीसिया का औपचारिक उद्घाटन कब और कैसे हुआ?
3. प्रारम्भिक कलीसिया के जीवन का वर्णन कीजिए?
4. रसद वितरण की समस्या को शिष्यों ने कैसे सुलझाया?
5. स्तेफनुस कौन था? उन्होंने कैसे सुसमाचार का साक्ष्य दिया?
6. प्रारम्भ्कि कलीसिया ने अत्याचारों का सामना कैसे किया?
7. साऊल कौन था? उनका मन परिवर्तन कैसे हुआ?
8. प्रारम्भिक कलीसिया ने गैर यहूदियों के बारे में क्या निर्णय लिया?

2. रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए।
1. विश्वासियों की बढ़ती संख्या के कारण ............... में अनियमता होने लगी।
2. ..................... से प्रदत्त वरदान के कारण वे भिन्न-भिन्न भाषायें बोलने लगे।
3. ...................... की कलीसिया बहुत गरीब थी।
4. कलीसिया की पहली महासभा ................ में हुई।
5. प्रेरितों के प्रचार का मुख्य मुद्दा येसु का ........................... था।

3. दलीय कार्यः निम्न दृश्यों को नाटकीय रूप में प्रस्तुत कीजिए।
1. प्रेरित-चरित 2: पेन्तेकोस्त
2. प्रेरित-चरित 4:32: आपसी भाईचारा
3. प्रेरित-चरित 7: स्तेफनुस की हत्या
4. प्रेरित-चरित 9 और 22: साऊल का मन परिवर्तन

4. भला कार्य।
1. अपने इलाके में एक ज़रूरतमंद व्यक्ति की तलाश कर इसी सप्ताह में उसकी मदद कीजिए तथा उस कार्य का विवरण प्रस्तुत कीजिए।





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