दिसंबर 27, 2024, शुक्रवार

ख्रीस्त जयन्ती सप्ताह
सन्त योहन - प्रेरित

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📒 पहला पाठ: योहन का पहला पत्र 1:1-4

1) हमारा विषय वह शब्द है, जो आदि से विद्यमान था। हमने उसे ुसुना है। हमने उसे अपनी आंखों से देखा है। हमने उसका अवलोकन किया और अपने हाथों से उसका स्पर्श किया है। वह शब्द जीवन है

2) और यह जीवन प्रकट किया गया है। यह शाश्वत जीवन, जो पिता के यहाँ था और हम पर प्रकट किया गया है- हमने इसे देखा है, हम इसके विषय में साक्ष्य देते ओर तुम्हें इसका सन्देश सुनाते हैं।

3) हमने जो देखा और सुना है, वही हम तुम लोगों को भी बताते हैं, जिससे तुम हमारे साथ पिता और उस के पुत्र ईसा मसीह के जीवन के सहभागी बनो।

4) हम तुम्हें यह लिख रहे हैं, जिससे हम सबों का आनन्द परिपूर्ण हो जाये।

📒 सुसमाचार : सन्त योहन 20:1a,2-8

1) मरियम मगदलेना सप्ताह के प्रथम दिन,

2) सिमोन पेत्रुस तथा उस दूसरे शिष्य के पास, जिसे ईसा प्यार करते थे, दौडती हुई आकर कहा, ’’वे प्रभु को कब्र में से उठा ले गये हैं और हमें पता नहीं कि उन्होंने उन को कहाँ रखा है।’’

3) पेत्रुस और वह दूसरा शिष्य कब्र की ओर चल पडे।

4) वे दोनों साथ-साथ दौडे। दूसरा शिष्य पेत्रुस को पिछेल कर पहले कब्र पर पहुँचा।

5) उसने झुककर यह देखा कि छालटी की पट्टियाँ पडी हुई हैं, किन्तु वह भीतर नहीं गया।

6) सिमोन पेत्रुस उसके पीछे-पीछे चलकर आया और कब्र के अन्दर गया। उसने देखा कि पट्टियाँ पडी हुई हैं।

7) और ईसा के सिर पर जो अँगोछा बँधा था वह पट्टियों के साथ नहीं बल्कि दूसरी जगह तह किया हुआ अलग पडा हुआ है।

8) तब वह दूसरा शिष्य भी जो कब्र के पास पहले आया था भीतर गया। उसने देखा और विश्वास किया,

📚 मनन-चिंतन

पिछले कुछ दिनों में हमने जो पाठ सुना है उसके बाद आज का सुसमाचार थोड़ा अलग है। यह सुसमाचार उस दृश्य को प्रस्तुत करता है जो येसु के क्रूस पर चढ़ने के ठीक बाद घटित होता है। यह वह दृश्य है जहां मरियम मैग्डलीन, पेत्रुस और योहन के पास दौड़ती हुई आती है और उन्हें बताती है कि किसी ने येसु के शरीर को कब्र से निकाल लिया है। मरियम घबरा गयी क्योंकि येसु का शरीर गायब हो गया था! क्या आपने अपने जीवन में कभी ऐसा अनुभव किया है जब येसु गायब हो गए हों? क्या कोई ऐसा समय था जब आपको अपने जीवन में येसु की अनुपस्थिति महसूस हुई? यह समय बहुत अंधकारमय, भयानक हो सकता है और हम खोया हुआ और अकेला महसूस कर सकते हैं। यह अनुभव संक्षिप्त हो सकता है या कई दिनों या हफ्तों तक चल सकता है। हम येसु की उपस्थिति की इस “अनुभूत हानि“ पर कैसे प्रतिक्रिया दें? क्या हम यह जानने की कृपा के लिए प्रार्थना कर सकते हैं कि येसु हमें नहीं छोड़ेंगे!

फादर अल्फ्रेड डिसूजा (भोपाल महाधर्मप्रांत)

📚 REFLECTION


The Gospel today is a bit trembling after the readings we have heard in the past couple of days. This Gospel presents the scene that takes place right after Jesus’ crucifixion. It is the scene where Mary Magdalene comes running to Peter and John and tells them that someone has taken Jesus’ body from the tomb. Mary panics because Jesus’ body has disappeared! Have you ever experienced a time in your life when Jesus seems to have disappeared? A time when you felt the absence of Jesus in your life? These times can be very dark, frightening, and we may feel lost and alone. This experience may be brief or it may go on for days or weeks. How do we respond to this “felt loss” of Jesus’ presence? May we pray for the grace to know that Jesus will not abandon us!

-Fr. Alfred D’Souza (Bhopal Archdiocese)

📚 मनन-चिंतन-2

आज माता कलिसिया प्रेरित एवं सुसमाचार लेखक सन्त योहन का पर्व मनाती है। सन्त योहन के बारे में बहुत अधिक विवरण नहीं मिलता, यहाँ तक कि दूसरे शिष्यों की तरह कहीं-कहीं तो उसका नाम तक नहीं लिखा है। लेकिन सुसमाचार में उसे एक अलग नाम से दर्शाया गया है। उसका नाम है - प्रभु येसु का प्रिय शिष्य, अथवा वह शिष्य जिसे प्रभु प्यार करते थे। उनका यह नाम ही उनकी एक स्पष्ट छवि हमें दर्शाता है और उनका सटीक चरित्र-चित्रण करता है।

प्रभु किसे प्यार करेंगे? जिस तरह से सन्त योहन ने प्रभु येसु को करीब से अनुभव किया, उसी तरह से यदि हम भी प्रभु का अनुभव करेंगे तो प्रभु येसु का स्वभाव जान जाएंगे। प्रभु येसु उस व्यक्ति को प्यार करेंगे जिसका हृदय शुद्ध है, जो प्रभु की आज्ञाओं को मानता है (देखिए योहन 14:15)। प्रभु येसु उसे प्यार करेंगे जो हृदय से विनम्र और सौम्य है, क्योंकि ऐसे ही लोग स्वर्ग राज्य के अधिकारी होंगे। प्रभु उनको प्यार करेंगे जो प्रभु को भी सबसे अधिक प्यार करेगा। ये सभी गुण सन्त योहन में थे, और इसलिए वे प्रभु के प्रिय शिष्य बन पाए। आज हमें अपने मन में झाँककर देखना है, क्या मेरे अंदर भी ऐसे कुछ गुण हैं जिनके कारण मैं भी प्रभु का प्रिय शिष्य कहला सकूँ?

-फ़ादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)


📚 REFLECTION

Today mother Church celebrates the feast of John the apostle and evangelist. Although there is nothing much given about the details of this disciple, he is not even named in the gospel as other disciples are named. But he is referred with a more appropriate name or title. He is referred as “the beloved disciple of Jesus”, or the disciple “whom the Lord loved.” This title itself can give us a clear picture and character sketch of John the apostle and evangelist.

Whom will the Lord love? If we experience Jesus as John experienced, we would know the real nature of the Lord. Jesus would love a person who is pure of heart, a person who obeys the commandments of God. (Cf. John 14:15). Jesus would love who is humble and meek because they are worthy to inherit the kingdom of God. Jesus will love who would show great love to Jesus. These are a few of the qualities that make John the beloved disciple. We need to look within ourselves, are there any qualities within me that can make me the beloved disciple of Jesus?

-Fr. Johnson B. Maria (Gwalior Diocese)

📚 मनन-चिंतन - 3

यह हमारा सामान्य अनुभव है कि जब हम किसी से प्यार करते हैं, तब हम उस व्यक्ति के शब्दों और वादों पर विश्वास करते हैं। विश्वास और प्रेम आंतरिक रूप से एक दूसरे से जुड़े होते हैं। प्यार से विश्वास पैदा होता है और प्यार में विश्वास व्यक्त होता है। हम इस संबंध को प्रेरित योहन के जीवन में एक अनोखे तरीके से प्रकट होते हुए देख सकते हैं। वे खुद को 'प्रिय शिष्य' या 'शिष्य जिसे येसु से प्यार करते थे' कहते हैं। ईश्वर सभी से प्रेम करते हैं, लेकिन जब कोई ईश्वर के प्रेम का एहसास करता है तभी वह प्रिय शिष्य बन जाता है। प्रिय शिष्य ईश्वर के प्यार का अनुभव करता है और उस प्यार का जवाब देकर अपने पूर्ण अहसास के लिए खुद को खुला रखता है। प्रेम विश्वास पैदा करता है। सुसमाचार कहता है कि प्रिय शिष्य ने "देखा और उसने विश्वास किया"। प्रेम विश्वास को सक्रिय, रचनात्मक और फलदायक बनाता है। 'प्रिय' होना एक प्रेमी होने की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण अनुभव है। एक सच्चा प्रिय व्यक्ति आवश्यक रूप से एक प्रेमी बन जाता है। यही कारण है कि संत योहन प्रेम का अधिवक्ता बन जाते हैं और प्रेम के बारे में अपने पत्रों में बहुत कुछ कहते हैं। संत पौलुस विश्वास और प्रेम के बीच इस संबंध को सामने लाते हुए कहते हैं, "यदि हम ईसा मसीह से संयुक्त हैं तो न ख़तने का कोई महत्व है और न उसके अभाव का। महत्व विश्वास का है, जो प्रेम से अनुप्रेरित है।" (गला 5: 6)। वे यह भी कहते हैं। "मेरा विश्वास इतना परिपूर्ण हो कि मैं पहाड़ों को हटा सकूँ; किन्तु यदि मुझ में प्रेम का अभाव हैं, तो मैं कुछ भी नहीं हूँ।" (1Cor 13: 2)

-फादर फ्रांसिस स्करिया


📚 REFLECTION

It is our normal experience that when we love someone, we believe in the words and promises of that person. Faith and Love are intrinsically connected to each other. Love leads to faith and faith is expressed in love. We can see this connection manifested in the life of Apostle John in a unique way. He calls himself ‘the beloved disciple’ or ‘the disciple whom Jesus loved’. God loves everyone, but it is when one realises oneself to be loved by God that one becomes the beloved disciple. A beloved disciple experiences the love of God and opens himself for its full realisation by responding to that love. Love generates faith. The Gospel says that the beloved disciple “saw and he believed”. Love makes faith active, creative and productive. To be ‘the beloved’ is a greater experience than to be a lover. A truly beloved person necessarily becomes a lover. That is how St. John becomes an advocate of love and speaks in his letters at length about love. St. Paul brings out this connection between faith and love when he says, “For in Christ Jesus neither circumcision nor uncircumcision counts for anything; the only thing that counts is faith working through love” (Gal 5:6). He also says, “if I have a faith that can move mountains, but have not love, I am nothing” (1Cor 13:2)

-Fr. Francis Scaria