दिसंबर 13, 2024, शुक्रवार

आगमन का दूसरा सप्ताह

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📙 पहला पाठ: इसायाह का ग्रन्थ 48:17-19

17) प्रभु, इस्राएल का परमपावन ईश्वर, तुम्हारा उद्धारक यह कहता हैः “मैं प्रभु, तुम्हारा ईश्वर हूँ। मैं तुम्हें कल्याण की बातें बतलाता हूँ और मार्ग में तुम्हारा पथप्रदर्शन करता हूँ।

18) “यदि तुमने मेरी आज्ञाओं का पालन किया होता, तो तुम्हारी सुख-शान्ति नदी की तरह उमड़ती रहती और तुम्हारी धार्मिकता समुद्र की लहरों की तरह।

19) “तुम्हारे वंशज बालू की तरह हो गये होते, तुम्हारी सन्तति उसके कणों की तरह असंख्य हो जाती। उसका नाम कभी नहीं मिटता और मैं उसे कभी अपनी दृष्टि से दूर नहीं करता।“

📙 सुसमाचार : सन्त मत्ती 11:16-19

16) ’’मैं इस पीढ़ी की तुलना किस से करूँ? वे बाजार में बैठे हुए छोकरों के सदृश हैं, जो अपने साथियों को पुकार कर कहते हैं-

17) हमने तुम्हारे लिए बाँसुरी बजायी और तुम नहीं नाचे, हमने विलाप किया और तुमने छाती नहीं पीटी;

18) क्योंकि योहन बपतिस्ता आया, जो न खाता और न पीता है और वे कहते हैं- उसे अपदूत लगा है।

19) मानव पुत्र आया, जो खाता-पीता है और वे कहते हैं- देखो, यह आदमी पेटू और पियक्कड़ है, नाकेदारों और पापियों का मित्र है। किन्तु ईश्वर की प्रज्ञा परिणामों द्वारा सही प्रमाणित हुई है।’’

📚 मनन-चिंतन

फरीसियों को कहे येसु के शब्दों ने क्रोधित कर दिया होगा और शायद उनका यह विश्वास दृढ़ हो गया होगा कि इस व्यक्ति की शामत आ गई है। येसु ने सार्वजनिक रूप से उनकी आलोचना करने की हिम्मत कैसे की! फिर भी मुझे आश्चर्य है कि क्या एक या दो या तीन फरीसियों ने येसु के शब्दों को घर कर लिया? क्या येसु के आलोचनात्मक शब्द उनके मन और हृदय में घुस गए? क्या उनके शब्द उनके साथ रहे और उन्हें अपने जीवन, उनकी प्रेरणा और शायद उनकी श्रेष्ठता पर गहराई से गौर करने के लिए प्रेरित किया? किसी दूसरे व्यक्ति की आलोचना करना बहुत आसान है. हम उनके कार्यों को देखते हैं, हम उनके शब्दों को सुनते हैं और हम उनकी अभिव्यक्ति को पढ़ते हैं। हालाँकि, हम किसी व्यक्ति का हृदय नहीं देख सकते। जब कोई दूसरा व्यक्ति हमारी आलोचना करता है तो हम उसकी सराहना नहीं करते। आज हम गैर-निर्णयात्मक, प्रेमपूर्ण और दयालु बनने का प्रयास कर सकते हैं। कौन जानता है? हमें भी ऐसा ही उपहार मिल सकता है!

फादर अल्फ्रेड डिसूजा (भोपाल महाधर्मप्रांत)

📚 REFLECTION


Jesus’ words to the Pharisees must have annoyed them and perhaps solidified their belief that this man needed “to be taken care of.” How dare Jesus criticize them publicly! Yet I wonder if one or two or three of the Pharisees took Jesus’ words to heart? Did Jesus’ critical words penetrate into their minds and hearts? Did his words stay with them and prompt them to look deeply into their lives, their motivation, and perhaps their dominance? It is so very easy to criticize another person. We see their actions, we hear their words and we read their expression. However, we cannot see the individual’s heart. We do not appreciate it when another person criticizes us. Thus what a great gift it is to catch our criticism of an individual and release our criticism of the person. In this process, we not only give a gift to that person, we also give a gift to ourselves. Today may we strive to be non-judgmental, loving, and gracious. Who knows? We may receive a similar gift!

-Fr. Alfred D’Souza (Bhopal Archdiocese)

📚 मनन-चिंतन -2

आज हम लोगों द्वारा ईश्वर को अपने जीवन में ग्रहण करने के मनोभाव पर मनन-चिंतन करते हैं। इस्राएल का इतिहास हमें दर्शाता है कि उनके तितर-बितर हो जाने का एक मुख्य कारण यह भी था कि उन्होंने ईश्वर के सन्देश को अनसुना कर दिया, और उसकी आज्ञाओं का पालन नहीं किया, अतः ईश्वर ने उन्हें दासता में जाने दिया। ईश्वर ने उनके नगर येरूसलेम को अपना निवास स्थान बना लिया था, लेकिन उन्होंने अपने बीच ईश्वर की उपस्थिति को अनदेखा कर दिया, और ईश्वर ने भी उन्हें सबख सिखाया, उनका पवित्र नगर नष्ट हो गया। इससे उन्हें यह सीख मिली कि यदि हम ईश्वर को अस्वीकार करते हैं तो हमारा सब कुछ बर्बाद हो जाता है। यह बात आज भी सौ टका सच है।

प्रभु येसु इस दुनिया में आए, और जिन्होंने उन्हें स्वीकार किया, उन्हें सब कुछ प्राप्त हो गया, उनका जीवन सार्थक हो गया, वहीं दूसरी ओर जिन्होंने प्रभु येसु को अस्वीकार किया उनका सबकुछ बर्बाद हो गए, जीवन व्यर्थ हो गया। आगमन काल हमारे लिए एक अवसर है जिसमें हम ईश्वर को अपने जीवन में स्वीकार करने के लिए तैयारी करते हैं। लेकिन अपने जीवन में ईश्वर को स्वीकार करने के लिए हमें अपने जीवन को बदलना पड़ेगा, हमारा पुराना जीवन त्यागना होगा, और नया जीवन अपनाना होगा। आइए हम इस आगमन काल उचित रूप से प्रभु के स्वागत की तैयारी करें।

-फ़ादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)


📚 REFLECTION

Today we reflect about the openness of the people towards receiving God in their lives. The history of Israel shows that one of the main reasons for their being scattered is because they did not keep up their commitment to be God’s people, as a result they were taken into captivity. God had made his dwelling among them, in their own city, but they rejected his presence, therefore the glory of God left them and their city was destroyed. The lesson that it taught them was that if you reject God, you loose everything. This fact stands true even today.

Jesus came to this world, and those who accepted Jesus as their saviour, they got everything, their became the heirs to the kingdom of God, they became children, but those who did not accept Jesus, they lost everything in their life. Advent is given for us to reflect about our preparedness to accept God in our lives. Accepting God in our life has many other implications. It requires a willingness to change, willingness to give up old ways, and be ready to embrace new way of life. Let us have a meaningful preparation to welcome God into our lives and homes.

-Fr. Johnson B. Maria (Gwalior Diocese)

📚 मनन-चिंतन - 3

आज के सुसमाचार में प्रभु येसु अपने समय के लोगों के दृष्टिकोण पर सवाल उठाते हैं। उन्होंने उन्हें हर चीज से असंतुष्ट पाया। उस समय के लोगों ने संत योहन बपतिस्ता को ’अपदूतग्रस्त’ कह कर उनका अस्वीकार किया। उन्होंने संत योहन के तपस्या के जीवन और पश्चाताप के सन्देश को स्वीकार नहीं किया। और न ही वे प्रभु येसु की जीवन-शैली और उनके सुसमाचार को स्वीकार करने के लिए तैयार थे। समस्या न तो योहन बपतिस्ता की थी और न ही येसु की। समस्या उन लोगों के दृष्टिकोण में थी। वे अपने दृष्टिकोण में निराशावादी थे और हर किसी और हर चीज से असंतुष्ट थे। येसु ने उनकी तुलना बाजार के अपरिपक्व बच्चों से की। विश्वासियों को हर जगह अच्छाई की सराहना करने और स्वीकार करने के लिए विकसित होना है। रचनात्मक और निर्माणकारी आलोचना व्यक्तियों और उद्यमों की वृद्धि के लिए अच्छी है। विनाशकारी और निराशावादी आलोचना किसी की मदद नहीं करेगी। यह उस शैतान का काम है जो हर जगह असंतोष और विभाजन पैदा करता है। ईश्वर आनन्द और एकता लाते हैं।

-फादर फ्रांसिस स्करिया


📚 REFLECTION

In today’s Gospel Jesus questions the attitudes of the people of his time. He found them dissatisfied with everything. They did not accept John the Baptist labelling him as ‘possessed’. They did not accept his life of austerity and his teaching of repentance. Nor were they ready to accept Jesus with his sociable life-style and his good tidings. The problem was neither with John the Baptist nor with Jesus. The problem was in their outlook. They were pessimistic in their approach and dissatisfied with everyone and everything. Jesus compared them with immature children in the market place. Believers have to grow to appreciate and accept goodness everywhere. Constructive and creative criticism is good for the growth of persons and enterprises. Destructive and pessimistic criticism will not help anyone. It is the devil who sows seeds of dissatisfaction and divisiveness. God brings contentment and unity.

-Fr. Francis Scaria