दिसंबर 07, 2024, शनिवार

आगमन का पहला सप्ताह

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📒 पहला पाठ: इसायाह का ग्रन्थ 30:19-21,23-26

19) येरूसालेम में रहने वाली सियोन की प्रजा! अब से तुम लोगों को रोना नहीं पड़ेगा। प्रभु तुम पर अवश्य दया करेगा, वह तुम्हारी दुहाई सुनते ही तुम्हारी सहायता करेगा।

20) प्रभु ने तुम्हें विपत्ति की रोटी खिलायी और दुःख का जल पिलाया है; किन्तु अब तुम्हें शिक्षा प्रदान करने वाला प्रभु अदृश्य नहीं रहेगा- तुम अपनी आँखों से उसके दर्शन करोगे।

21) यदि तुम सन्मार्ग से दायें या बायें भटक जाओगे, तो तुम पीछे से यह वाणी अपने कानों से सुनोगे-“सच्चा मार्ग यह है; इसी पर चलते रहो“।

22) तुम चाँदी से मढ़ी हुई अपने द्वारा गढ़ी गयी प्रतिमाओं को और सोने से मढ़ी हुई अपनी देवमूर्तियों को अपवित्र मानोगे। तुम उन्हें दूशित समझ कर फेंक दोगे और कहोगे “उन्हें यहाँ से निकाल दो“।

23) प्रभु तुम्हारे बोये हुये बीजों को वर्षा प्रदान करेगा और तुम अपने खेतों की भरपूर उपज से पुष्टिदायक रोटी खाओगे। उस दिन तुम्हारे चैपाये विशाल चारागाहों में चरेंगे।

24) खेत में काम करने वाले बैल और गधे, सूप और डलिया से फटकी हुई, नमक मिली हुई भूसी खयेंगे।

25) महावध के दिन, जब गढ़ तोड़ दिये जायेंगे, तो हर एक उत्तंुग पर्वत और हर एक ऊँची पहाड़ी से उमड़ती हुई जलधाराएँ फूट निकलेंगी।

26) जिस दिन प्रभु अपनी प्रजा के टूटे हुए अंगों पर पट्टी बाँधेगा और उसकी चोटों के घावों को चंगा करेगा, उस दिन चन्द्रमा का प्रकाश सूर्य की तरह होगा और सूर्य का प्रकाश- सात दिनों के सम्मिलित प्रकाश के सदृश-सतगुना प्रचण्ड हो उठेगा।

📒 सुसमाचार : सन्त मत्ती 9:35-10:1,5a,6-8

35) ईसा सभागृहों में शिक्षा देते, राज्य के सुसमाचार का प्रचार करते, हर तरह की बीमारी और दुबर्लता दूर करते हुए, सब नगरों और गाँवों में घूमते थे।

36) लोगों को देखकर ईसा को उन पर तरस आया, क्योंकि वे बिना चरवाहे की भेड़ों की तरह थके माँदे पड़े हुए थे।

37) उन्होंने अपने शिष्यों से कहा, "फसल तो बहुत है, परन्तु मज़दूर थोड़े हैं।

38) इसलिए फ़सल के स्वामी से विनती करो कि वह अपनी फ़सल काटने के लिए मज़दूरों को भेजे।"

10:1) ईसा ने अपने बारह शिष्यों को अपने पास बुला कर उन्हें अशुद्ध आत्माओं को निकालने तथा हर तरह की बीमारी और दुर्बलता दूर करने का अधिकार प्रदान किया।

5) ईसा ने इन बारहों को यह अनुदेश दे कर भेजा, "अन्य राष्ट्रों के यहाँ मत जाओ और समारियों के नगरों में प्रवेश मत करो,

6) बल्कि इस्राएल के घराने की खोयी हुई भेड़ों के यहाँ जाओ।

7) राह चलते यह उपदेश दिया करो- स्वर्ग का राज्य निकट आ गया है।

8) रोगियों को चंगा करो, मुरदों को जिलाओ, कोढि़यों को शुद्ध करो, नरकदूतों को निकालो। तुम्हें मुफ़्त में मिला है, मुफ़्त में दे दो।

📚 मनन-चिंतन

“फसल तो प्रचुर है परन्तु मजदूर कम हैं (मत्ती 9:37)।“ ईश्वर के लिए हमारा श्रम कलीसिया में ईसा मसीह के शरीर के असाधारण शिष्यों के रूप में, धर्मप्रचारक और अन्य कलीसिया के सदस्यों के रूप में हमारी सेवा तक सीमित नहीं होना चाहिए। हमें उन लोगों के पास जाकर अपने कलीसिया में अपनी भागीदारी को और अधिक बढ़ाना चाहिए जो भूखे हैं, जो शारीरिक/भावनात्मक रूप से बीमार हैं। हमें येसु को अपने समाज के गरीबों के सामने लाने की जरूरत है क्योंकि उन्हें भी येसु की जरूरत है, उन्हें मार्गदर्शन के लिए येसु की जरूरत है। एक विश्वास जो बढ़ता है वह एक ऐसा विश्वास है जो साझा किया जाता है। जैसे ही हम इस आगमन काल में आगे बढ़ते हैं, आइए हम येसु को गरीबों और वंचितों की मदद करके उपचार के साधन के रूप में उपयोग करने की अनुमति दें।

फादर अल्फ्रेड डिसूजा (भोपाल महाधर्मप्रांत)

📚 REFLECTION


“The harvest is abundant but the laborers are few (Matthew 9:37).” Our labor for God must not be limited to our service in the church as Extra-Ordinary Ministers of the Body of Christ, as Catechist, as Lectors and as members of other church ministries. We must put more flesh in our involvement in our church by going out to those who are hungry, who are physically/emotionally sick. We need to bring Jesus out to the poor of our society for they too need Jesus they need Jesus to guide them. A faith that grows is a faith that is shared. As we journey ahead in this Advent season let us allow Jesus to use us as His instrument of healing by helping the poor and the deprived.

-Fr. Alfred D’Souza (Bhopal Archdiocese)

📚 मनन-चिंतन-2

अपने सार्वजनिक जीवन की शुरुआत में येसु ने इसायाह 61 की भविष्यवाणियों का हवाला देते हुए नाज़रेथ के सभागृह में अपनी कार्य-योजना की घोषणा की। फिर वे उस घोषणापत्र को साकार करने के मार्ग पर आगे बढ़ रहे थे। वे ईश्वर के राज्य की खुशखबरी सुनाते हुए “सभी नगरों और गाँवों” में घूम रहे थे और “हर तरह की बीमारी और दुर्बलता” दूर कर रहे थे। उन्होंने किसी को अपने सेवाकार्य की सीमा के बाहर नहीं छोड़ा। उन्होंने लोगों की हर समस्या का समाधान किया। वे ईश्वर की प्रजा की 'संपूर्णता' में रुचि रखते थे। वे न केवल सभी को स्वर्गराज्य का संदेश सुनाना चाहते थे, बल्कि वे यह भी चाहते थे कि लोग स्वर्गराज्य के आगमन को अपने दैनिक जीवन में अनुभव करें। वे अपनी टीम में अधिक से अधिक सहकर्मियों को शामिल करना चाहते थे क्योंकि यह कार्य बहुत बड़ा था। उनके सहकर्मियों के चयन के लिए उनके पास केवल एक मानदंड था - उन्हें स्वर्गीय पिता द्वारा बुलाए जाने और भेजे जाने की आवश्यकता थी। इसलिए वे अपने शिष्यों को फसल के स्वामी से प्रार्थना करने को कहते हैं ताकि वे अपनी फसल काटने के लिए मजदूरों को भेजें। यह आज भी एक वास्तविकता है। एक बढ़िया फ़सल के कटने का इंतज़ार है। इस मिशन पर बुलाए जाने और भेजे जाने के लिए कई लोगों की आवश्यकता है, जिन्हें अपनी बुलाहट स्वीकार करने और उसकी पूर्ति के लिए कड़ी मेहनत करने की आवश्यकता है।

-फादर फ्रांसिस स्करिया


📚 REFLECTION

At the beginning of his public ministry Jesus proclaimed his manifesto in the synagogue of Nazareth citing the prophecies in Isaiah 61. Then he was on his way to actualise that manifesto. He was going through “all the towns and villages” proclaiming the good news of the Kingdom of God and curing “all kinds of disease and all kinds of illness”. He did not leave anyone out. He addressed every problem of the people. He was interested in the ‘wholeness’ of the people of God. He not only wanted everyone to hear the message of the Kingdom, but he also wanted them experience the Kingdom in their own day to day lives. He wanted to induct into his team as many co-workers as possible because the task was huge. He had only one criterion for the selection of his co-workers – they needed to be called and sent out by the Heavenly Father. So he asks his disciples to pray to the Lord of the harvest to send out labourers into his harvest. This is a reality even today. A great crop is waiting to be harvested. We need many to be called and sent on this mission. Those called need to accept the call and work hard for its fulfilment.

-Fr. Francis Scaria