दिसंबर 04, 2024, बुधवार

आगमन का पहला सप्ताह

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📒 पहला पाठ: इसायाह का ग्रन्थ 25:6-10a

6) विश्वमण्डल का प्रभु इस प्रर्वत पर सब राष्ट्रों के लिए एक भोज का प्रबन्ध करेगाः उस में रसदार मांस परोसा जायेगा और पुरानी तथा बढ़िया अंगूरी।

7) वह इस पर्वत पर से सब लोगों तथा सब राष्ट्रों के लिए कफ़न और शोक के वस्त्र हटा देगा,

8) श्वह सदा के लिए मृत्यु समाप्त करेगा। प्रभु-ईश्वर सबों के मुख से आँसू पोंछ डालेगा। वह समस्त पृथ्वी पर से अपनी प्रजा का कलंक दूर कर देगा। प्रभु ने यह कहा है।

9) उस दिन लोग कहेंगे - “देखो! यही हमारा ईश्वर है। इसका भरोसा था। यह हमारा उद्धार करता है। यही प्रभु है, इसी पर भरोसा था। हम उल्लसित हो कर आनन्द मनायें, क्योंकि यह हमें मुक्ति प्रदान करता है।“

10) इस पर्वत पर प्रभु का हाथ बना रहेगा।

📒 सुसमाचार : सन्त मत्ती 15:29-37

29) ईसा वहाँ से चले गये और गलीलिया के समुद्र के तट पर पहुँच कर एक पहाड़ी पर चढे़ और वहाँ बैठ गये।

30) भीड़-की-भीड़ उनके पास आने लगी। वे लँगडे़, लूले, अन्धे, गूँगे और बहुत से दूसरे रोगियों को भी अपने पास ला कर ईसा के चरणों में रख देते और ईसा उन्हें चंगा करते थे।

31) गूँगे बोलते हैं, लूले भले-चंगे हो रहे हैं, लँगड़े चलते और अन्धे देखते हैं- लोग यह देखकर बड़े अचम्भे में पड़ गये और उन्होंने इस्राएल के ईश्वर की स्तुति की।

32) ईसा ने अपने शिष्यों को अपने पास बुला कर कहा, ’’मुझे इन लोगों पर तरस आता है। ये तीन दिनों से मेरे साथ रह रहें हैं और इनके पास खाने के लिए कुछ भी नहीं है मैं इन्हें भूखा ही विदा करना नहीं चाहता। कहीं ऐसा न हो कि ये रास्ते में मूच्र्छित हो जायें।''

33) शिष्यों ने उन से कहा, ’’इस निर्जन स्थान में हमें इतनी रोटियाँ कहाँ से मिलेंगी कि इतनी बड़ी भीड़ को खिला सकें?’’

34) ईसा ने उन से पूछा, ’’तुम्हारे पास कितनी रोटियाँ हैं? उन्होंने कहा, ’’सात और थोड़ी-सी छोटी मछलियाँ’’।

35) ईसा ने लोगों को भूमि पर बैठ जाने का आदेश दिया

36) और वे सात रोटियाँ और मछलियाँ ले कर उन्होंने धन्यवाद की प्रार्थना पढ़ी, और वे रोटियाँ तोड़-तोड़ कर शिष्यों को देते गये और शिष्य लोगों को।

37) सबों ने खाया और खा कर तृप्त हो गये और बचे हुए टुकड़ों से सात टोकरे भर गये।

📚 मनन-चिंतन

जब आप गरीबों को देखते हैं तो क्या करते हैं? क्या आप उनकी भूख कम करने के लिए उन्हें कुछ देने की पूरी कोशिश करते हैं? येसु ने अपने चेलों को पास बुलाया और कहा, “मेरा मन उस भीड़ पर तरस खा रहा है, क्योंकि वे तीन दिन से मेरे साथ हैं और उनके पास खाने को कुछ नहीं है।” अपनी आँखें बंद करने का प्रयास करें और कल्पना करें कि आप शिष्यों के साथ हैं और येसु के इन गहन शब्दों पर ध्यान दें, कल्पना करें कि वह ये शब्द आपसे कह रहे हैं। क्या आपने समझा कि येसु आपको उन लोगों को खिलाने के लिए अपना साधन बनने के लिए कह रहे हैं जिनके पास जीवन में कुछ भी नहीं है? इस कठिन समय में जहां भूख लगना आम बात है, येसु हमें यह भी बता रहे हैं किः “तुम्हारा हृदय भी उन लोगों के लिए दया से भर जाना चाहिए जो भूखे हैं। उनके लिए जिनके जीवन में कुछ नहीं है, उनके लिए जिन पर अत्याचार किया जा रहा है और उनके लिए जो कमजोर हैं। यह कहना आसान है कि मैं गरीबों और भूखों की मदद करूंगा या उनके लिए कुछ करूंगा। लेकिन शिष्यत्व की असली परीक्षा शब्दों से नहीं होती। असली परीक्षा तब होती है जब हम कार्य करते हैं और कुछ ऐसा करते हैं जो ठोस और मूर्त हो।

फादर अल्फ्रेड डिसूजा (भोपाल महाधर्मप्रांत)

📚 REFLECTION


What do you do when you see the poor? Do you go out of your way to give them something to ease their hunger? Jesus summoned his disciples and said, “My heart is moved with pity for the crowd, for they have been with me now for three days and have nothing to eat.” Try closing your eyes and imagine that you’re with the disciples and meditate on these profound words of Jesus, imagine that He is saying these words to you. Did you discern that Jesus is telling you to be His instrument in feeding those who have nothing in life? In these hard times where hunger is commonplace, Jesus is also telling us that: “Your heart should also be moved with pity for those who are going hungry. For those who have nothing in life, for those who are being oppressed and for those who are weak and abandoned. It’s easy to say I will help or do something to help the poor and hungry. But the real test of discipleship is not with words. The real test is when we act and do something which is concrete and tangible.

-Fr. Alfred D’Souza (Bhopal Archdiocese)

📚 मनन-चिंतन-2

आज के सुसमाचार में हम रोटियों का दूसरा चमत्कार देखते हैं। येसु सात रोटियों और कुछ छोटी मछलियों से चार हज़ार से ज़्यादा लोगों को खिला कर तृप्त करते हैं। यह मुख्य रूप से करुणा का कार्य था। येसु भीड़ के लिए अनुकम्पा महसूस कर रहे थे। एज़ेकिएल 34 में प्रभु ने इस्राएल के चरवाहों के गैर-जिम्मेदार व्यवहार के बारे में चिन्तित थे। उन्होंने कहा, “धिक्कार इस्राएल के चरवाहों को! वे केवल अपनी देखभाल करते हैं। क्या चरवाहों को झुण्ड की देखवाल नहीं करनी चाहिए। तुम भेड़ों का दूध पीते हो, उनका ऊन पहनते और मोटे पशुओं का वध करते हो, किन्तु तुम भेड़ों को नहीं चराते।”(एज़ेकिएल 34: 2-3)। बाद में उनके लिए स्वयं चरवाहा बनने का वादा करते हुए, उन्होंने कहा, “मैं उन्हें इस्राएल के पहाड़ों पर, घाटियों में और देश भर के बसे हुए स्थानों पर चाराऊँगा। मैं उन्हें अच्छे चरागाहों में ले चलूँगा। वे इस्राएल के पर्वतों पर चरेंगी। वहाँ वे अच्छे चरागाहों में विश्राम करेंगी और इस्राएल के पर्वतों की हरी-भरी भूमि में चरेगी।” (एज़ेकिएल 34:13-14)। प्रभु येसु प्रभु ईश्वर का का वादा पूरा हुआ। प्यार और करुणा के साथ यीशु ने लोगों को खिलाया जो बिना चरवाहे की भेड़ों की तरह थे। सभी ख्रीस्तीय नेताओं को प्रभु येसु के इस आदर्श को अपनाना चाहिए और उनकी प्रेममयी और दयालु सेवा का अनुकरण करना चाहिए।

-फादर फ्रांसिस स्करिया


📚 REFLECTION

In the Gospel we have second story of the multiplication of the bread. Jesus multiplies seven loaves and some small fish to feed over four thousand people. This was primarily an act of compassion. Jesus was feeling sorry for the crowd. In Ezekiel 34 Yahweh lamented about the irresponsible behavior of the shepherds of Israel. He said, “Ah, you shepherds of Israel who have been feeding yourselves! Should not shepherds feed the sheep? You eat the fat, you clothe yourselves with the wool, you slaughter the fatlings; but you do not feed the sheep.” (Ezek 34:2-3). Later promising to become their Shepherd, he says, “I will feed them with good pasture, and the mountain heights of Israel shall be their pasture; there they shall lie down in good grazing land, and they shall feed on rich pasture on the mountains of Israel” (Ezek 34:14). In Jesus the promise of Yahweh is fulfilled. With love and compassion Jesus fed people who were like sheep without a shepherd. All Christian leaders are to imitate Jesus and follow his loving and compassionate service.

-Fr. Francis Scaria