4) प्रभु की वाणी मुझे यह कहते हुए सुनाई पड़ी-
5) “माता के गर्भ में तुम को रचने से पहले ही, मैंने तुम को जान लिया। तुम्हारे जन्म से पहले ही, मैंने तुम को पवत्रि किया। मैंने तुम को राष्ट्रों का नबी नियुक्त किया।“
6) मैंने कहा, “आह, प्रभु-ईश्वर! मुझे बोलना नहीं आता। मैं तो बच्चा हूँ।“
7) परन्तु प्रभु ने उत्तर दिया, “यह न कहो- मैं तो बच्चा हूँ। मैं जिन लोगों के पास तुम्हें भेजूँगा, तुम उनके पास जाओगे और जो कुछ तुम्हें बताऊगा, तुम वही कहोगे।
8) उन लोगों से मत डरो। मैं तुम्हारे साथ हूँ। मैं तुम्हारी रक्षा करूँगा। यह प्रभु वाणी है।“
7) यह अमूल्य निधि हम में-मिट्टी के पात्रों में रखी रहती है, जिससे यह स्पष्ट हो जाये कि यह अलौकिक सामर्थ्य हमारा अपना नहीं, बल्कि ईश्वर का है।
8) हम कष्टों से घिरे रहते हैं, परन्तु कभी हार नहीं मानते, हम परेशान होते हैं, परन्तु कभी निराश नहीं होते।
9) हम पर अत्याचार किया जाता है, परन्तु हम अपने को परित्यक्त नहीं पाते। हम को पछाड़ दिया जाता है, परन्तु हम नष्ट नहीं होते।
10) हम हर समय अपने शरीर में ईसा के दुःखभोग तथा मृत्यु का अनुभव करते हैं, जिससे ईसा का जीवन भी हमारे शरीर में प्रत्यक्ष हो जाये।
11) हमें जीवित रहते हुए ईसा के कारण निरन्तर मृत्यु का सामना करना पड़ता है, जिससे ईसा का जीवन भी हमारे नश्वर शरीर में प्रत्यक्ष हो जाये।
12) इस प्रकार हम में मृत्यु क्रियाशील है और आप लोगों में जीवन।
13) धर्मग्रन्थ कहता है- मैंने विश्वास किया और इसलिए मैं बोला। हम विश्वास के उसी मनोभाव से प्रेरित हैं। हम विश्वास करते हैं और इसलिए हम बोलते हैं।
14) हम जानते हैं कि जिसने प्रभु ईसा को पुनर्जीवित किया, वही ईसा के साथ हम को भी पुनर्जीवित कर देगा और आप लागों के साथ हम को भी अपने पास रख लेगा।
15) सब कुछ आप लोगों के लिए हो रहा है, ताकि जिस प्रकार बहुतों में कृपा बढ़ती जाती है, उसी प्रकार ईश्वर की महिमा के लिए धन्यवाद की प्रार्थना करने वालों की संख्या बढ़ती जाये।
2) आप लोगों ने अवश्य सुना होगा कि ईश्वर ने आप लोगों की भलाई के लिए मुझे अपनी कृपा का सेवा-कार्य सौंपा है।
3) उसने मुझ पर वह रहस्य प्रकट किया है, जिसका मैं संक्षिप्त विवरण ऊपर दे चुका हूँ।
4) उसे पढ़ कर आप लोग जान सकते हैं कि मैं मसीह का रहस्य समझता हूँ।
5) वह रहस्य पिछली पीढ़ियों में मनुष्य को नहीं बताया गया था और अब आत्मा के द्वारा उसके पवित्र प्रेरितों और नबियों का प्रकट किया गया है।
6) वह रहस्य यह है कि सुसमाचार के द्वारा यहूदियों के साथ गैर-यहूदी एक ही विरासत के अधिकारी हैं, एक ही शरीर के अंग हैं और ईसा मसीह-विषयक प्रतिज्ञा के सहभागी हैं।
7) ईश्वर ने अपने सामर्थ्य के अधिकार से मुझे यह कृपा प्रदान की कि मैं उस सुसमाचार का सेवक बनूँ।
8) मुझे, जो सतों में सब से छोटा हूँ, यह वरदान मिला है कि मैं गैर-यहूदियों को मसीह की अपार कृपानिधि का सुसमाचार सुनाऊँ
9) और मुक्ति-विधान का वह रहस्य पूर्ण रूप से प्रकट करूँ, जिसे समस्त विश्व के सृष्टिकर्ता ने अब तक गुप्त रखा था।
10) इस तरह, कलीसिया के माध्यम से स्वर्ग के दूत ईश्वर की बहुविध प्रज्ञा का ज्ञान प्राप्त करेंगे।
11) ईश्वर ने अनन्त काल से जो उद्देश्य अपने मन में रखा, उसने उसे हमारे प्रभु ईसा मसीह द्वारा पूरा किया।
12) हम मसीह में विश्वास करते हैं और इस कारण हम पूरे भरोसे के साथ निर्भय हो कर ईश्वर के पास जाते हैं।
1) इसके बाद प्रभु ने अन्य बहत्तर शिष्य नियुक्त किये और जिस-जिस नगर और गाँव में वे स्वयं जाने वाले थे, वहाँ दो-दो करके उन्हें अपने आगे भेजा।
2) उन्होंने उन से कहा, ’’फ़सल तो बहुत है, परन्तु मज़दूर थोड़े हैं; इसलिए फ़सल के स्वामी से विनती करो कि वह अपनी फ़सल काटने के लिए मज़दूरों को भेजे।
3) जाओ, मैं तुम्हें भेडि़यों के बीच भेड़ों की तरह भेजता हूँ।
4) तुम न थैली, न झोली और न जूते ले जाओ और रास्तें में किसी को नमस्कार मत करो।
5) जिस घर में प्रवेश करते हो, सब से पहले यह कहो, ’इस घर को शान्ति!’
6) यदि वहाँ कोई शान्ति के योग्य होगा, तो उस पर तुम्हारी शान्ति ठहरेगी, नहीं तो वह तुम्हारे पास लौट आयेगी।
7) उसी घर में ठहरे रहो और उनके पास जो हो, वही खाओ-पियो; क्योंकि मज़दूर को मज़दूरी का अधिकार है। घर पर घर बदलते न रहो।
8) जिस नगर में प्रवेश करते हो और लोग तुम्हारा स्वागत करते हैं, तो जो कुछ तुम्हें परोसा जाये, वही खा लो।
9) वहाँ के रोगियों को चंगा करो और उन से कहो, ’ईश्वर का राज्य तुम्हारे निकट आ गया है’।
10) परन्तु यदि किसी नगर में प्रवेश करते हो और लोग तुम्हारा स्वागत नहीं करते, तो वहाँ के बाज़ारों में जा कर कहो,
11 ’अपने पैरों में लगी तुम्हारे नगर की धूल तक हम तुम्हारे सामने झाड़ देते हैं। तब भी यह जान लो कि ईश्वर का राज्य आ गया है।’
12) मैं तुम से यह कहता हूँ- न्याय के दिन उस नगर की दशा की अपेक्षा सोदोम की दशा कहीं अधिक सहनीय होगी।
13) ’’धिक्कार तुझे, खोराजि़न! धिक्कार तुझे, बेथसाइदा! जो चमत्कार तुम में किये गये हैं, यदि वे तीरुस और सीदोन में किये गये होते, तो उन्होंने न जाने कब से टाट ओढ़ कर और भस्म रमा कर पश्चात्ताप किया होता।
14) इसलिए न्याय के दिन तुम्हारी दशा की अपेक्षा तीरुस और सिदोन की दशा कहीं अधिक सहनीय होगी।
15) और तू, कफ़रनाहूम! क्या तू स्वर्ग तक ऊँचा उठाया जायेगा? नहीं, तू अधोलोक तक नीचे गिरा दिया जायेगा?
16) ’’जो तुम्हारी सुनता है, वह मेरी सुनता है और जो तुम्हारा तिरस्कार करता है, वह मेरा तिरस्कार करता है। जो मेरा तिरस्कार करता है, वह उसका तिरस्कार करता है, जिसने मुझे भेजा है।’’
आज येसु ने बहत्तर अन्य शिष्यों को चुना। वह तुरंत उन्हें सुसमाचार का प्रचार करने के लिए दो-दो करके गांवों में भेजता है और उन्हें लंबे और विस्तृत निर्देश देते है। आज येसु हमें सुसमाचार का प्रचार करने के लिए भेजते हैं। हम अपने वचन, अपने उदाहरण और अपने प्रेम के द्वारा सुसमाचार का प्रचार कर सकते हैं। हम जिस व्यक्ति से मिलते हैं उस पर ध्यान देकर और उसकी देखभाल करके अच्छे समाचार का प्रचार कर सकते हैं। हम मुस्कुराहट के साथ खुशखबरी का प्रचार कर सकते हैं। आज की दुनिया में, हम येसु के शिष्य हैं। क्या लोगों के प्रति हमारे कार्य, प्रेम और देखभाल यह प्रदर्शित करेंगे कि हम येसु के शिष्य हैं? हम जो कार्य करते हैं वह हमें बहुत छोटे लगते हैं। हालाँकि, अगर बड़े प्यार से किया जाए, तो सबसे छोटा कार्य भी आज आपके सामने आने वाले किसी व्यक्ति के लिए एक महान उपहार हो सकता है!
✍फादर अल्फ्रेड डिसूजा (भोपाल महाधर्मप्रांत)Today Jesus chooses seventy-two other disciples. He immediately sends them out two by two into the villages to preach the Good News and gives them lengthy and detailed instructions. Today Jesus sends us forth to preach the Good News. We may preach the Good News by our word, our example, and our love. We may preach the Good News by noticing and attending to an individual we encounter. Often it is the little acts of kindness that have the greatest potential to be gift to another individual. We may preach the Good News with a smile or perhaps we spend 10-15 minutes of our time and sit down and listen to a friend who is struggling. In today’s world, we are Jesus’ disciples. Will our actions, love and care for people demonstrate that we are Jesus’ disciples? The acts we do may seem very small to us. However, if done with great love, the smallest act may be a great gift to someone you encounter today!
✍ -Fr. Alfred D’Souza (Bhopal Archdiocese)
यह जीवन हमें ईश्वर ने प्रदान किया है और वहीं हमारे जीवन के लिए मकसद बनाता है। हम अपने जीवन के लिए कुछ भी मंजिल निर्धारित कर सकते हैं, लेकिन हमारे जीवन का मुख्य उद्देश्य ईश्वर की महिमा और स्तुति करना है। जब तक हम ईश्वर की इच्छा और योजना के अनुसार अपना जीवन नहीं जीते तब तक हमारा जीवन व्यर्थ ही रहेगा। कुछ ऐसा ही हम सेंट फ्रांसिस ज़ेवियर के जीवन में देखते हैं, जिनका पर्व आज हम मनाते हैं। ईश्वर ने उनके जीवन को बदल दिया और उसे अपनी योजना के अनुसार असंख्य लोगों के लिए ईश्वर के प्रेम और विश्वास का माध्यम बनाया।
सेंट फ्रांसिस ज़ेवियर हमारे देश भारत भी आए और उन्होंने अथक मिशन कार्य के द्वारा अनेक लोगों को अनंत जीवन की रह दिखाई। उनका कठोर तपस्यामय जीवन सभी के लिए अनुकरणीय है। आज ईश्वर हमें हमारे जीवनयात्रा पर मनन-चिंतन करने के लिए बुलाते हैं - क्या मैं ईश्वर अपने जीवन में ईश्वर की ओर जा रहा हूँ या ईश्वर से दूर। यदि यह जीवन हमें ईश्वर ने उपहारस्वरूप दिया है तो हम इसे और बेहतर बनाकर ईश्वर के लिए समर्पित नहीं कर सकते? ईश्वर आज ऐसे लोगों की राह देखते हैं जो उनके कार्य के लिए अपने जीवन को दे दें और उनकी मुक्ति और प्रेम का साधन बन सकें।
✍ -फ़ादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)
God has given us the gift of life and He only sets a purpose for our life. We may choose to do anything with our life, but its ultimate goal is to be useful in the glorification of God. A person’s life will have no meaning till it is lived according to God’s will and plan. Similar thing can be witnessed in the life of St. Francis Xavier whose feast day we celebrate today. God transformed his life and made him His instrument of His mission to the multitudes, reaching God’s love and mercy to whole world.
He came to India and worked tirelessly to bring people to God, showing them the path to life eternal. He is the patron of India and his life of sacrifice and austerity is an example worth emulating. Today God calls us to reflect on the journey of our own lives. If God is the giver of the life, can we not make it a little more worthy of God and offer it back to Him for his will and purpose? God waits today for the people who can become instruments in spreading His message of love and salvation.
✍ -Fr. Johnson B. Maria (Gwalior Diocese)