1) इसके बाद मैंने एक दिव्य दृश्य देखा। मैंने देखा कि स्वर्ग में एक द्वार खुला है और वह तुरही-जैसी वाणी, जिसे मैंने पहले अपने से बाते करते सुना था, बोल रही है- "यहाँ, ऊपर आओं। मैं तुम्हें दिखाऊँगा कि बाद मे क्या होने वाला है।
2) मैं तुरन्त आत्मा से आविष्ट हो गया। मैंने देखा कि स्वर्ग में एक सिंहासन रखा हुआ है और उस पर कोई विराजमान है,
3) जिसका रूप-रंग सूर्यकान्त एवं रूधिराख्य के सदृश है और सिंहासन के चारों ओर मरकतमणि-जैसा एक आधा-मण्डल है।
4) सिंहासन के चारों और चैबीस सिंहासन रखे हुए है और उन पर चैबीस वयोवृद्ध विराजमान हैं। वे उजले वस्त्र पहने हैं और उनके सिर पर सोने के मुकुट हैं।
5) सिंहासन से बिजलियाँ, वाणियाँ और मेघ-गर्जन निकल रहे हैं। सिंहासन के सामने आग की सात मशाले जल रही हैं; वे ईश्वर के सात आत्मा हैं।
6) सिंहासन के आसपास का फर्श मानो स्फटिक-सदृश पारदर्शी समुद्र है। बीच में, सिंहासन के आसपास चार प्राणी हैं। वे आगे और पीछे की ओर आँखों से भरे हुए हैं।
7) पहला प्राणी सिंह के सदृश है और दूसरा प्राणी साँड़ के सदृश। तीसरे प्राणी का चेहरा मनुष्य-जैसा है
8) चारों प्राणियों के छः-छः पंख है। वे भीतर बाहर आँखों से भरे हुए हैं और दिन-रात निरन्तर यह कहते रहते हैं- पवित्र, पवित्र, पवित्र सर्वशक्तिमान् प्रभु-ईश्वर, जो था, जो है और जो आने वाला है!
9) जब-जब प्राणी सिंहासन पर विराजमान, युग-युगों तक जीवित रहने वाले को महिमा, सम्मान और धन्यवाद देते हैं,
10) तब तब चैबीस वयोवृद्ध सिंहासन पर विराजमान को दण्डवत् कहते हैं, युग-युगों तक जीवित रहने वाले की आराधना करते और यह कहते हुए सिंहासन के सामने अपने मुकुट डाल देते हैं-
11) हमारे पुभु-ईश्वर! तू महिमा, सम्मान और सामर्थ्य का अधिकारी है; क्योंकि तूने विश्व की सृष्टि की। तेरी इच्छा से वह अस्तित्व में आया और उसकी सृष्टि हुई है।"
11) जब लोग ये बातें सुन रहे थे, तो ईसा ने एक दृष्टान्त भी सुनाया; क्योंकि ईसा को येरूसालेम के निकट पा कर वे यह समझ रहे थे कि ईश्वर का राज्य तुरन्त प्रकट होने वाला है।
12) उन्होंने कहा, "एक कुलीन मनुष्य राजपद प्राप्त कर लौटने के विचार से दूर देश चला गया।
13) उसने अपने दस सेवकों को बुलाया और उन्हें एक-एक अशर्फ़ी दे कर कहा, ‘मेरे लौटने तक व्यापार करो’।
14) "उसके नगर-निवासी उस से बैर करते थे और उन्होंने उसके पीछे एक प्रतिनिधि-मण्डल द्वारा कहला भेजा कि हम नहीं चाहते कि वह मनुष्य हम पर राज्य करे।
15) "वह राजपद पा कर लौटा और उसने जिन सेवकों को धन दिया था, उन्हें बुला भेजा और यह जानना चाहा कि प्रत्येक ने व्यापार से कितना कमाया है।
16) पहले ने आ कर कहा, ‘स्वामी! आपकी एक अशर्फ़ी ने दस अशर्फि़य़ाँ कमायी हैं’।
17) स्वामी ने उस से कहा, ‘शाबाश, भले सेवक! तुम छोटी-से-छोटी बातों में ईमानदार निकले, इसलिए तुम्हें दस नगरों पर अधिकार मिलेगा’।
18) दूसरे ने आ कर कहा, ‘स्वामी! आपकी एक अशर्फ़ी ने पाँच अशर्फि़याँ कमायी हैं’
19) और स्वामी ने उस से भी कहा, ‘तुम्हें पाँच नगरों पर अधिकार मिलेगा’।
20) अब तीसरे ने आ कर कहा, ’स्वामी! देखिए, यह है आपकी अशर्फ़ी। मैंने इसे अँगोछे में बाँध रखा था।
21) मैं आप से डरता था, क्योंकि आप कठोर हैं। आपने जो जमा नहीं किया, उसे आप निकालते हैं और जो नहीं बोया, उसे लुनते हैं।’
22) स्वामी ने उस से कहा, ‘दुष्ट सेवक! मैं तेरे ही शब्दों से तेरा न्याय करूँगा। तू जानता था कि मैं कठोर हूँ। मैंने जो जमा नहीं किया, मैं उसे निकालता हूँ और जो नहीं बोया, उसे लुनता हूँ।
23) तो, तूने मेरा धन महाजन के यहाँ क्यों नहीं रख दिया? तब मैं लौट कर उसे सूद के साथ वसूल कर लेता।’
24) और स्वामी ने वहाँ उपस्थित लोगों से कहा, ‘इस से वह अशर्फ़ी ले लो और जिसके पास दस अशर्फि़याँ हैं, उसी को दे दो’।
25) उन्होंने उस से कहा, ‘स्वामी! उसके पास तो दस अशर्फि़याँ हैं’।
26) "मैं तुम से कहता हूँ - जिसके पास कुछ है, उसी को और दिया जायेगा; लेकिन जिसके पास कुछ नहीं है, उस से वह भी ले लिया जायेगा, जो उसके पास है।
27) और मेरे बैरियों को, जो यह नहीं चाहते थे कि मैं उन पर राज्य करूँ, इधर ला कर मेरे सामने मार डालो’।
28) इतना कह कर ईसा येरूसालेम की ओर आगे बढ़े।
हम जो कुछ भी करते हैं, चाहे वे भले कार्य हों या बुरे कार्य हों, अंत में उनका लेखा-जोखा लिया जाएगा। ईश्वर ने हमें विभिन्न वरदान और कृपायें दीं हैं, और हम उन वरदानों और कृपाओं का किस प्रकार उपयोग करते हैं, इसका भी मूल्यांकन किया जाएगा। जो व्यक्ति ईश्वर द्वारा प्रदत्त वरदानों का ईश्वरीय राज्य के विस्तार के लिए उपयोग करता है उसे और अधिक कृपाओं और वरदानों से पुरस्कृत किया जाएगा। और जो अपने कृपाओं और वरदानों का सदुपयोग नहीं करता है, उससे वे छीन लिए जाएंगे। ये कृपायें और वरदान कई रूपों में ईश्वर हमें प्रदान करते हैं जैसे, घर, नौकरी, जीवनसाथी, बाल-बच्चे इत्यादि। क्या हम इन्हें ईश्वर के वरदान और कृपायें मानकर स्वीकार करते हैं?
✍फ़ादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)Whatever we do, whether good deeds or bad, will ultimately be accounted for. God has given us various gifts and graces, and we will be evaluated on how we have used them. Those who use the gifts granted by God for the expansion of His kingdom will be rewarded with even greater graces and blessings. On the other hand, those who do not make good use of their gifts and blessings will have them taken away. These gifts and blessings come to us in many forms, such as a home, a job, a spouse, children, and so on. Do we accept these as God’s gifts and graces in our lives and work for the kingdom of God?
✍ -Fr. Johnson B. Maria(Gwalior Diocese)
इस संसार में जो भी चीज़ बनायी गयी हैं उसका कुछ न कुछ मकसद हैं जैसे-गाडियों का मकसद ट्रांसपोर्ट अर्थात् परिवहन करना, कलम का मकसद लिखना, छत का मकसद सुरक्षा और छाया देना इत्यादि। यदि इन सभी वस्तुओं को बनाया गया हैं तो उसका कुछ न कुछ उद्देश्य या मकसद को देख कर बनाया गया है, ठीक उसी प्रकार मनुष्यों का जो प्रभु की सृष्टि हैं प्रत्येक का कुछ न कुछ मकसद हैं। और उस मकसद को पूरा करने के लिए वरदान और योग्यताएॅं भी दी गई है।
आज का सुसमाचार में हम पुनः अशर्फियों का दृष्टांत को सुनते हैं जिसमें एक कुलीन मनुष्य राजपद प्राप्त कर लौटने के विचार से दूर देश जाता हैं। जाने से पहले वह अपने सेवकों को एक एक अशर्फी दे कर कहता है मेरे आने तक व्यापार करों। प्रभु येसु ख्रीस्त जब इस संसार से जा रहे थे तब उन्होने अपने शिष्यों को एक मिशन दिया। ‘‘मुझेे स्वर्ग में और पृथ्वी पर पूरा अधिकार मिला है। इसलिए तुम लोग जा कर सब राष्ट्रों को शिष्य बनाओ और उन्हें पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा के नाम पर बपतिस्मा दो। मैने तुम्हें जो-जो आदेश दियें हैं, तुम लो उनका पालन करना उन्हें सिखलाओं और याद रखों- मैं संसार के अन्त तक सदा तुम्हारे साथ हॅंू।’’ (मत्ती 28ः18-20) और इस मिशन को पूरा करने के लिए हमें पवित्र आत्मा प्रदान करने की प्रतिज्ञा की, ’’मेरे पिता ने जिस वरदान की प्रतिज्ञा की है, उसे मैं तुम्हारे पास भेजूॅंगा’’ (लूकस 24ः49)।
प्रभु येसु जाने से पूर्व कार्य और वरदान दोनो दे कर गये। और वे लौट कर उन कार्य और वरदान का लेखा लेंगे। हम सभी को जो प्रभु येसु के अनुयायी हैं हमें पवित्र आत्मा के वरदान तथा उपहार प्राप्त हैं और हर एक को अलग अलग वरदान प्राप्त है जिससे हम उन वरदानों से उनके आने तक उनका मिशन कार्य कर सकें। यह वरदान हमें अपने तक नहीं सीमित रखना हैं परंतु इसका उपयोग कर बहुत से लोगों को सच्चे ईश्वर के विश्वासी बनाना हैं।
आईये हम मनन चिंतन कर के देखे कि हमने अब तक ईश्वरीय वरदान का उपयोग ईश्वर के कार्य के लिए किया है या नहीं। आईये हम ईश्वर के वरदानों का सही उपयोग करें कहीं ऐसा न हो कि जब प्रभु आयें तो हम अपने आप को उस सेवक के स्थान पर पायें जिसने उस अशर्फी को छिपा कर रखा था। बाद में उस से वह अशर्फी भी ले ली गई और दूसरे को सौप दी गई जिसके पास दस अशर्फियॉं थी।
✍ - फादर डेन्नीस तिग्गा (भोपाल महाधर्मप्रान्त)
In this world whatever is made is made with a purpose like vehicles are made for the transport, pen is made for writing, roof is made for shade and protection and so on. These things are made to fulfill one or the other purpose, similarly human who is the creation of God is made for some purpose and to fulfill that purpose humans have received the gifts and potentials.
In today’s gospel once again we come across the parable of the talents in which a noble man went to a distant country to get royal power for himself and then to return. Before going, he summoned ten of his slaves, and giving them one each pounds told them, ‘Do business with these until I come back.’ Lord Jesus before Ascension he gave the mission to the disciples. “All authority in heaven and on earth has been given to me. Go therefore and make disciples of all nations, baptizing them in the name of the Father and of the Son and of the Holy Spirit, and teaching them to obey everything that I have commanded you. And remember, I am with you always, to the end of the age.” (Mt 28:18-20). And to fulfill this mission he promised to send Holy Spirit, “I am sending upon you what my Father promised.”
Lord Jesus before the Ascension he gave the work and the gifts. And he will come again to take the account of the work and the gift. We all those who are the followers of Jesus have received the gifts and charisms of the Holy Spirit and every individual has received different gifts in order to fulfill his mission work. This gift is given not to restrict them to oneself but to use them so that many may become the Disciples of Christ.
Let’s reflect and see, till now have we used the gifts of God for the work of God or not. Let’s do the proper use of the gift otherwise when the Lord will come we may find ourselves in the place of that slave who hid the pound and at last that pound too was taken from him and given to another one who has ten pounds.
✍ -Fr. Dennis Tigga (Bhopal Archdiocese)