नवंबर 10, 2024, इतवार

वर्ष का बत्तीवाँ सामान्य इतवार

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📒 पहला पाठ : 1 राजाओं 17:10-16

10) एलियाह उठ कर सरेप्ता गया। शहर के फाटक पर पहुँच कर उसने वहाँ लकड़ी बटोरती हुई एक विधवा को देखा और उसे बुला कर कहा, "मुझे पीने के लिए घड़े में थोड़ा-सा पानी ला दो"।

11) वह पानी लाने जा ही रही थी कि उसने उसे पुकार कर कहा, "मुझे थोड़ी-सी रोटी भी ला दो"।

12) उसने उत्तर दिया, "आपका ईश्वर, जीवन्त प्रभु इस बात का साक्षी है कि मेरे पास रोटी नहीं रह गयी है। मेरे पास बरतन में केवल मुट्ठी भर आटा और कुप्पी में थोड़ा सा तेल है। मैं दो-एक लकड़ियाँ बटोरने आयी हूँ। अब घर जा कर उसे अपने लिए और अपने बेटे के लिए पकाती हूँ। हम उसे खायेंगे और इसके बाद हम मर जायेंगे।

13) एलियाह ने उस से कहा, "मत डरो। जैसा तुमने कहा, वैसा ही करो। किन्तु पहले मेरे लिये एक छोटी-सी रोटी पका कर ले आओ। इसके बाद अपने लिए और अपने बेटे के लिए तैयार करना;

14) क्योंकि इस्राएल का प्रभु-ईश्वर यह कहता हैः जिस दिन तक प्रभु पृथ्वी पर पानी न बरसाये, उस दिन तक न तो बरतन में आटा समाप्त होगा और न तेल की कुप्पी खाली होगी ।"

15) एलियाह ने जैसा कहा था, स्त्री ने वैसा ही किया और बहुत दिनों तक उस स्त्री, उसके पुत्र और एलियाह को खाना मिलता रहा।

16) जैसा कि प्रभु ने एलियाह के मुख से कहा था, न तो बरतन में आटा समाप्त हुआ और न तेल की कुप्पी ख़ाली हुई।

📒 दूसरा पाठ : इब्रानियों 9:24-28

24) क्योंकि ईसा ने हाथ के बने हुए उस मन्दिर में प्रवेश नहीं किया, जो वास्तविक मन्दिर का प्रतीक मात्र है। उन्होंने स्वर्ग में प्रवेश किया है, जिससे वह हमारी ओर से ईश्वर के सामने उपस्थित हो सकें।

25) प्रधानयाजक किसी दूसरे का रक्त ले कर प्रतिवर्ष परमपावन मन्दिर-गर्भ में प्रवेश करता है। ईसा के लिए इस तरह अपने को बार-बार अर्पित करने की आवश्यकता नहीं है।

26) यदि ऐसा होता तो संसार के प्रारम्भ से उन्हें बार-बार दुःख भोगना पड़ता, किन्तु अब युग के अन्त में वह एक ही बार प्रकट हुए, जिससे वह आत्मबलिदान द्वारा पाप को मिटा दें।

27) जिस तरह मनुष्यों के लिए एक ही बार मरना और इसके बाद उनका न्याय होना निर्धारित है,

28) उसी तरह मसीह बहुतों के पाप हरने के लिए एक ही बार अर्पित हुए। वह दूसरी बार प्रकट हो जायेंगे- पाप के कारण नहीं, बल्कि उन लोगों को मुक्ति दिलाने के लिए, जो उनकी प्रतीक्षा करते हैं।

📒 सुसमाचार : मारकुस 12:38-44

38) ईसा ने शिक्षा देते समय कहा, "शास्त्रियों से सावधान रहो। लम्बे लबादे पहन कर टहलने जाना, बाज़ारों में प्रणाम-प्रणाम सुनना,

39) सभागृहों में प्रथम आसनों पर और भोजों में प्रथम स्थानों पर विराजमान होना- यह सब उन्हें बहुत पसन्द है।

40) वे विधवाओं की सम्पत्ति चट कर जाते और दिखावे के लिए लम्बी-लम्बी प्रार्थनाएँ करते हैं। उन लोगों को बड़ी कठोर दण्डाज्ञा मिलेगी।"

41) ईसा ख़जाने के सामने बैठ कर लोगों को उस में सिक्के डालते हुए देख रहे थे। बहुत-से धनी बहुत दे रहे थे।

42) एक कंगाल विधवा आयी और उसने दो अधेले अर्थात् एक पैसा डाल दिया।

43) इस पर ईसा ने अपने शिष्यों को बुला कर कहा, "मैं तुम से यह कहता हूँ- ख़जाने में पैसे डालने वालों में से इस विधवा ने सब से अधिक डाला है;

44) क्योंकि सब ने अपनी समृद्धि से कुछ डाला, परन्तु इसने तंगी में रहते हुए भी जीविका के लिए अपने पास जो कुछ था, वह सब दे डाला।"

📚 मनन-चिंतन

निर्गमन ग्रंथ 22:21-22 में हम पढ़ते हैं - “तुम विधवा अथवा अनाथ के साथ दुर्व्यवहार मत करो। यदि तुम उनके साथ दुर्व्यवहार करोगे और वे मेरी दुहाई देंगे, तो मैं उनकी पुकार सुनूँगा।” अर्थात हमेशा से विधवाएं, अनाथ और परदेशी लोग प्रभु दिल के करीब रहे हैं। ऐसा इसलिए कि इन तीनों तरह के लोगों का कोई सहारा नहीं होता, प्रभु ही उनका सहारा बनता है। इसलिए प्रभु इस्राएलियों को जब नबी मूसा के द्वारा आज्ञायें और आदेश देते हैं तो विधवाओं, अनाथ और परदेशियों का भी ध्यान रखने का आदेश देते हैं। यह प्रथा हम नबी मूसा के समय के बाद अन्य नबियों के समय और बाद में प्रभु येसु के समय में भी देखते हैं। लेकिन प्रभु येसु के समय धर्म के जिम्मेदार लोग विधवाओं का शोषण करते हैं, जिसकी भर्त्सना प्रभु करते हैं।

आज के पहले पाठ और सुसमाचार में हम दो अलग-अलग विधवाओं को देखते हैं जो हृदय से उदार और ईश्वर के प्रति प्रेम से परिपूर्ण हैं। नबी एलियस के समय जब भयानक अकाल पड़ा, कुछ भी अनाज या भोजन नहीं मिल पा रहा था। सामान्यतः ऐसी स्थिति में लोग स्वार्थी हो जाते हैं, सिर्फ अपने बारे में ही सोचते हैं, ऐसे समय में वह विधवा प्रभु के भक्त नबी को पानी और भोजन देने के लिए तैयार हो जाती है। यदि किसी के पास कुछ कमी नहीं है तो दान देना आसान है, लेकिन कुछ भी नहीं होने के बावजूद कुछ दान करना महान है। ऐसे लोगों की उदारता और दानवीरता के बदले प्रभु उन्हें पुरस्कृत जरूर करता है। क्या हम प्रभु और उसके भक्तों के प्रति उदार हैं?

फ़ादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)

📚 REFLECTION


In Exodus 22:21-22, we read: "Do not mistreat or oppress a widow or an orphan. If you do mistreat them and they cry out to me, I will certainly hear their cry." This means that widows, orphans, and strangers have always been close to the heart of the Lord. The reason for this is that these three groups of people have no support, and the Lord becomes their refuge. Therefore, when the Lord gives commandments and instructions to the Israelites through the prophet Moses, He also commands them to take care of widows, orphans, and strangers. This practice is seen not only during the time of the prophet Moses but also during the times of other prophets and later during the time of Jesus. However, during the time of Jesus, the religious leaders exploited widows, and the Lord condemned this behavior.

In today’s first reading and Gospel, we see two different widows who are generous at heart and full of love for God. During the time of the prophet Elijah, there was a severe famine, and there was no food or grain available. Normally, in such situations, people become selfish, thinking only about themselves. Yet, in this time of scarcity, the widow is willing to offer water and food to the Lord’s servant, the prophet. It is easy to give when one has no lack, but it is truly great to give even when one has nothing. The Lord always rewards the generosity and selflessness of such people. The question we must ask ourselves is: Are we generous toward the Lord and His servants?

-Fr. Johnson B. Maria(Gwalior Diocese)

📚 मनन-चिंतन - 2

यह कहा गया है कि चार प्रकार के दाता हैंः द्वेष देने वाले, कार्य देने वाले, स्वयं-सेवा देने वाले और प्रेम देने वाले।

द्वेष देने वाले दूसरों को देते हैं लेकिन वह उसे द्वेषपूर्वक या अनिच्छा से करते हैं। वे देते हैं क्योंकि वे शर्मिंदा नहीं होना चाहते हैं।

कार्य दाता दायित्व की भावना के साथ देते हैं। ऐसा इसलिए हो सकता है क्योंकि उन पर दबाव या मजबूरी हो।

स्वयं-सेवा देने वाले वे हैं जो अपने सम्मान और प्रतिष्ठा के लिए या बदले में कुछ पाने के लिए देते हैं। परन्तु येसु कहते हैं, ‘‘जब तू किसी दरिद्र को कुछ देते हो, तो कपटियों की तरह उसका बड़ा प्रदर्शन मत करों’’ (मत्ती 6ः2)।

प्यार देने वाले इसलिए देते हैं क्योंकि वे देना चाहते हैं। वे इसे प्यार या करुणा से प्रेरित स्वतंत्र रूप से और खुशी से करते हैं। संत मदर तेरेसा कहती हैं कि जब तक दर्द न हो तब तक दें।

पहले पाठ और सुसमाचार में दोनों विधवाएं हमें एक महत्वपूर्ण सबक सिखाती हैंः बलिदान का मूल्य।

विधवा ने आज के पहले पाठ में अपनी आखिरी रोटी का त्याग किया। वह मरने की तैयारी कर रही थी और वह अपने पास जो कुछ भी है, उसकी आखिरी ताकत, उसके पोषण का अंतिम स्रोत, उसके जीवन का अंतिम चिन्ह अर्थात् स्वयं को को दे देती है। तब घड़ा और जग भर जाता हैं । सुसमाचार में विधवा वह सब कुछ प्रदान करती है जिस पर उसकी जीविका टीकी थी। आज के सुसमाचार में येसु ने विधवा की ईमानदारी, उदारता और बलिदान के लिए उसकी प्रशंसा की है।

येसु ने अपने पीड़ा और मृत्यु के जरिए बलिदान की मिसाल कायम की। उन्होंने योहन 12ः24 में कहा ‘‘जब तक गेंहूँ का दाना मिटटी में गिर कर नहीं मर जाता, तब तक वह अकेला ही रहता है परन्तु यदि वह मर जाता है, तो बहुत फल देता है’’। अपने आप के लिए मर जाने के द्वारा ही हम वह बन पाते हैं जिसे ईश्वर ने हमें होने के लिए बुलाया है। बिना कष्ट किये फल नहीं मिलता।

हर दिन हमें उस आखिरी रोटी के लिए, उस आखिरी प्याले के तेल के लिए, उस आखिरी पैसे के लिए अपने दिलों की तलाश करनी चाहिए। हमें अपने हृदय में अहंकार के उस अंतिम अंश, क्रोध की अंतिम खुराक, शर्म के उस अंतिम संकेत, भय के उस अंतिम ठिकाने की तलाश करनी चाहिए, और यह सब प्रभु को समर्पित कर देना चाहिए। अरबी कहावत कहती है, ‘यदि आपके पास बहुत है, तो अपनी दौलत में से दो, यदि तुम्हारे पास थोड़ा है, तो अपने हृदय से दो।” हमें प्रभु के लिए अपना समय, प्रतिभा और खजाना बलिदान करने की आवश्यकता है। इससे चमत्कार होगा। उदारता को निश्चित रूप से पुरस्कृत किया जाएगा।

-फादर मेलविन चुल्लिकल


📚 REFLECTION

It’s been said that there are four kinds of givers: GRUDGE givers, DUTY givers, Self- serving givers and LOVE givers.

Grudge givers give but do it grudgingly or reluctantly. They give because they do not want to be embarrassed.

Duty givers give with a sense of obligation. It may be because they are pressurized or under compulsion.

Self – serving givers are those who give for their honor and prestige or to get something in return. But Jesus says “When you give something to a needy person, do not make a big show of it as the hypocrites do” (Mt 6:2).

Love givers give because they want to. They do it freely and joyfully motivated by love or compassion. Mother Theresa says give until it hurts.

Both the widows in the first reading and in the gospel teach us one important lesson: The value of sacrifice.

The widow in today’s first reading sacrificed her last bit of bread. She was preparing to die and she offers everything she has, her last bit of strength, her last source of nourishment, her last sign of life; she gives herself away. Then the jar and the jug remained full. The widow in the gospel offers all that she had to live on. Jesus in today’s gospel praises the widow for her sincerity, generosity and the sacrifice.

Jesus sets an example of sacrifice through his passion and death. He said in Jn. 12:24 “Unless a grain of wheat falls into the earth and dies, it remains just a single grain: but if it dies, it bears much fruit”. It is only through dying to ourselves that we become who god has called us to be. No pain, no gain.

Each day we must search our hearts for that last bit of bread, for that last cup of oil, for that last penny. We must search our hearts for that last ounce of pride, that last dose of anger, that last hint of shame, that last haunt of fear, and surrender it all to the lord. Arabic proverb says “If you have much, give of your wealth; if you have little, give of your heart.” We need to sacrifice our time, talent and treasure for the people for the Lord. The miracle will happen. Generosity will be rewarded for sure.v

-Fr. Melvin Chullickal

📚 मनन-चिंतन - 3

किसी अमुख पल्ली में, गिरजाघर की स्थिति दयनीय बन गयी थीl उस गिरजाघर का रंग उखड़ चुका था, उसके चारों ओर का दृश्य उजाड़ सा प्रतीत हो रहा था। उसकी मरम्मत कराने के प्रति लोग उदासीन थे। उसके अंदर के रखी किताबो और अलमारियो को प्रायः घुन खा चुका था। उसकी मरम्मत के लिए धन की कमी थी। अतः एक दिन वहाँ के पल्ली पुरोहित ने पल्लीवासियों की सभा बुलाई और पूछा कि कैसे गिरजाघर का नवीनीकरण किया जा सके। अतः सभी पल्लीवासियों ने अपनी-अपनी राय प्रस्तुत की और कहा कि सभी लोग अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार योगदान देंगे। उसी पल्ली में ही एक अत्यंत धनी व्यक्ति था जो अत्यंत कठोर हदय का था। उसे कोई भी पल्लीवासी जागरूक नहीं कर सकता था। इसलिए पल्ली पुरोहित ने सभी पल्लीवासियों से कहा क्यों न हम गिरजाघर जाकर ईश्वर से प्रार्थना कर उस धनी व्यक्ति के हदय को ख्रीस्तीयमय बना सके। पल्ली पुरोहित ने भावुक होकर भक्तिभाव से प्रार्थना की। परिणाम स्वरूप तुंरत ही उस धनी व्यक्ति ने कहा कि मैं अब से सारे गिरजाघर के मरम्मत के कार्य में अपना संपूर्ण योगदान दूंगा। इसे सुनते ही सबों के दिल में खुशी की लहर दौड़ चली और उनकी खुशी की कोई सीमा न रही। इस घट्ना से उत्साहित होकर पल्ली पुरोहित और जोर-जोर से प्रार्थना करने लगा जिसे सभी के पत्थरमय हदय पिघल जाये।

आज के तीनों पाठों का निचोड़ है उदारता और त्याग की भावना। हम सभी इसी उदारता और त्याग की भावना में सहभागी होने के लिए ईश्वर द्वारा इस संसार में नाम लेकर बुलाये गये हैं। अब प्रश्न उठता है कि कैसे हम इसे अपने जीवन में कार्यरूप में परिणत करें। हम सभी ईश्वर की असीम दया के कारण किसी न किसी रूप में अवश्य धनी हैं। यही हमें स्मरण दिलाता है कि हमें जरूरतमदों की सहायता करनी है यही हमारे जीवन में भिन्नता दिखाती है।

आज के पहले पाठ और सुसमाचार में सच्चे मनुष्य के गुणों को दर्शाया गया है। पुराने और नये विधान में दो योग्य गरीब विधवाओं की उदारता और त्याग की मिसाल को निखारा गया है उनकी इस भावना को हम कभी भुला नहीं सकते हैं। पवित्र बाइबिल हमें बताती है कि उनकी उदारता और त्याग की भावना एक महान और अद्वितीय घटना थी। क्या आज हम अपने जीवन में इस प्रश्न का जवाब देने का हिम्मत रखते हैं? कि हम ख्रीस्तीय अनुकंपा, उदारता और त्याग से परिपूरित हैं?

आज के सुसमाचार में संत मारकुस हमारे सामने अंत्यत रोचकपूर्ण दृश्य प्रस्तुत करते हैं और वह है प्रभु येसु के मंदिर में दान देने वालों पर टिप्पणी करना। बहुत से धनी लोग अपनी समृध्दि में से दान दे रहे थे और उन्हीं के बीच एक कंगाल विधवा अपनी जीविका के सभी को दान कर देती है। उनकी उदारता की भावना को सराहे बिना येसु स्वय को रोक नहीं सके। वे अपने शिष्यों को उनकी उदारता की भावना का पाठ पढ़ाते हैं कि किसी की उदारता मनुष्य को कभी भी नीचा नहीं वरन् उसे महान बनाती है।

आज के पहले पाठ राजाओं का पहला ग्रंथ हमें एक गरीब विधवा की हदयस्पर्शी घटना की याद दिलाता है, जो अपने मुठ्ठी भर आटा और थोड़ी सी कुप्पी भर के तेल से भोजन बनाकर नबी एलियाह को खाना खिलाती है। यह किसी महान उदारता की भावना से कम नहीं था। क्या हम भी उस विधवा की तरह अपनी निर्धनता में भी परिपूर्णताः दिखाते हैं? उदारता महानता की वह भावना है जो ऊंच नीच की भावना को उखाड़कर फेंक देती है। आज के पुराने और नये विधान का सामान्य भाजक नबी एलियाह की कहानी और संत मारकुस के सुसमाचार में विधवाओं की कहानी जिनका उस दौर की यहूदी प्रथा में कोई सहारा नहीं था। वे मात्र ईश्वर पर आश्रित थे। प्रभु येसु ने इसी भावना को नया अर्थ और परिभाषा दी है।

आइये आज इस यूख्रीस्तीय समारोह में भाग लेकर अपने जीवन में इसे अमल मे करने का दृढ़ निश्चय लें। एक बार अलेक्जेन्डर महान ने दरबार में कहा, “भिखारी के लिए तांबे का सिक्का उसकी आवश्यकता को पूर्ण करने के लिए पर्याप्त है, अपितु सोने का सिक्का अलेक्जेन्डर की उदारता का प्रतीक है”। अर्थात् हमें मनुष्य के रंग रूप को देखकर उसकी सहायता नहीं करनी चाहिए वरन् इसलिए उसकी सहायाता करनी चाहिए कि वह ईश्वर का प्रतिरूप है।

फादर आइजक एक्का