12) प्रिय भाइयो! आप लोग सदा मेरी बात मानते रहे। अब मैं आप लोगों से दूर हूँ, इसलिए जिस समय मैं आपके साथ था, उस से कम नहीं, बल्कि और भी अधिक उत्साह से आप लोग डरते-काँपते हुए अपनी मुक्ति के कार्य में लगे रहें।
13) ईश्वर अपना प्रेमपूर्ण उद्देश्य पूरा करने के लिए आप लोगों में सदिच्छा भी उत्पन्न करता और उसके अनुसार कार्य करने का बल भी प्रदान करता है।
14) आप लोग भुनभुनाये और बहस किये बिना अपने सब कर्तव्य पूरा करें,
15) जिससे आप निष्कपट और निर्दोष बने रहें और इस कुटिल एवं पथभ्रष्ट पीढ़ी में ईश्वर की सच्ची सन्तान बन कर आकाश के तारों की तरह चमकें।
16) और संजीवन शिक्षा प्रदर्शित करते रहें। इस प्रकार मैं मसीह के आगमन के दिन इस बात पर गौरव कर सकूँगा कि मेरी दौड़-धूप मेरा परिश्रम व्यर्थ नहीं हुआ।
17) यदि मुझे आपके विश्वास-रूपी यज्ञ और धर्मसेवा में अपना रक्त भी बहाना पड़ेगा, तो आनन्दित होऊँगा और आप सबों के साथ आनन्द मनाऊँगा।
18) आप भी इसी कारण आनन्दित हों और मेरे साथ आनन्द मनायें।
25) ईसा के साथ-साथ एक विशाल जन-समूह चल रहा था। उन्होंने मुड़ कर लोगों से कहा,
26) "यदि कोई मेरे पास आता है और अपने माता-पिता, पत्नी, सन्तान, भाई बहनों और यहाँ तक कि अपने जीवन से बैर नहीं करता, तो वह मेरा शिष्य नहीं हो सकता।
27) जो अपना क्रूस उठा कर मेरा अनुसरण नहीं करता, वह मेरा शिष्य नहीं हो सकता।
28) "तुम में ऐसा कौन होगा, जो मीनार बनवाना चाहे और पहले बैठ कर ख़र्च का हिसाब न लगाये और यह न देखे कि क्या उसे पूरा करने की पूँजी उसके पास है?
29) कहीं ऐसा न हो कि नींव डालने के बाद वह पूरा न कर सके और देखने वाले यह कहते हुए उसकी हँसी उड़ाने लगें,
30 ’इस मनुष्य ने निर्माण-कार्य प्रारम्भ तो किया, किन्तु यह उसे पूरा नहीं कर सका’।
31) "अथवा कौन ऐसा राजा होगा, जो दूसरे राजा से युद्ध करने जाता हो और पहले बैठ कर यह विचार न करे कि जो बीस हज़ार की फ़ौज के साथ उस पर चढ़ा आ रहा है, क्या वह दस हज़ार की फौज़ से उसका सामना कर सकता है?
32) यदि वह सामना नहीं कर सकता, तो जब तक दूसरा राजा दूर है, वह राजदूतों को भेज कर सन्धि के लिए निवेदन करेगा।
33) "इसी तरह तुम में जो अपना सब कुछ नहीं त्याग देता, वह मेरा शिष्य नहीं हो सकता।
अक्सर हम जब ईश्वर के प्रेम और संसार के प्रेम की तुलना करते हैं तो ईश्वर के प्रेम को सर्वोपरि पाते हैं। लेकिन कई बार ऐसा सिर्फ अपने मन में ही मानते हैं, लेकिन वास्तविकता में हम संसार के प्रेम को अधिक महत्व देते हैं। अगर हमें प्रभु येसु के शिष्य बनना है तो हमें उन्हीं के जैसे बनना पड़ेगा। उन्होंने सुसमाचार के प्रचार के लिए अपना घर-बार, अपने परिवार और सगे संबंधियों, सबको त्याग दिया और सिर्फ ईश्वर की इच्छा पूरी करने को ही अपने जीवन का आधार और केंद्र बना लिया। यदि हमें उनके जैसे बनना है तो संसार के सभी बंधनों से मुक्त होकर उनका अनुसरण करना होगा। इसलिए प्रभु येसु आज हमसे उनका अनुसरण करने से पहले उसकी कीमत क्या चुकानी पड़ेगी, इस पर मनन-चिंतन करने के लिए बुलाते हैं। अगर हम शिष्य बनने की कीमत चुकाने के लिए तैयार नहीं हैं तो उनके शिष्य नहीं बन सकते।
✍फ़ादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)Often, when we compare the love of God to the love of the world and worldy things, we find God's love to be supreme. However, sometimes we only believe this in our minds, while in reality, we give more importance to the love of the world. If we want to be disciples of Lord Jesus, we must become like Him. He gave up His home, His family, and all His close relations to proclaim the Gospel, making the fulfillment of God's will the foundation and center of His life. If we want to become like Him, we must follow Him by freeing ourselves from all worldly attachments. Therefore, Lord Jesus calls us to reflect on what price we must pay in order to follow Him. If we are not willing to pay the cost of being His disciples, we cannot truly be His disciples.
✍ -Fr. Johnson B. Maria(Gwalior Diocese)
प्रभु येसु ख्रीस्त के समय से अब तक यानि कि 2000 वर्षों से बहुत से लोग प्रभु येसु ख्रीस्त के जीवन से, उनके वचनों से, उनके शिक्षा से बहुत प्रभावित हुए है तथा बहुतों ने र्इ्रसा का अनुसरण भी किया है।
प्रभु येसु ख्रीस्त के अनुयायी बनना एक हर्ष भरा एहसास होने के साथ-साथ एक बहुत बड़ा निर्णय लेने का अवसर भी हैं क्योकि हर्ष के साथ एक बहुत बड़ी चुनौती हैं। आज का सुसमाचार हमे प्रभु येसु ख्रीस्त का सच्चा अनुयायी बनने के लिए आमंत्रित करता है।
आज का सुसमाचार हमें जनसमूह तथा प्रभु के शिष्य के बीच में अंतर को स्पष्ट करता हैं। आज का सुसमाचार हमें बताता है कि एक विशाल जन समुह ईसा के साथ साथ चल रहा था। प्रभु येसु जानते थे कि ये जो जन समुह उनके साथ साथ चल तो रहा है परंतु उनमें से अधिकतर उनके शिष्य नहीं है या उनके शिष्य होने के मापदण्ड से दूर है।
प्रभु येसु ख्रीस्त उनके शिष्य होने की कुछ शर्तों या जरूरतों को आज के वचनों के माध्यम से हमारे सामने रखते है।
सबसे पहला शर्त - संहिता की सबसे बड़ी आज्ञा है- अपने प्रभु ईश्वर को सारे ह्दय से, सारी आत्मा और सारी बुद्धि से प्यार करना (मत्ती 22ः36-38), यहॉं तक कि अपने सबसे प्रियतम या सबसे अधिक लगाव वाले रिश्ते से माता-पिता, पत्नी, भाई बहन यहॉं तक कि अपने जीवन से भी अधिक प्यार करना है। इस जीवन में हम सबसे अधिक जुड़ कर रहते है वह है हमारे माता-पिता, या भाई-बहन, पति-पत्नि या बच्चे और इससे भी ज्यादा हम अपना सारा समय अपने जीवन को खुशमय बनाने के लिए सारे कार्य या प्रयत्न करते है। प्रभु येसु का शिष्य बनना अर्थात् अपने सगों तथा अपने जीवन से भी अधिक प्रेम येसु से करना, दूसरे शब्दों मे प्रभु येसु को अपने जीवन में प्रथम स्थान देना है।
दूसरी शर्त हैं - अपना कू्रस उठा कर प्रभु का अनुसरण करना। अक्सर इस आरामदायक जींदगी में जहॉं हर एक उपकरण हमारी जिन्दगी को आरामदायक बनाता जा रहा है। हम कष्ट उठाना भूलते जा रहें है। हम चाहते है कि सब कार्य अपने आप होता चला जायें परंतु प्रभु के शिष्य के मार्ग में ऐसा नहीं हो सकता। क्योंकि यदि प्रभु ने क्रूस उठा कर अपने प्राण कू्रस पर नहीं दिये होते तो शायद ही हमारे लिए मुक्ति का रास्ता खुल पाता। जैसे अंग्रेजी में कहावत है ‘नो पेन नो गेन’ अर्थात् बिना कष्ट उठाये कुछ हासिल नहीं होता, ठीक उसी प्रकार बिना कू्रस और बिना उनका अनुसरण के हम प्रभु के शिष्य नहीं बन सकते।
आईये आज के सुसमाचार के वचन एवं शर्तों पर मनन चिंतन करते हुए हम अपने आप से प्रश्न करें कि हम किस स्थिति में हैः क्या हम भींड़ अर्थात् जनसमूह में है या प्रभु येसु के शिष्य है।
✍ - फादर डेन्नीस तिग्गा
From the time of Jesus till now almost for 2000 years many were affected and inspired by Christ Jesus’ life, His words, His teachings and became his followers.
To become Christ’s follower is a feeling of great joy and also a time to make a big decision because along with joy there is a great challenge too. Today’s Gospel invites us to be a true disciple of Christ Jesus.
Today’s Gospel clears the difference between the crowd and the disciple of Christ. In today’s Gospel we hear that a large crowd was travelling with Jesus. Jesus knew that among the crowd which was travelling with him most of them were not his disciples or are far from the condition of being called disciples.
Through today’s word, Christ Jesus puts forward some conditions and requirements to be his disciples.
The first requirement is the greatest commandment that is to love the Lord our God with all our heart, and with all our soul, and with all our mind (Mt 22:36-38), even to the extend of loving God more than our dearest or most affectionate relations that is parents, wife, brother sister and even loving God more than our life. In this life we are very much attached to our parents or brothers and sisters or husband-wife or children and more than that we love our lifes very much that most of the time we try to make our lives very enjoyable and comfortable one. To become the disciple of Jesus means to love Jesus more than our close ones and more than our lives, in other words to give Jesus the prime or first place in our lives.
Another requirement to be Jesus’ disciple is to carry the cross and follow him. Usually in this comfortable life where every technological equipment is making our lives more comfortable, we are not willing to take any pain, trouble or suffering. We want that all the work to be done without any pain and discomfort but this cannot happen on the way to Christ’s disciples because if Jesus had not took the cross and died on it then probably the door of salvation would not have opened for us. As it is being said ‘No pain, no gain’ that is without any effort or without any pain we cannot achieve anything similarly without bearing the cross and following him we cannot become Christ’s disciples.
Today let’s meditate through the Gospel requirement where do we stand: Are we one among the crowd or are we the disciple of Christ Jesus.
✍ -Fr. Dennis Tigga